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किसानों को भी मिले कार्पोरेट जैसी उदार मदद

12:36 PM Jun 07, 2023 IST

देविंदर शर्मा

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विदेश यात्रा के दौरान क्रेडिट कार्ड के जरिये भुगतान पर 20 प्रतिशत कर लगाने पर माहौल गर्माने के बाद सोशल मीडिया पर रोचक बहस छिड़ गई। एक जाने-माने और बड़े कारोबारी ने एक पोस्टर साझा किया, जिसकी इबारत थी ः ‘मैं एक करदाता हूं, मेरा कर राष्ट्र के लिए है, न कि मुफ्त की रेवड़ियां लुटाने को।’ इस ट्वीट ने खासी प्रतिक्रिया अर्जित की।

सरकार ने अपने रुख में लचीलापन दिखाते हुए संशोधन किया कि 20 प्रतिशत कर तभी लगेगा जब विदेश में क्रेडिट कार्ड आधारित भुगतान की रकम 7 लाख से ज्यादा बने। इस पर भी ट्वीटर पर रोचक एवं अर्थपूर्ण प्रतिक्रियाएं आईं। एक ट्वीटर उपभोक्ता ने कहा : ‘जब सिपाही सीमा पर खड़े हैं, तो अमीर आदमी क्यों नहीं क्रेडिट कार्ड से किए भुगतान पर 20-प्रतिशत टैक्स भर सकता।’ यह ऐसा जुमला है जो नोटबंदी समर्थकों द्वारा गढ़े गए ‘तर्कों’ से प्रेरित लगता है।

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अमीर वर्ग ने सावधानीपूर्वक और निरंतर प्रचार से आभास गढ़ा है मानो देश का विकास केवल उनके यानी कॉर्पोरेट्स द्वारा चुकाए करों पर निर्भर है। यह बात सही है कि जो लोग परोक्ष कर भरते हैं उनकी चिंता इस बात पर जायज है कि उनके कराधान का पैसा कहां जा रहा है। लेकिन यह आभास देना कि सिर्फ अमीर ही कर भरता है, एकदम गलत है। जीएसटी के आने के बाद से, एक गरीब आदमी अगर हवाई चप्पल जैसी वस्तु खरीदता है तो भी टैक्स भरता है। आम नागिरक अन्य आवश्यक वस्तुओं पर भी कर चुकाता है, जिसमें थैलीबंद दूध एवं पनीर जैसे दुग्ध उत्पाद भी शामिल हैं।

फैलाई गई कहानी कि केवल कॉर्पोरेट्स ही कर भरते हैं, इसको बदलना होगा। जैसा कि ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में निचले तबके वाली 50 प्रतिशत जनसंख्या कुल जीएसटी उगाही में दो-तिहाई है, जबकि चोटी का 10 प्रतिशत वर्ग केवल 3-4 फीसदी। यहां, चोटी के 10 फीसदी अमीरों में वे हैं, जिनकी कमाई 25000 रुपये महीना या इससे अधिक है!

बात पुनः ट्वीटर पर चली बहस की करें तो अपने उत्तर में मैंने ट्वीट किया : ‘हां, मेरे कर का पैसा कॉर्पोरेट्स को मुफ्त की खैरात देने में इस्तेमाल के लिए नहीं है।’ इस ट्वीट पर काफी संख्या में लोगों ने देखा, अभी तक यह संख्या 301000 पार हो चुकी है। यह साफ दर्शाता है कि समाज के काफी बड़े तबके को अहसास है कि कैसे कॉर्पोरेट्स को मुफ्त की खैरात मिल रही है और वह भी तथाकथित तरक्की की आड़ में। यहां मुख्य बात यह है कि हम वाकई नहीं चाहते कि हमारा धन कॉर्पोरेट्स को मुफ्त की रेवड़ियों की तरह बंटे।

पहले यह जानने की कोशिश करें कि लोगबाग कॉर्पोरेट्स को मुफ्त की खैरात बांटने पर क्यों खफा हैं। भारत में, अन्य मुल्कों की भांति, कॉर्पोरेट्स को फायदा न केवल लंबे समय की कर-वसूली में माफी देकर बल्कि घटी दरों का कॉर्पोरेट्स टैक्स और आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज देकर भी पहुंचाया जाता है और उनकी मदद अन्य तरीकों से, जैसे कि सस्ती दर पर जमीन, सस्ती बिजली और सब्सिडी वाला बैंक ऋण इत्यादि देकर भी की जाती है। जहां उद्योग जगत सोचता है कि यह प्रोत्साहन तरक्की के लिए है, जबकि कुछ समय पहले हुए एक शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में माना था कि जिसे उद्योगों को बढ़ावा देने वाला प्रोत्साहन कहा जाता है, वह भी एक सब्सिडी है।

राष्ट्र के खजाने को खाली करने के अलावा मुफ्तखोर देश के प्राकृतिक स्रोतों का भी दोहन करते हैं। इसने वह आय असमानता भी पैदा कर डाली है, जो हर साल बढ़ती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र के अध्ययन के मुताबिक, हर साल उद्योग जगत को 7.3 ट्रिलियन डॉलर मूल्य की प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट दी जाती है। इतने विशाल स्तर की सब्सिडी हटा दी जाए तो कॉर्पोरेट्स का मुनाफा धराशायी हो जाएगा। इसलिए अमीर और अमीर हो रहे हैं और गरीब और गरीब। अनुमान बताते हैं कि दुनियाभर में चोटी के अमीर, जो कि सकल जनसंख्या का 0.01 प्रतिशत हैं, उनके हाथ में इतनी धन-संपदा का नियंत्रण है जो निचले पायदान पर बैठी 90 फीसदी जनसंख्या के बराबर है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों केवल अमीरों को ही बैंकों से ऋण माफी के अलावा घटी दर पर कर भरने का लाभ मिलता है? उदाहरणार्थ, भारत में, कोविड महामारी से पहले, 2019 में कॉर्पोरेट जगत को हर साल 1.45 लाख करोड़ रुपये की कर-छूट दिये जाने की घोषणा की गई। इतनी विशाल कर-छूट ऐसे समय पर दी गई जब अधिकांश अर्थशास्त्री राष्ट्रीय धन को ग्रामीण क्षेत्र में वस्तु-मांग बढ़ाने के लिए उपयोग करने की सलाह दे रहे थे। कॉर्पोरेट्स को मिली यह सौगात 1.8 लाख करोड़ रुपये के उस आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज के अलावा है, जो वर्ष 2009 में वैश्विक महामंदी के बाद भारत सरकार ने उद्योग जगत को दिया था। इसका मतलब है कि इन सालों में 20 लाख करोड़ रुपए पहले ही अमीरों को जा चुके हैं। अगर कहीं यह पैसा केवल कृषि क्षेत्र में निवेश कर दिया जाता तो खेती संबंधी संत्रास इतिहास की बात हो जाता।

दूसरी ओर, जब भी सरकार प्रधानमंत्री किसान निधि योजना के तहत किसानों को प्रति तिमाही 2000 रुपये जारी करती है तो इसका प्रचार बड़े जोर-शोर से किया जाता है, इसके बरक्स कॉर्पोरेट जगत को हर साल 1.45 लाख करोड़ रुपये की कर-छूट का जिक्र तक नहीं होता।

वित्तीय वर्ष 2021 की समाप्ति तक भारतीय बैंकों ने कॉर्पोरेट जगत के अनचुके ऋण की 11.68 लाख करोड़ रुपये की विशाल राशि बट्टे खाते में डाल दी है। रोचक कि, मार्च, 2022 तक, इरादतन ऋण अदायगी न करने वालों में चोटी के 50 कर्जदारों की तरफ बैंकों का 92,570 करोड़ रुपये बकाया था। ये वह लोग हैं जो कर्ज वापस करने की स्थिति में हैं, लेकिन करना नहीं चाहते।

इसी प्रकार, सरकार ने उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना के अंतर्गत 14 क्षेत्रों में 1.97 लाख करोड़ रुपये की सहायता राशि देने की घोषणा की है। वास्तव में, यह सब्सिडी पहले संत्रास भुगत रही कृषि को दिए जाने की जरूरत थी।

विडंबना है कि व्यापार जगत के कुछ अग्रणी लोग मानते हैं कि बैंकों द्वारा माफ किया धन उनके मुनाफे से है, इसलिए इसका संबंध कराधान से मिलने वाले पैसे से नहीं है। लेकिन शायद वे यह मानना नहीं चाहते कि बैंकों द्वारा बट्टे खाते में डाले गए पैसे की वसूली सरकार अन्य ढंग से करती है, जिसका मतलब कि यह ऋण-माफी दरअसल आम कर-दाता के पैसे से होती है। सवाल यह भी कि क्यों भारत में केवल कॉर्पोरेट्स को ही ऋण-माफी की सुविधा है जबकि छोटा-सा कर्ज न चुका सकने की एवज में किसी किसान को जेल तक जाना पड़ जाता है? क्यों इरादतन ऋण-चोरों से बड़ी नरमी से बर्ताव जबकि कर्ज देने में चूके किसान को जेल की सजा?

यह देखना दर्दनाक है कि कैसे किसान मंडी में वाजिब दाम न लगने के कारण अपना आलू, प्याज, टमाटर, गोभी आदि उत्पाद सड़कों पर फेंकने को मजबूर हैं। खेती में संत्रास पिछले काफी वक्त से कायम है। खेत-मजूरी भी काफी सालों से एक जगह पर अटकी है। सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता यह वह अनियोजित क्षेत्र है जिसे फौरी मदद की जरूरत है। यदि कृषि फले-फूलेगी तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अनेक पहलुओं पर इसका सकारात्मक असर होगा लिहाजा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था भी ऊपर चढ़ेगी। यही वह क्षेत्र है मेरे द्वारा चुकाए टैक्स का पैसा जाना चाहिए।

लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।

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