धन-धान्य और मंगल का पर्व
राजेंद्र कुमार शर्मा
द्वापर युग में, पौष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री के रूप में रुक्मिणी जी ने जन्म लिया था। पौराणिक ग्रंथों की मानें तो द्वापर युग में भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के साथ ही, भगवान कृष्ण लीला में सहयोग देने के लिए माता लक्ष्मी ने भी रुक्मिणी के रूप में इस धरा पर अवतरण लिया तथा वह श्रीकृष्ण की जीवन संगिनी बनी। जन्माष्टमी महोत्सव भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में भक्तजनों द्वारा बड़े उत्साह और उमंग से मनाया जाता है। माता रुक्मिणी का जन्म का रुक्मिणी अष्टमी के रूप में विशेष धार्मिक महत्व है।
व्रत की महिमा
पौराणिक कथाओं के अनुसार रुक्मिणी की पूजा-अर्चना, जीवन के कष्टों का निवारण करके, सुख-समृद्धि, धन-धान्य का वरदान देती है। घर में दरिद्रता का वास नहीं होने देती। इस पर्व विशेष पर महिलाएं परिवार की मंगल कामना निमित्त व्रत रख, माता रुक्मिणी और भगवान श्रीकृष्ण की पूजा-उपासना करती हैं।
अष्टमी पूजन
तुलसी और पीपल को जल चढ़ाया जाता है। मान्यता है कि पीपल में भगवान विष्णु का वास होता है और श्रीकृष्ण, विष्णु अवतार हैं तथा तुलसी में मां लक्ष्मी का वास होता तथा माता रुक्मिणी, मां लक्ष्मी का अवतार हैं। अतः इस अर्घ्य का विशेष महत्व माना गया है। फिर क्रमशः भगवान श्रीगणेश, श्रीकृष्ण और माता रुक्मिणी की मूर्तियां या चित्र स्थापित किए जाते हैं। पूजा स्थल पर जल से भरा मिट्टी का कलश आम की पत्तियों और उस पर नारियल का विशेष महत्व है।
पूजा का आरंभ मूर्तियों का जलाभिषेक और मंत्रोच्चारण से होता है। देवी रुक्मिणी की कथा और आरती के साथ ही पूजा का समापन होता है। प्रसाद वितरण के साथ गाय माता को भोजन देने के उपरांत ही, महिलाएं स्वयं भी भोजन कर, अपना व्रत खोलती हैं।
रुक्मिणी-श्रीकृष्ण विवाह
देवी रुक्मिणी और भगवान श्रीकृष्ण का विवाह किसी रोचक कथा से कम नहीं है। रुक्मिणी जब बड़ी हुईं तो उनके पिता भीष्मक को उनके विवाह की चिंता सताने लगी, जबकि देवी रुक्मिणी भगवान श्रीकृष्ण के रूप, गुणों की प्रशंसा सुन-सुन कर ही, मन ही मन उन्हें प्रेम करने लगी तथा हृदय से उन्हें अपना स्वामी स्वीकार कर लिया था। श्रीकृष्ण को भी नारद मुनि द्वारा रुक्मिणी के हृदय की बात पता लग चुकी थी। रुक्मिणी का बड़ा भाई रुक्मी इस संबंध के पक्ष में नहीं था, वह भगवान श्रीकृष्ण को अपना शत्रु मानता था। वह देवी रुक्मिणी का विवाह, श्रीकृष्ण के बुआ के बेटे शिशुपाल से करवाना चाहता था क्योंकि शिशुपाल, रुक्मी का मित्र था और श्रीकृष्ण का शत्रु था। रुक्मी ने अपने प्रयत्नों से अपने पिता भीष्मक को रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से करने के लिए सहमत भी कर लिया। रुक्मिणी ने यह संदेश श्रीकृष्ण को भेज दिया। श्रीकृष्ण और उनके भाई बलराम ने रुक्मिणी की सहायता की योजना बनाई।
विवाह से ठीक पहले जब देवी रुक्मिणी अपनी सखियों के साथ मंदिर में पूजन को गई तथा पूजा करके बाहर आई तो वहां रथ पर भगवान कृष्ण उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपना हाथ देवी रुक्मिणी की ओर बढ़ाया और रुक्मिणी ने उनका हाथ थाम लिया। भगवान कृष्ण ने रुक्मिणी को रथ में बिठाया और शंखनाद कर दिया जिसे सुनकर रुक्मी और शिशुपाल युद्ध के लिए श्रीकृष्ण के पीछे भागे। उनके बीच भीषण युद्ध हुआ, युद्ध में रुक्मी को पराजित होना पड़ा। युद्ध उपरांत भगवान श्रीकृष्ण और देवी रुक्मिणी का विवाह, धूमधाम से द्वारिका नगरी में संपन्न हुआ।
रुक्मिणी अष्टमी पर्व और अनुष्ठान, धन संपदा की देवी मां लक्ष्मी को ही समर्पित है अतः रुक्मिणी अष्टमी पर किया जाने वाला व्रत, परिवार में सुख समृद्धि और मंगल लेकर आता है।