हरियाली के विस्तार से समृद्ध स्वास्थ्य
दीपिका अरोड़ा
ग्रीष्म के असहनीय आतप से आकुल धरा, श्रावनी बौछारें पड़ते ही सोंधेपन से सराबोर हो महकने लगती है। चिरनिद्रासीन बीज भी यकायक जाग उठते हैं, हरित दूर्वा के मखमली बिछौने के मध्य नवसृजन की अनेकानेक संभावनाएं फूटने लगती हैं। वायुमंडल में व्याप्त नमी, वृष्टि जल की सहज उपलब्धता बीजांकुरण में सहायी बनते हैं।
ऐसे वातावरण में देशव्यापी ‘वन महोत्सव, 2022 अपनी सार्थकता की ओर अग्रसर है। प्रकृति की इस अमूल्य धरोहर को निर्बाध रूप से संवर्धित करने की संकल्पना, नि:संदेह 1947 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने ही की थी किंतु इसे साकार रूप देने का श्रेय कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी को जाता है, जिनके अथक प्रयासों से 1950 में पहली बार ‘वन महोत्सव’ मना पाना संभव हो पाया। तब से पूरे भारत में ‘वन महोत्सव’ मनाया जाता है। अनेक राज्यों में यह आयोजन साप्ताहिक स्तरीय होता है, असम आदि पूर्वोत्तर राज्य इस संदर्भ में जुलाई-अगस्त माह को विशेष मानते हैं।
सही अर्थों में जीव एवं वनस्पति एक-दूसरे के पूरक हैं। वृक्ष अर्थात् मानव के सच्चे सहचर; वायुमंडलीय तापमान कम करके पर्यावरण- संतुलन बनाए रखना, वातावरण में उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करके प्राणवायु प्रदान करना, वृष्टि आवाहक बनना, अतिरिक्त जीवन निधि भूगर्भ में सहेजते हुए तीव्र जलबहाव को नियंत्रित करना, भूमिकटाव रोकना आदि; सृष्टि-संरक्षण में वृक्षों का योगदान प्रत्येक प्रकार से अतुलनीय है। भोजन, ईंधन आदि आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से लेकर असंख्य लोगों की आजीविका का माध्यम भी हैं ये वृक्ष। भारतीय आयुर्वेद पद्धति के चमत्कारिक प्रभावों से कदाचित ही कोई अनभिज्ञ होगा। पौधरोपण से ही बंधी है मानवीय सांसों की डोरी; भारतीय संस्कृति में आम, पीपल, बरगद, आंवला आदि पादपीय प्रजातियों को प्रदत्त पूजनीय स्थान इसी विश्वास का द्योतक है। आज भी अनेक मांगलिक अनुष्ठानों में वृक्षवंदना का पारम्परिक प्रचलन, प्रकृति व मानव का अटूट संबंध दर्शाता है।
भौतिक विकास प्रक्रिया में प्राकृतिक वन सम्पदा का क्षरण निश्चय ही विडंबनापूर्ण है। कंक्रीट सभ्यता ने वन्य जीवों को बेघर कर डाला, अनेकों प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर जा पहुंचीं। वन स्थिति रिपोर्ट 2021 के अनुसार, देश का कुल वन-वृक्ष आवरण 80.9 मिलियन हेक्टेयर है, जोकि कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 24.62 है। 2019 की अपेक्षा 2261 वर्ग कि.मी. तुलनात्मक वृद्धि दर्ज की गई, लेकिन पौधरोपण एवं वन संरक्षण लक्ष्य प्राप्ति अभी बाकी है। तकनीकी सुलभता में पहाड़ दरकने लगे, वनस्पतियां सिमटने लगी, ग्लेशियर पिघल रहे हैं। एक ओर अनावृष्टि का चीत्कार, दूसरी तरफ अतिवृष्टि का तांडव। मार्च माह में जून सी तपन, आिखर इस अप्रत्याशित ऋतु-परिवर्तन में किसका हाथ है? विज्ञान का अनुमोदन करने वाले कैसे भूल गए, पौधों में भी जीवन है? वे भी सांस लेते हैं, थिरकते हैं, अवमानना पर कुपित भी होते हैं। बढ़ता तापमान, महामारी का प्रकोप, पूर्वोत्तर में अनियन्त्रित बाढ़-भूस्खलन; सभी रोष प्राकट्य के स्पष्ट संकेत ही तो हैं।
वैश्विक स्तर पर जैव विविधता जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिंग के संकट से जूझ रही है। कार्बन उत्सर्जन तथा जलवायु परिवर्तन समस्याओं से निपटने हेतु भारत सरकार ने 2030 तक वन क्षेत्र को बढ़ाकर 33 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा है। किंतु सफलता तभी तय है, जब फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन ऑफ यूनाइटेड नेशंस द्वारा जारी ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स फॉरेस्ट्स’ रिपोर्ट में रेखांकित पेड़-पौधों एवं वन पर आधारित उत्पादों के सम्पूर्ण महत्व के बारे जागरूकता फैलाई जाए। रिपोर्ट के अनुसार, अधिकांश लोग इस बात से अनभिज्ञ हैं कि ऑक्सीजन व स्वच्छ वातावरण प्रदान करने सहित, वन संसाधनों की भूमिका सीधे तौर पर हमारी अर्थव्यवस्था से भी जुड़ी है। सरकार चाहे तो पेड़ों से प्राप्त फल आदि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करके लोगों को पौधरोपण अभियान से जोड़ सकती है।
विशेषज्ञों के अनुसार छायादार, फलदार, आर्थिकी, सुगंध, औषधीय गुणों से परिपूर्ण विश्व की श्रेष्ठतम प्रजातियां भारत में मौजूद हैं। हरियालीयुक्त वातावरण तापमान को 7 डिग्री तक घटा सकता है। संतुलित पर्यावरण चक्र को संतुलित अवस्था में लाना हो तो कम से कम एक-तिहाई भूभाग को वृक्ष सम्पदा से आच्छादित करना होगा। ‘एग्रोफॉरेस्ट्री मिशन’ के तहत कृषकों को खेत की मेड़ पर पेड़ लगाने हेतु प्रोत्साहित करना सराहनीय पहल है। भारतीय भौगोलिकता के अनुसार उत्तर, मध्य व दक्षिण क्षेत्रों में स्थानीय परिस्थितियों, मृदा की गुणवत्ता, विशेषता के आधार पर पौधों का चयन करके क्षेत्र को हरीतमा प्रदान करना प्रत्येक नागरिक का अपरिहार्य लक्ष्य होना चाहिए। शिशु की भांति पौधे भी सामयिक देखभाल मांगते हैं।
पौधरोपण मानवीय दायित्व है। ज्ञातव्य है, तटीय क्षेत्रों में रोपित सघन पेड़ों ने ही 2004 में आयी सुनामी की आगामी लहरों को अवशोषित करके, बड़ी संख्या में मानवीय निवास-स्थलों को संरक्षित किया। कोविड-प्रभाव भी तुलनात्मक दृष्टि से हरियाले क्षेत्रों में कम रहा।