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अध्यात्म को विज्ञान की वेदी पर प्रतिष्ठा

08:50 AM Dec 18, 2023 IST
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श्रीमती अलकेश त्यागी

सिद्धपुरुष मानवता को कुछ शाश्वत सत्य दिए बिना संसार से नहीं जाते। प्रत्येक मुक्तात्मा ईश्वर-प्राप्ति का कुछ न कुछ प्रकाश व प्रभाव दूसरों पर छोड़कर जाती है। इसी दायित्व को ‘योगी कथामृत’ के लेखक, भारत में योगदा सत्संग सोसायटी (वाईएसएस) तथा अमेरिका में सेल्फ-रियलाइजेशन फैलोशिप (एसआरएफ) जैसी संस्थाओं के संस्थापक, श्री श्री परमहंस योगानंदजी ने बड़ी खूबसूरती से निभाया है। उन्होंने गीता की अद्भुत व्याख्या कर आधुनिक विश्व को एक नई दृष्टि दी है।
परमहंस योगानंद जी कृत ‘गॉड टॉक्स विद अर्जुन - द भागवत‍् गीता’ पहली बार 1995 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुई लेकिन अल्पकाल में ही इसे 20वीं सदी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रंथ माना गया। इसका हिंदी संस्करण ‘कृष्ण-अर्जुन संवाद - भगवद् गीता’ नाम से उपलब्ध है।
योगानंद जी ने गीता की इस टीका पर 1932 में ही काम शुरू कर दिया था, जो 1952 तक पूर्ण हुआ। बोलकर गीता पर टीका लिखवाते समय योगानंद जी की अवस्था के बारे में उनके शिष्य ने लिखा है ‘वह कुछ समय के लिए अहाते में आए। उनकी आंखों में अपरिमित एकाकीपन था और उन्होंने मुझसे कहा; ‘तीनों लोक मुझमें बुलबुले की तरह तैर रहे हैं।’
अपने लेखन कार्यों की अंतिम परिणति के लिए योगानंद जी अमेरिकी शिष्या तारामाता पर निर्भर करते थे। उन्हें उस समय की सर्वोत्तम संपादक बताते हुए कहते ‘अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी के अलावा किसी और के साथ भारतीय दर्शन पर चर्चा में इतना आनंद नहीं मिला जितना लॉरी (तारामाता) के साथ।’ लेकिन अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने एक अन्य शिष्या मृणालिनी माता को प्रशिक्षित करना आरंभ कर दिया। इस पर मृणालिनी माता ने पूछा, ‘पर गुरुजी कौन इस काम को कर सकता है?’ योगानंद जी ने कहा ‘तुम इसे करोगी।’ और 1952 में योगानंद जी की महासमाधि के 43 वर्ष बाद तथा सेल्फ-रियलाइजेशन फैलोशिप की 75वीं वर्षगांठ पर 1995 में मृणालिनी माता जी की देखरेख में यह कार्य पूरा हुआ।
इस ग्रंथ की भूमिका में योगानंद जी ने बताया है कि कैसे उनके गुरु श्रीयुक्तेश्वर जी ने उनके द्वारा, बुद्धि विलास द्वारा नहीं बल्कि श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए वास्तविक संवाद को जैसा व्यासजी ने समझा तथा स्वयं योगानंद जी के समक्ष प्राकट्य के आधार पर, गीता पर टीका लिखने की भविष्यवाणी की थी। इस टीका में परमात्मा (श्रीकृष्ण) और आदर्श शिष्य की जीवात्मा (अर्जुन) के बीच हुए संवाद की आध्यात्मिक विवेचना है। योगानंद जी कहते हैं कि इन पृष्ठों में व्यक्त आध्यात्मिक समझ तक व्यास के साथ समस्वर होकर तथा अर्जुन की आत्मा बनकर परमात्मा के साथ संवाद कर पहुंचे हैं। वह कहते हैं कि परिणाम स्वयं बोलेगा कि यह व्याख्या नहीं है बल्कि परमात्मा द्वारा समस्वर हुई आत्मा में उड़ेले गए ज्ञान का वृत्तांत है।
गहन आध्यात्मिक व मनोवैज्ञानिक सत्यों को खोलती यह पुस्तक मानवीय अस्तित्व के किसी पक्ष को अनछुआ नहीं छोड़ती। आध्यात्मिकता को विज्ञान की वेदी पर प्रतिष्ठित करती यह पुस्तक वर्तमान और आगामी युगों की अमूल्य धरोहर है। योगानंद जी को ईश्वर के दिव्यप्रेम का अवतार मानकर उन्हें प्रेमावतार भी कहा जाता है।

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