अनंत आकांक्षाओं के अम्बर हैं पिता
‘पापा’ कहनेभर को एक छोटा-सा शब्द, किंतु वास्तव में पूरा संसार ख़ुद में समेटे। आकाश से कहीं विस्तृत, सागर से कहीं गहरा। ‘पापा’ यानी एक ऐसा विशाल वटवृक्ष जिसकी सघन छाया तले शैशव पल्लवित होता है, जिसकी सुदृढ़ भुजाएं झूला बनकर बचपन पर निसार होती हैं, जो हर ताप-संताप से परिवार की रक्षा करता है।
मां के धैर्य की तुलना यदि धरती से की गई तो पापा के स्थान को नभसदृश गौरवमयी आंका गया। मां ममता की साक्षातzwj;् मूरत है तो पापा कर्मठता के प्रतीक। मां जहां संतान के लिए समूचा जीवन दांव पर लगा देती है, वहीं पापा पारिवारिक सुख-सुविधाएं जुटाने में जीवनपर्यन्त तत्पर रहते हैं। मां के आंचल में शीतल दुलार है तो पापा की अंगुली में नन्हे क़दमों की पुख्ता रफ्तार है। संस्कारों व आदर्शों की घुट्टी से जीवन को पोषित करने वाली यदि मां है तो उन आदर्शों का यथार्थ से तालमेल बिठाने वाले पिता ही हैं। दोनों का महत्व एक-दूसरे से कहीं कमतर नहीं। सोनोरा डॉड द्वारा पितृ-दिवस आयोजन को पारम्परिक रूप देने के पीछे निस्संदेह यही कारण रहा होगा।
मूलत: कृषक, सोनोरा डॉड के पिता ने बतौर सैनिक भी राष्ट्रीय सेवाएं प्रदान कीं। पत्नी का असमय निधन होने पर, माता-पिता के सम्पूर्ण दायित्व का निर्वाह उन्होंने अकेले ही किया। उनके समर्पण के प्रति नतमस्तक, सोनोरा डॉड ने वॉशिंगटन के स्पोकेन शहर में पितृ-दिवस मनाने का निर्णय लिया। 19 जून, 1910 को पहला पितृ-दिवस मनाया गया।
1916 में अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने पितृ-दिवस मनाने संबंधी प्रस्ताव को मंजूरी दी। वर्ष 1966 में राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने इसे जून के तृतीय रविवार मनाने का निर्णय लिया। 1972 को राष्ट्रपति निक्सन द्वारा प्रथम बार पितृ-दिवस पर अवकाश घोषित किया गया।
बाहर से जितने कठोर प्रतीत होते हैं पापा; भीतर से उतने ही मृदुल, संवेदनशील। बिलकुल किसी नारियल की ही भांति, जिसके कठोर, रूखे-सूखे आवरण में सरसता सुरक्षित बनी रहती है। वास्तव में यह संतान को संयमित, अनुशासित व कर्मठ बनाने का प्रयास ही तो है ताकि स्नेहातिरेक उद्दण्डता, आलस्य व कर्महीनता के प्रभावी होने का कारण न बन जाए। बिलकुल एक बर्तन को आकार प्रदान करने की प्रक्रिया, जिसमें कुम्हार जब बाहर से थपथपाता है तो भीतर बराबर हाथ दिए रहता है।
‘मैं हूं न’ यह संक्षिप्त-सा वाक्य प्रोत्साहन के रूप में जीवन को नवस्फूर्ति प्रदान करने में अभूतपूर्व योगदान देता है। बचपन में जब नन्हे-नन्हे क़दम चलने के प्रयास में लड़खड़ा जाते हैं तो पापा के स्नेहिल हाथ माटी झाड़ते हुए, पुन: आगे बढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। किशोरवय में जब मन सतरंगी स्वप्न बुनने लगता है तो पापा ही हैं जो इस स्वप्निल उड़ान को सशक्त पंख देते हैं। दिग्भ्रमित होने पर दिशा ज्ञान देते हैं, शिक्षक बनकर जीवन जीने की कला सिखाते हैं, मित्र बनकर उलझनें सुलझाते हैं। कर्मभूमि में योद्धा बनकर चुनौतियां स्वीकारना; निर्भीकता, सजगता तथा बुद्धि कौशल के सुमेल से विजेता बनना; यह मूलमंत्र भी तो पापा ही देते हैं। पराजित कांधे पर हाथ धरकर हिम्मत बंधाते हैं तो विजयी होने पर पीठ थपथपाते हैं; सरल शब्दों में, हमसाया होते हैं पापा।
किसी मासूम बच्चे से यदि प्रश्न किया जाए कि दुनिया का सबसे ताक़तवर व अमीर व्यक्ति कौन है, तो नि:संकोच उत्तर होगा ‘पापा’। नि:संदेह, जहां बच्चे की रक्षा की बात हो, पापा पूरी दुनिया से लोहा लेने की क्षमता रखते हैं। जेब भले ही ख़ाली हो, लेकिन बच्चे की ख्वाहिश पूरी न हो पाए, पापा को यह कदापि ग़वारा नहीं। बच्चे की छोटी-सी मांग पूर्ति हेतु अपनी ज़रूरतों में कटौती करना भी सहर्ष स्वीकार्य है पापा को।
यह परम्परा न केवल पिता के प्रति सम्मान अथवा श्रद्धा का प्रतीक मात्र है बल्कि यह हमें संतान के रूप में निज कर्तव्य-निर्वाह का स्मरण भी कराती है। जीवन की अंतिम वेला में जब शरीर निर्बल होने लगे, तो अपनत्व के अहसास से उन्हें मानसिक तुष्टि व पुष्टि प्रदान करना हमारा सर्वोपरि धर्म बन जाता है। उनकी हर ख़्वाहिश का सम्मान करना, उन्हें पूर्ण आदर-सत्कार देना ही सही अर्थों में पितृ-धर्म है।
आजकल पितृ-दिवस पर उपहार देने का भी ख़ासा चलन है। केक काटकर पितृ-दिवस मनाते हुए क्षणों को कैमरे में क़ैद करके सोशल मीडिया पर शेयर करना स्टेटस सिंबल बन गया है। बेशक़, खुशियां बांटने से दुगुनी होती हैं और संदेश भी अच्छा जाता है, बशर्ते इस सब के पीछे गहरी आस्था व वास्तविक समर्पण भाव हो।
दरअसल, भक्ति वहां होती है जहां भाव हो और भाव वहां होता है जहां परवाह तथा स्नेह का आभास स्वत: ही होने लगे। ‘पा+पा’ का अर्थ ही है- पाना। पापा सिर्फ़ देना जानते हैं, क़ीमती उपहार उनके लिए कोई मायने नहीं रखते। उन्हें चाहिए, तो केवल संतान का निश्छल प्रेम। जीवन के सांध्यकाल में कदाचितzwj;् कंपकंपाते हाथों से प्याला छलक जाए तो उन्हें लज्जित अथवा अपमानित अनुभव कराने की अपेक्षा दो हाथ आगे बढ़ें और नेह से भीगे स्वर में बस इतना भर कह दें ‘कोई बात नहीं पापा, मैं हूं न’, ठीक वैसे ही, जैसे अब तक पापा हमेशा कहते आए हैं।
हमारा प्रतिपल अपने जनक के प्रति अर्पित हो, ‘पितृ-दिवस’ यही स्मरण दिलाने की पावन परम्परा है और यही इस दिवस विशेष को मनाने का प्रयोजन भी। भला उस सुदृढ़ आधारशिला को कैसे विस्मृत कर सकते हैं, जिसके नि:स्वार्थ समर्पण पर ही हमारे भविष्य की भव्य इमारत बनना संभव हो पाया?