समावेशी विकास की प्राथमिकताएं सुनिश्चित करें
इन दिनों भारत की संपन्नता के जो आंकड़े देशवासियों के सामने प्रस्तुत हो रहे हैं, वे आशावाद से भरे हुए हैं। हाल ही में आई गोल्डमैन सैक्स की रिपोर्ट बता रही है कि देश में अरबपतियों की संख्या दुनिया में तीसरे नंबर पर है जबकि अमेरिका सर्वाधिक अरबपतियों वाला देश है। यह भी तमाम विषम हालात में भी देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ी है। फिर भी 168 अरबपति भारत में हो गए हैं। लेकिन इस संपन्न धरती के निर्धन लोगों को कैसे भूलें? यही रिपोर्ट कहती है कि देश की आधी आबादी ऐसी है जिसकी कमाई 12000 रुपये प्रति माह तक ही है।
यह सच है कि पिछले वर्षों में बड़ी कारों और बड़ी कोठियों की बिक्री ने छोटे घरों और छोटी कारों की बिक्री को कहीं पछाड़ दिया है। भारत तेजी से एक साख व्यवस्था हो गया। पिछले वर्ष में क्रैडिट कार्डों का इस्तेमाल उससे पिछले वर्षों के मुकाबले 2.50 गुणा बढ़ गया। लेकिन जहां तक जीवन निर्वाह के लिए जरूरी वस्तुओं कपड़ों, जूतों और अन्य उपभोक्ता सेवाओं की मांग है, वह सोना-चांदी, सम्पदा और अन्य स्थाई वस्तुओं, जिन्हें धनी लोग इस्तेमाल करते हैं, के मुकाबले बहुत कम है।
हम बार-बार कहते हैं कि भारत में अन्य देशों की तरह से महामंदी नहीं आएगी लेकिन यहां खतरा पैदा हो गया है कि अगर वंचित और निम्न मध्यवर्ग जो देश की कम से कम आधी आबादी है, अगर उसकी मांग में कमी होती है तो उससे मंदी हमारे जरूरी उद्योगों और खेतीबाड़ी के आर्थिक द्वार पर दस्तक दे सकती है। इसीलिए वित्तमंत्री को भी चाहिए कि आने वाले अंतरिम बजट में कुछ न कुछ कदम ऐसे उठाने पड़ेंगे जिससे इस मुख्य वर्ग की उपभोक्ता मांग में कमी नहीं आएगी और हम मंदी से बचकर निकल जाएंगे। उम्मीद की जा रही है कि इन करोड़ों लोगों के हाथ में उपभोग के लिए कुछ पैसा छोड़ने के वास्ते शायद कर बोझ में कुछ कमी की जाएगी।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत की उपलब्धियां कम हैं। 2014 में भारत दुनिया की आर्थिक शक्तियों में दसवें नंबर पर था लेकिन आज वह पांचवें नंबर तक पहुंच गया है। चुनावी प्रचार के माहौल में घोषणा भी हो रही है कि 2027 तक हम जर्मनी और जापान को पछाड़कर दुनिया की तीसरी बड़ी शक्ति बन जाएंगे।
यह निश्चय ही हमारी विकास यात्रा की एक महती उपलब्धि होगी और इसी के लिए भारतीयों को मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करने के लिए देश के कोने-कोने में आजकल विकसित भारत संकल्प यात्रा निकाली जा रही है। हमने इंटरनेट, डिजिटल और कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में उम्मीद से अधिक तरक्की की है। हमारा इसरो अंतरिक्ष विजय अभियान में अमेरिका के नासा से 21 है 19 नहीं। सबसे बड़ी बात कि इसरो की उपलब्धियां चाहे चांद विजय की हों या सौर विजय की, अथवा जैसे हम अभी सूर्य की थाह ले रहे हैं, वह बहुत ही किफायतशाली कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त इसरो की गतिविधियों का व्यवसायीकरण भी कर दिया गया है। तीसरी दुनिया के देशों से लेकर छोटे देशों के संचार उपग्रहों का प्रक्षेपण करने का एक बड़ा व्यवसाय भारत के निजी क्षेत्र के सामने खुल गया है।
लेकिन यहां कुछ चुनौतियां और भारतीय अर्थव्यवस्था की इस दौड़ में विसंगतियां भी हमें सचेत कर सकती हैं। पहली बात तो यह कि भारत की अर्थव्यवस्था समतावाद के लक्ष्य से कहीं छिटककर विषम व्यवस्था बन गई है। मोटे तौर पर कहा जाता है कि भारत के दस प्रतिशत धनी 90 प्रतिशत सम्पदा पर कब्जा जमाए बैठे हैं और 90 प्रतिशत आबादी 10 प्रतिशत सम्पदा पर गुजारा कर रही है। नई शिक्षा नीति तो बन गई है लेकिन आंकड़ाशास्त्री बताते हैं कि हमारी युवा पीढ़ी एक बड़ी नौजवानों की आबादी दसवीं से पहले ही स्कूल छोड़ जाती है। देश में किसी कारगर रोजगार अथवा निवेश नीति के न होने के कारण बेरोजगारी बढ़ी है। देश के मुख्य धंधे खेती के क्रमश: अलाभकारी होते जाने के कारण इन नौजवानों के सामने देश से पलायन के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं रह गया है। जरूरत इन प्राथमिकताओं को बदलने की है। देश के विकास और संपन्नता में सभी को साथ लेकर चलने की है। इसी को समावेशी विकास कहा जाता है, जो अकादमिक स्तर पर तो सच है लेकिन यथार्थ के स्तर पर आज भी गरीब आदमी से कोसों दूर है।
देश के वंचित वर्ग को दया की नहीं बल्कि रोजगार की गारंटी भी चाहिए। तेजी से डिजिटल होती अर्थव्यवस्था में स्वचालित उत्पादन प्रक्रिया के उत्साह के बावजूद लघु, कुटीर और मध्यम उद्योगों को उनका उचित स्थान देकर ही यह गारंटी दी जा सकती है। इसी गारंटी के साथ ही नौजवानों का स्वाभिमान जुड़ा है, 80 करोड़ लोगों को उदार और रियायती राशन बांट कर नहीं। इसलिए जितनी जल्दी अपने समावेशी विकास में इन प्राथमिकताओं को उनकी सही जगह पर बिठा दिया जाए, उतना ही देश का भला होगा।
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