मुफ्त की रेवड़ियों से कठघरे में चुनावी राजनीति
हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने निश्चय कर लिया है कि अगले पांच साल तक देश के गरीबों को मुफ्त राशन मुहैया करायेंगे। इस निश्चय की घोषणा उन्होंने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की चुनावी सभा में की है! यह ‘निश्चय’ शब्द उन्हीं का है। उन्होंने स्पष्ट कहा है, ‘मैंने निश्चय कर लिया है।’ उन्होंने यह नहीं कहा कि यदि वे चुनाव जीत गये। स्पष्ट है वे यह मानकर चल रहे हैं कि पांच राज्यों में ही नहीं, लोकसभा के 2024 के चुनाव में भी वही विजय हासिल करेंगे। ऐसी कोई सूचना कितनी विश्वसनीय है यह तो चुनाव-परिणाम ही बतायेंगे, पर मुफ्त अनाज बांटने की घोषणा करके उन्होंने यह तो बता ही दिया है कि गरीबों को मुफ्त अनाज चुनावी लड़ाई में उनका एक बड़ा हथियार है, जिसे वे कारगर मानते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि चुनाव अक्सर ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के नाम पर ही जीते जाते रहे हैं। पिछले एक अर्से से इसमें धर्म और जुड़ गया है, पर भूख निश्चित रूप से सबसे महत्वपूर्ण और गंभीर मुद्दा है। बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दे भी अंतत: भूख से ही जुड़े हुए हैं। ऐसे में यह मानना ग़लत नहीं होगा कि मुफ्त अनाज वाली यह तरकीब काफी कारगर सिद्ध हो सकती है।
वस्तुत: मुफ्त अनाज की शुरुआत देश में कोरोना-काल में हुई थी। सरकारी दावों के अनुसार इस दौरान देश के अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज बांटा गया था। दुनियाभर में भारत सरकार की इस पहल की सराहना हुई थी। देश में भी प्रधानमंत्री मोदी के इस कदम को सराहा गया था। फिर, पिछले दो साल में भी इस अनाज योजना को लागू रखा गया और भाजपा को इसका लाभ भी मिला। प्रधानमंत्री को लग रहा है यह लाभ आगे भी मिलता रहना ज़रूरी है– इसीलिए अब आगामी पांच साल तक मुफ्त अनाज बांटने की इस योजना को चालू रखने के निश्चय की घोषणा कर दी गयी है।
कोरोना-काल में इस तरह की योजना देश की जनता की आवश्यकता थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि तब करोड़ों लोगों के रोज़गार छिन गये थे। बड़ी संख्या में फैक्टरियां, कारखाने, दफ्तर आदि बंद हो गये थे। बीमारी और बेरोज़गारी ने भयावह स्थिति उत्पन्न कर दी। ऐसी स्थिति में अस्सी करोड़ जनता को मुफ्त अनाज देकर सरकार ने एक अभूतपूर्व काम किया था। लेकिन क्या आज भी स्थिति वैसी ही है जैसी तीन साल पहले थी? क्या अब भी फैक्टरियां, कारखाने, दफ्तर बंद हैं? क्या अब भी देश के लोग भूखे सो रहे हैं अथवा उन्हें भूखा सोना पड़ रहा है? यदि ऐसा है तो यह निश्चित रूप से गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। देश के अस्सी करोड़ लोगों की भूख मिटाने के लिए सरकार की ‘अनुकंपा’ पर निर्भर रहना पड़े, यह चिंता की बात भी है, और शर्म की बात भी। कोरोना-काल एक अपवाद था। उस समय की विवशताओं को समझा जा सकता है। पर ऐसी किसी व्यवस्था का स्थाई बन जाना अपने आप में एक बड़ी समस्या है। देश की जनता को काम मिले, उसकी भूख मिटे, उसे जीवन को बेहतर बनाने के पर्याप्त और उचित अवसर मिलें यह किसी भी सरकार का बुनियादी कर्तव्य होता है। लेकिन इस सबके लिए सरकार की कृपा की आवश्यकता हो और जनता को कतारों में खड़े होकर हाथ पसारने पड़ें तो इसे एक सोचनीय स्थिति ही कहा जाना चाहिए। सवाल यह भी उठता है कि यदि देश की अर्थ व्यवस्था दसवें से पांचवें स्थान पर पहुंच गयी है, और तीसरे स्थान तक पहुंचाने के दावे किये जा रहे हैं, तो अस्सी करोड़ लोग मुफ्त राशन पर निर्भर क्यों हों?
चुनावी मौसम में आश्वासनों और वादों की उपयोगिता असंदिग्ध है। दावे भी समझ में आते हैं। एक सीमा तक ‘रेवड़ियां’ बांटना भी समझा जा सकता है। पर अस्सी करोड़ लोगों को भूखा न सोना पड़े और इसके लिए सरकारी कृपा पर आश्रित होना पड़े, यह बात आसानी से समझ नहीं आती। इस स्थिति का सीधा-सा मतलब यह है कि सरकार देश की जनता को उचित जीवन-स्थितियां देने के अपने बुनियादी काम में विफल रही है। इस विफलता के लिए ‘पिछली सरकारों’ को दोषी ठहराना एक सीमा तक तो समझ में आता है, पर इस विफलता का सारा ठीकरा पहले की सरकारों पर फोड़ना किसी भी दृष्टि से समझ नहीं आता। कोई भी सरकार ऐसी स्थिति के दायित्व से बच नहीं सकती। यह मान भी लिया जाये कि पिछली सरकारों ने अपना कर्तव्य ठीक ढंग से नहीं निभाया था, तब भी मौजूदा सरकार का यह कर्तव्य बनता है कि वह स्थिति को सुधारे। यदि आज सरकार को पांच साल तक मुफ्त अनाज बांटने की घोषणा करनी पड़ रही है तो यह इस बात का ही प्रमाण है कि सरकार की नीतियों में कहीं खोट है या फिर उनका क्रियान्वयन ग़लत है। साठ साल की तुलना में दस साल कम होते हैं, इसमें संदेह नहीं, पर दस साल इतने कम भी नहीं होते कि कोई सरकार समय की कमी को कारण बताकर अपने कर्तव्य से पल्ला झाड़ ले। जनता को पांच साल तक मुफ्त अनाज देने की व्यवस्था को स्वीकार करना एक तरह से अपनी विफलता को ही स्वीकार करना है।
लेकिन सरकार विकास के दावे कर रही है। कृषि के क्षेत्र में, उद्योग के क्षेत्र में, व्यवसाय के क्षेत्र में- सब क्षेत्रों में विकास की बातें हो रही हैं, तो फिर मुफ्त अनाज बांटने की यह विवशता क्यों?
इस प्रश्न का एक उत्तर उस मानसिकता में है जो ‘रेवड़ियां बांटने’ को चुनावी जीत का एक आधार मानती है। मतदाता को रिझाने के लिए राजनीतिक दल और राजनेता पिछले एक अर्से से मुफ्त सामान बांट रहे हैं। नकद राशि भी बंटती रही है। हर चुनाव में बड़ी मात्रा में काले धन की बरामदगी इस बात का ही उदाहरण है कि वोट मांगे नहीं जा रहे, खरीदे जा रहे हैं। यह वोट खरीदना कुल मिलाकर जनतंत्र के साथ छल ही है। यह सही है कि मतदाता का वोट बेचना भी उतना ही ग़लत है, पर मुफ्त राशन और नकद सहायता जैसे काम हमारी चुनावी-राजनीति को कठघरे में ही खड़ा करते हैं। कुल मिलाकर वोटों की ही यह खरीद-फरोख्त किसी अपराध से कम नहीं। हैरानी तो यह भी है कि चुनावी मौसम में इस सब को जायज मान लिया गया है!
देश की राजनीति के ठेकेदारों को इस सवाल का जवाब तो देना ही होगा कि वोट ख़रीदने में उन्हें शर्म क्यों नहीं आती? मतदाता को भी अपने आप से यह पूछना पड़ेगा कि उसकी विवशता को राजनेता अपना हथियार कैसे बना लेते हैं? सस्ती दरों पर जनता को ज़रूरी सामान मुहैया कराना एक ज़रूरत हो सकती है, पर इस जरूरत को पूरा करने के नाम पर मतदाता को रिश्वत देने की कोशिश करना एक अपराध है। पीड़ा इस बात की ज़्यादा है कि यह सब कुछ खुलेआम हो रहा है—और नेतृत्व के हर स्तर पर हो रहा है!
देश के जागरूक नागरिकों का यह कर्तव्य बनता है कि वह अपने नेताओं से पूछें कि अस्सी करोड़ नागरिकों को मुफ्त अनाज बांटने की विवशता जिन ग़लत नीतियों का परिणाम है उन्हें बदलने के लिए क्या कदम उठाये जा रहे हैं? इन ग़लत नीतियों के ज़िम्मेदार लोगों को सबक कौन सिखाएगा?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।