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पहाड़ों के संरक्षण से ही थमेगा पर्यावरणीय संकट

06:51 AM Dec 22, 2023 IST

वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली

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कॉप सम्मेलनों के दौरान शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि एक महत्वपूर्ण मंच से किसी संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने हिमालय को केन्द्र में लाकर रख दिया हो। दो दिसम्बर, 2023 में कॉप-28 की दुबई में लगभग शुरुआत में ही एक आयोजन में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने ऐसा कर दिखाया। उन्होंने चिंता के स्वरों के साथ कहा था कि जोखिम के प्रति संवेदनशील पर्वतीय देश वह संकट झेल रहे हैं जो उनके किये के कारण नहीं है। हिमालयी पर्वत सहायता के लिये चीत्कार कर रहे हैं। कॉप-28 को इसका जवाब देना चाहिए। उन्होंने यह भी जोड़ा कि हिमालयी ग्लेशियर इतनी तेजी से पिघल रहे हैं कि डर है कि वहां सारे ग्लेशियर खत्म न हो जायें। हिमालयी पहाड़ बर्फ विहीन हो रहे हैं। यदि हम राह नहीं बदलेंगे तो भयंकर त्रासदी ले आयेंगे। ग्लेशियर लुप्तप्राय होने से गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र में पानी कम हो सकता है। इससे 2500 लाख लोगों पर असर पड़ेगा। अक्तूबर, 2023 में नेपाल भ्रमण के अनुभवों का उल्लेख करते हुये महासचिव का कहना था कि नेपाल ने पिछले तीस सालों में एक-तिहाई बर्फ खोने की बात भी कही जिससे वहां स्थानीय समुदायों के जीवन पर असर पड़ा है।
निस्संदेह, आज तेजी से गर्म होती पृथ्वी में जैव विविधता के साथ-साथ ग्लेशियर भी हमारा साथ छोड़ते जा रहे हैं। हजारों साल पहले तक ग्लेशियर कई महाद्वीपों के भूभागों में विस्तार लिये थे। ये सिकुड़ते गये व अब विश्व के दस प्रतिशत क्षेत्र में हैं। भारी-भरकम ग्लेशियर लम्बाई-चौड़ाई में सैकड़ों किलोमीटर परिमाप और मोटाई में 70 से 100 मीटर से तीन-चार किलोमीटर तक परिमाप के भी हो सकते हैं। विश्व के जल भंडार सारे वैश्विक ग्लेशियर यदि पिघल जायें तो सागर स्तरों में लगभग 230 फीट की बढ़ोतरी हो जायेगी।
ग्लेशियर तो स्वतः भी पिघलेंगे ही। तभी तो विश्व की ऐसी हिमपोषित नदियां अस्तित्व में आती हैं जो कम बरसातों में भी सदानीरा रहती हैं। किन्तु इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से ही हिमालयी ग्लशियरों की पिघलने की दर दुगुनी हो गई है। ये हर साल करीब-करीब आधा मीटर की मोटाई खो रहे हैं। इससे नदियों पर, जैव विविधता पर व जलवायु पर असर पड़ रहा है। यदि ग्लेशियर ही न रहेंगे तो उनसे निकली नदियां भी कहां रह पायेंगी। किन्तु ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से भविष्य में जल के संकट व बाढ़ों की संभावनाएं भी गहरा जाती हैं। इनमें खतरनाक ग्लेशियल झीलें भी बन जाती है। जिनके टूटने से तबाहियां आती रही हैं। उत्तराखंड में भी लगभग 486 ग्लेशियल झीलें हैं जिनमें से 13 बेहद जोखिम वाले हैं।
दुनियाभर में तीस हजार वर्गमील ग्लेशियर तापमान की वैश्विक समस्या झेल रहे हैं। साल 2018 में बंगलुरु के जलवायु बदलाव पर काम करने वाले एक संस्थान के वैज्ञानिकों ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि पश्चिमोत्तर हिमालय में 1991 के बाद औसत तापमान 0.66 सेंटीग्रेड बढ़ गया है। वहां सर्दियां भी लगातार गर्म हो रही हैं। अमेरिका की एक एजेंसी तो पूरे हिंदु कुश हिमालय पर ही जलवायु बदलाव के खतरों से सालों पहले आगाह कर चुकी थी।
हैरानीजनक है कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव जैसी चिंताएं सितंबर, 2023 जी-20 के दिल्ली शिखर सम्मेलन के जलवायु और पर्यावरण से संबंधित घोषणा पत्र में कहीं नहीं उभरीं। हिंदु कुश हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ते तापक्रम से भारी उथल-पुथल से गलते ग्लेशियर व उनसे आती बाढ़ों जैसे संकटों की चिंता हिंदु कुश हिमालयी देश चीन व भारत में तो होनी ही चाहिये थी। कटु यथार्थ तो यह है कि हिंदु कुश हिमालयी क्षेत्र के देश भारत में 70 प्रतिशत से ज्यादा बिजली उत्पादन कोयले से हो रहा है और निकट भविष्य में भी होता रहेगा। चीन भी कोयले का और अधिक उपयोग कर रहा है। इन देशों में बिजली उत्पादन, औद्योगीकरण, परिवहन, पर्यटन, तीर्थाटन के नाम पर ग्लेशियर क्षेत्रों तक मानवीय भीड़ व गतिविधियां भी पहुंची हैं। बता दें कि 7 फरवरी, 2021 को चमोली जिले में रैणी व तपोवन क्षेत्र में हुए जल प्रलय का कारण अप्रत्याशित रूप से ग्लेशियर विखंडन व ग्लेशियल झील फटने से जुड़ी दुर्घटना ही थी। केदारनाथ में 2013 की त्रासदी में भी ग्लेशियल लेक बाढ़ बहाव की भूमिका थी।
पवित्र चार धाम श्री बदरीनाथ, श्री केदारनाथ, श्री गंगोत्री व श्री यमुनोत्री धाम जो ग्लेशियरों के अंचल क्षेत्र हैं, वहां सीमित समय में हर धाम में लाखों श्रद्धावान पहुंच रहे हैं। हजारों वाहनों की हजारों ट्रिप हो रही हैं। आकाशीय परिवहन भी बढ़ रहा है। यहां सीमेंट-सरिया से निर्माण भी बढ़ा है। श्री बदरीनाथ धाम के पास सतोपंथ ग्लेशियर है। यमुनोत्री ग्लेशियर भी यमुनोत्री से लगभग दस किमी पर है। गंगोत्री ग्लेशियर का गोमुख भी बीतेे दशक में करीब 300 मीटर पीछे खिसक गया है।
भारत को अपने ग्लशियरों को बचाना चाहिये। ऐसे आर्थिक लोभ की गतिविधियों से भी बचना चाहिये जिससे हिमालयी ग्लेशियरों पर संकट आये। बाहर की भीड़ को वहां ग्लेशियरों पर संकट न पैदा करने दीजिये। इससे प्रदूषक कार्बन गैसें, ग्रीन हाउस गैसें वहां पहुंच रही हैं। इनसे ग्लेशियरों में उष्मीय ऊर्जा भी कैद हो रही है। ग्लेशियर्स की सेहत के लिए बर्फ पर कम से कम गतिविधियां हों। उनके आसपास वेडिंग डेस्टिनेशन और ज्यादा हवाई उड़ानों को न लायें।

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