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हाशिए पर लोकगीत

07:03 AM Nov 11, 2024 IST

डॉ. जेन्नी शबनम

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हमारी लोक-संस्कृति हमेशा से हमारी परम्पराओं के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती रही है। कुछ दशक पूर्व तक आम भारतीय इसकी क़ीमत भी समझते थे और इसको संजोकर रखने का तरीका भी जानते थे। लेकिन आज ये चोटिल है, आर्थिक उदारवाद से उपजे सांस्कृतिक संक्रमण ने सब कुछ जैसे ध्वस्त कर दिया है। लोक-संस्कृति के जिस हिस्से ने सर्वाधिक संक्रमण झेला है वह है लोकगीत। आज लोकगीत गांव, टोलों, कस्बों से ग़ायब हो रहे हैं। कान तरस जाते हैं नानी-दादी से सुने लोकगीतों को दोबारा सुनने के लिए। हमारे यहां हर त्योहार और परम्परा के अनुरूप लोकगीत रहे हैं और आज भी ग्रामीण और छोटे शहरी क्षेत्रों में रहने वाले बड़े बुज़ुर्गों में इनकी अहमियत बनी हुई है। एक प्यारे से गीत के बोल याद आ रहे हैं, जो अपने गांव में बचपन में सुनी थी—चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी, पुआ के बड़ाई अपन फुआ से कहिय, ललन सुखदायी।
खाने पर बना यह गीत मुझे बड़ा मज़ा आता था सुनने में। इसमें सभी नातों और भोजन को जोड़कर गाते हैं, जिसमें दूल्हा अपने ससुराल आया हुआ है और उसे कहा जा रहा कि यहां जो कुछ भी स्वागत में खाने को मिला है वह सभी इतना स्वादिष्ट है कि अपने घर जाकर अपने सभी नातों से यहां के खाने की बड़ाई करना।
पारम्परिक लोकगीत न सिर्फ़ अपनी पहचान खो रहा है; बल्कि मौजूदा पीढ़ी इसके सौंदर्य को भी भूल रही है। हर प्रथा, परम्परा और रीति-रिवाज के अनुसार लोकगीत होता है और उस अवसर पर गाया जाने वाला गीत न सिर्फ़ महिलाओं को बल्कि पुरुष को भी हर्षित और रोमांचित करता रहा है। आज तो सरस्वती पूजा हो या दुर्गा पूजा, पंडाल में सिर्फ़ फ़िल्मी गीत ही बजते हैं। होली पर गाया जाने वाला होरी तो अब सिर्फ़ देहातों तक सिमट चुका है। सोहर, विरही, झूमर, आदि महज़ टीवी चैनल के क्षेत्रीय कार्यक्रम में दिखता है।
यूं औरतें अब भी छठी मइया का पारम्परिक गीत ही गातीं हैं। नहीं मालूम लोकगीत का पुनरागमन होगा कि नहीं, लेकिन पूर्वी भारत में लोकगीतों का लुप्त होना इस सदी का सबसे बड़ा सांस्कृतिक क्षय है; क्योंकि परिवार और समाज की टूटन कहीं-न-कहीं इससे प्रभावित है। गांव से पलायन, शहरीकरण और औद्योगीकरण इस सांस्कृतिक ह्रास का बहुत बड़ा कारण है। हम स्वयं इन सबको छोड़ रहे हैं और ज़िन्दगी को जीने के लिए नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धा में झोंक रहे हैं। पारम्परिक लोकगीत गाने वाले अब बहुत कम लोग बचे हैं। आज की पीढ़ी सीखना भी नहीं चाहती है।
साभार : साझा संसार डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम

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