विवेकशील समाज विरोधी अनैतिक राजनीति
विश्वनाथ सचदेव
पंद्रह लाख रुपये हर भारतीय की जेब में आने वाले वादे को जब देश के गृहमंत्री ने एक चुनावी जुमला बताया तभी देश को समझ लेना चाहिए था कि राजनेताओं के वादे-दावे भरमाने के लिए ही होते हैं। और यह कोई पहली बार नहीं थी जब देश के किसी नेता ने इस तरह की स्वीकारोक्ति की थी। नेता चाहे किसी भी रंग की टोपी पहनने वाले हों, सब की कथनी एक-सी होती है। चुनाव-दर-चुनाव देश का मतदाता अपने नेताओं द्वारा भरमाया जाता है। कुछ ऐसा ही हाल नेताओं के नारों का भी है। हर चुनाव में नये-नये नारे सुनाई देते हैं, हर चुनाव में नये-नये नारों से नेता हमें भरमाने की कोशिश करते हैं।
ऐसा ही एक नारा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दिया है। खूब चल रहा है वह नारा। ‘बटेंगे तो कटेंगे’ के इस नारे को हरियाणा के चुनावों में बाजी पलटने वाला नारा बताया गया था। जब यह नारा पहली बार लगा तो किसी को यह शक नहीं था कि नारा लगाने वाला कहना क्या चाहता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के मुंह से ही ‘अस्सी और बीस’ वाली बात देश पहले सुन चुका था। और फिर अपने इस नये नारे के साथ ही ‘पड़ोस के बांग्लादेश की हालत देख लो’ जैसा वाक्य जोड़कर उन्होंने और भी स्पष्ट कर दिया था कि वे हिंदुओं को एकजुट होने का आह्वान कर रहे थे। सवाल हिंदुओं के बंटने का ही नहीं था, इस बात का भी था कि वे किस के खिलाफ एकजुट होने की बात कह रहे हैं। संकेत स्पष्ट था। हरियाणा में यह नारा खूब चला था, अब महाराष्ट्र, झारखंड के चुनावों और उत्तर प्रदेश समेत देश के कई राज्यों में होने वाले उपचुनावों में भी चुनावी सभाओं में यह नारा गूंज रहा है। हां, एक बदलाव ज़रूर आया है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने हिंदुओं के बंटने वाली बात को पिछड़ी जातियों के बंटने से जोड़ दिया है। प्रधानमंत्री का कहना है कि ‘वे लोग’ यानी कांग्रेसी जातीय जनगणना करा कर पिछड़ी जातियों को बांटने की साजिश रच रहे हैं!
चुनाव-प्रसार में एक-दूसरे पर आरोप लगाना कोई नयी बात नहीं है। सब लगाते हैं इस तरह के नारे। कोई आरोप चिपक जाये तो तीर, वरना तुक्का ही सही!
जिस तरह की आरोपबाजी, नारेबाजी चुनावों में होती है, वह हैरान कर देने वाली है। यह बात हमारे भारत तक ही सीमित नहीं है। हाल ही में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में एक-दूसरे पर जिस तरह के आरोप लगाये गये वह परेशान करने वाली बात होनी चाहिए। अमेरिका तो दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र होने का दावा करता है। और हमारा भी दावा है कि सबसे पुराना गणतंत्र है हमारा देश। जनतांत्रिक व्यवस्था में हमारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी होता है, दुश्मन नहीं। ऐसे में अनर्गल आरोपों वाली राजनीति उन सबके लिए चिंता की बात होनी चाहिए जो अपने आप को ज़िम्मेदार नागरिक समझते हैं। आरोप लगाना गलत नहीं है। पर आरोप बेबुनियाद नहीं होने चाहिए। साथ ही मर्यादाओं का ध्यान रखा जाना भी ज़रूरी है। महाराष्ट्र के एक नेता ने राज्य का सबसे बड़ा नेता माने जाने वाले व्यक्ति के चेहरे को निशाना बनाने की घटिया हरकत की थी। अच्छा लगा यह देखकर कि कुछ नेताओं ने इस घटिया हरकत की आलोचना की और उस व्यक्ति ने अपनी करनी पर खेद व्यक्त किया। लेकिन सवाल उठता है यह नौबत क्यों आये?
बशीर बद्र का एक शे’र है, ‘दुश्मनी जम कर करो, लेकिन यह गुंजाइश रहे/फिर कभी हम दोस्त बन जायें तो शर्मिंदा न हों।’ यह बात हमारे राजनेताओं को समझ क्यों नहीं आती? पिछले चुनाव में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने अपने तब के विरोधी पर भ्रष्टाचार का गंभीर आरोप लगाते हुए भरी सभा में कहा था कि वे उसे जेल भिजवा कर दम लेंगे। उन्होंने यह भी कहा था कि वह राजनेता जेल में ‘चक्की पीसिंग, पीसिंग’ करता रहेगा। आज वह पूर्व मुख्यमंत्री और उनके ‘चक्की पीसिंग’ वाले मंत्रीजी मंत्रिमंडल में साथ-साथ बैठते हैं! क्या वे दोनों भूल गये हैं कि उन्होंने एक-दूसरे के बारे में क्या-क्या कहा था? और यह ‘सच’ महाराष्ट्र के दो नेताओं का ही सच नहीं है -- सारे देश में ऐसे अनेक-अनेक उदाहरण बिखरे पड़े हैं। अक्सर सोचता हूं कि ऐसे लोग जब ‘फिर से दोस्त’ बन जाते हैं तो एक-दूसरे से आंख कैसे मिलाते होंगे? क्या उन्हें सचमुच शर्म नहीं आती?
यह दुर्भाग्य ही की बात है कि आज हमारी राजनीति में इस तरह की शर्म के लिए कोई स्थान बचा नहीं दिख रहा। शर्म तो इस बात पर भी आनी चाहिए कि हमने राजनीति को पूरी तरह अनैतिक बना दिया है। मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र से मैंने एक बार यह जानना चाहा था कि कौन-सा शब्द ठीक है, राजनीतिक या राजनैतिक? मेरे उस मित्र ने तत्काल जवाब दिया था, ‘राजनीतिक ही सही हो सकता है-- राजनीति में नैतिकता होती ही कहां है?’ फिर हम दोनों हंस पड़े थे। पर आज सोच रहा हूं यह बात हंसने की नहीं थी, दुखी होने की थी। पीड़ा होनी चाहिए थी हमें यह सोच कर कि हमारी राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं बचा।
सुनने में अच्छा लगता है यह नारा कि ‘बटेंगे तो कटेंगे’। पर पूछा जाना ज़रूरी है कि क्या सोचकर यह नारा लगाया गया था? किसके बंटने की बात है और कौन किसे काटेगा? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने यह नारा लगाते हुए बांग्लादेश का नाम लेकर यह स्पष्ट कर दिया था कि वे बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों की बात कर रहे हैं। धर्म के आधार पर किसी को दुश्मन मान लेना, अपने लिए खतरा मान लेना, किसी भी सभ्य समाज के लिए उचित नहीं माना जा सकता। सवाल हिंदुओं के बंटने का नहीं है, जातियों के बंटने का भी नहीं है, सवाल यह है कि हम किसके लिए बंटने-बांटने की बात कर रहे हैं। इस देश का कोई भी नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म का मानने वाला हो, प्रथमत: भारतीय है। हिंदुओं के एक होने की बात कहने का सीधा-सा मतलब गैर हिंदुओं के खिलाफ एकजुट होने की बात करना है। गलत है यह सोच। कोई भी व्यक्ति सिर्फ इसलिए बुरा नहीं हो सकता कि वह किसी धर्म-विशेष को मानता है। इसका विलोम भी इतना ही सही है। धर्म-विशेष का होने से कोई अच्छा नहीं हो जाता। अच्छा या बुरा होना हमारी करनी और सोच पर निर्भर करता है।
करनी ही नहीं, कथनी भी हमें अच्छा या बुरा बनाती है। यह बात हमारे नेताओं को भी समझनी होगी। जब तक हम देश के 140 करोड़ नागरिकों को भारतीय के रूप में नहीं स्वीकारेंगे, बंटने और कटने की भाषा बोलते रहेंगे, हम अपने आप को विवेकशील समाज का हिस्सा नहीं मान सकते। राजनीति में सब कुछ माफ वाली मानसिकता से उबरना होगा हमें। और यह मान कर भी बैठना गलत है कि राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। फिर, जो जितने ऊंचे पद पर बैठा है, उसका दायित्व उतना ही अधिक होता है। कब समझेंगे इस बात को हमारे नेता? कब बोलने से पहले तौलने की बात समझेंगे वे?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।