सर्दियों के लिए ऊर्जा बचत में जुटा यूरोप
राजेन्द्र चौधरी
यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते यूरोप पर ऊर्जा संकट छा गया है। यह आने वाले सर्दी के मौसम में घातक हो सकता है क्योंकि रूस से आयात होने वाली गैस पर यूरोप की निर्भरता बहुत अधिक है। इसलिए यूरोपीय यूनियन ने अगली मार्च तक ऊर्जा खपत 15 प्रतिशत कम करने का वैधानिक लक्ष्य रखा है। ऊर्जा की खपत कम करने के उपायों की सूची में शामिल हैं : सर्दियों में कमरे का अधिकतम तापमान 2-3 डिग्री कम कर दिया जाए। कुछ शहरों में ये 18 डिग्री कर दिया है यानी कमरे को इस से ज्यादा गर्म नहीं कर सकते। एक बड़े रिहायशी संस्थान ने सर्दियों में रात के तापमान की अधिकतम सीमा 17 डिग्री कर दी है। इसके अलावा कपड़े धूप व हवा में सुखायें, नहाने में 5 मिनट से ज्यादा समय न लें, गर्म पानी को ज्यादा गर्म न करें, ठंडे पानी में कम समय तक नहाना बेहतर, काम ख़त्म होने पर दफ्तर छोड़ने से पहले कंप्यूटर को बंद कर दें, दुकान बंद करने के बाद बाहर की लाइटें बंद कर दें। इसके साथ ही दुकान बंद करते वक्त बिजली से चलने वाले संकेतक बंद करना, गर्मियों में कमरे का तापमान 27 डिग्री से नीचे न करना, ए.सी. चलने पर दुकान का दरवाजा खुला मिलने पर जुर्माना, सार्वजनिक संस्थानों में रात के समय बाहरी रोशनी कम करना, सार्वजनिक यातायात को प्रोत्साहन देने के लिए इस को मुफ्त किया या दाम घटाए, वाहनों की गति सीमा कम करना, होटलों के खुले इलाकों में हीटर चलाने पर प्रतिबन्ध, हवाई यात्रा के स्थान पर रेल यात्रा को प्रोत्साहन, गर्मी से बचने के लिए खिड़कियों पर पर्दे लगाएं, टाई न पहनें इत्यादि की सलाह ऊर्जा बचाने के लिए दी गई है।
सवाल उठता है कि क्या ये सब उपाय मसलन कपड़ों को मशीन में न सुखा कर धूप व हवा में सुखाना या गर्मी में टाई न पहनना, ऊर्जा संकट आने पर ही उठाये जाने चाहिए या ये हमारे नियमित जीवन का हिस्सा होने चाहिए? किसी भी तरह की ऊर्जा हो, चाहे कथित तौर पर पर्यावरण अनुकूल सौर ऊर्जा या वायु ऊर्जा ही हो, वह भी या तो पर्यावरण में प्रदूषण फैलाती है या पक्षियों को हानि पहुंचाती है या बहुत सीमित मात्रा में उपलब्ध खनिज तत्वों के उपयोग को बढ़ावा देती है या किसी को विस्थापित करती है। इसलिए ऊर्जा उपयोग को कम से कम करना ही चाहिए। इसके लिए आपातकाल का इंतज़ार करने में बुद्धिमानी नहीं है। बाज़ार में ‘दान के लिए कम्बल’ की तर्ज़ पर ‘ए.सी. के लिए कम्बल’ मिलना व्यापक सामाजिक मानसिक विकलांगता का द्योतक है।
दूसरा सवाल यह उठता है कि मानवीय जीवन शैली के पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों एवं जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नया नहीं है। बरसों से वैज्ञानिक इस बारे में चेताते रहे हैं परन्तु उसके लिए तो ऐसे त्वरित कदम नहीं उठाये गए। बल्कि अमेरिका जैसे देश बड़ी बेशर्मी से कहते रहे हैं कि ‘हमारी जीवन पद्धति के बदलाव का सवाल ही नहीं उठता’। फिर अब जीवन शैली नियंत्रण के उपाय क्यों, अब क्यों ए.सी. के तापमान नियंत्रण के नियम? क्या इसलिए कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव तात्कालिक नहीं हैं परन्तु रूस से गैस मिलना बंद होना लगभग निश्चित एवं तात्कालिक है? ऐसी अदूरदर्शिता कि अपनी नाक से आगे कुछ न दिखना तो मानवीय विवेक का परिचायक नहीं है। डाल पर बैठ कर उसी डाल को काटने वाले को हमारे यहां बेवकूफ कहा जाता है।
एक तीसरा प्रश्न भी है कि यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते उत्पन्न ऊर्जा संकट से निपटने के लिए सरकारें क्यों आगे आ रही हैं? इसे क्यों नहीं बाज़ार के भरोसे छोड़ा जा रहा? जब हर ओर बाजारवाद का बोलबाला है- पीने के पानी तक के निजीकरण को प्रोत्साहन दिया जाता है, तो ऊर्जा संकट से निपटने के लिए मुक्त बाज़ार की हिमायती सरकारें क्यों दखल दे रही हैं? रूस से ऊर्जा की आपूर्ति बंद होने पर ज्यादा से ज्यादा क्या होता? ऊर्जा के दाम ही तो बढ़ जाते परन्तु फिर से मांग और आपूर्ति के बीच एक नया समन्वय स्थापित हो जाता। बल्कि सवाल यह भी उठता है कि रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के चलते रूस से व्यापार सम्बन्धों पर रोक ही क्यों लगाई गई? अगर मुक्त व्यापार व्यवस्था ही आदर्श व्यवस्था है तो सरकारों का अब व्यापार में दखल क्यों? क्या इससे यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि बाजारवाद की विचारधारा ठीक नहीं है। बाज़ार उपयोगी है परन्तु सब कुछ इसके भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। तो क्या न्यूनतम सरकार का आदर्श उचित नहीं है? बाज़ार पर समाज का नियंत्रण होना ही चाहिए एवं बुद्धिमानी इसी में है कि हम अपनी जीवनशैली में परिवर्तन के लिए प्रलय के आगाज़ का इंतज़ार न कर के अभी से शुरुआत करें। इसमें एक सूत्र सहायक हो सकता है कि किसी भी वस्तु का बाज़ार भाव हमेशा उसकी असली लागत एवं लाभ का परिचायक नहीं होता।
पुनश्च: स्पेन कोई बहुत विशालकाय देश नहीं है परन्तु उस के कुछ इलाकों में 26 डिग्री से ऊपर तापमान जाने पर आपातकालीन स्थितियां हो जाती हैं तो कहीं 40 डिग्री से ऊपर जाने पर भी नहीं। इसका बड़ा कारण भवन निर्माण एवं शहरी नियोजन के तौर-तरीकों में अंतर है यानी मानवीय विवेक एवं चुनाव की बड़ी भूमिका है।