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इंडियन स्पेस इकोनॉमी को विस्तार की कवायद

07:56 AM Apr 06, 2024 IST

डॉ. शशांक द्विवेदी
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पिछले दिनों भारत सरकार ने अंतरिक्ष क्षेत्र में विदेशी और निजी कंपनियों को आकर्षित करने के प्रयासों के तहत उपग्रहों के उपकरण बनाने में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को अनुमति देकर अंतरिक्ष क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) मानदंडों को आसान बना दिया। सरकार ने अंतरिक्ष क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में संशोधन को मंजूरी दे दी है। असल में नियम आसान होने से निवेश बढ़ेगा और इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।
एफडीआई मानकों को लागू करने के लिए उपग्रह उप-क्षेत्र को तीन अलग-अलग गतिविधियों में बांटा गया है। प्रक्षेपण यान, उपग्रह और उपग्रह घटक संशोधित नीति के तहत लॉन्च वाहनों में 49 प्रतिशत तक, उपग्रहों में 74 प्रतिशत और उपग्रह घटकों में 100 प्रतिशत तक एफडीआई की अनुमति है। अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी भागीदारी को बढ़ाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने पिछले साल नई भारतीय अंतरिक्ष नीति का ऐलान किया था। जिसमें अंतरिक्ष क्षेत्र की संभावनाओं का लाभ उठाने के लिए की बात कही गई थी। इसी के तहत जून, 2020 में केंद्र सरकार ने अंतरिक्ष क्षेत्र के सुधारों और निजी कंपनियों को इसरो के संसाधनों और बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल करने में सक्षम बनाने के लिए एक नई एजेंसी इंडियन नेशनल स्पेस प्रमोशन एंड अथॉराइजेशन सेंटर की स्थापना की थी।
उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, भारत में अंतरिक्ष स्टार्ट-अप की संख्या 2014 में केवल एक थी, वह 2023 में बढ़कर 189 हो गई। भारतीय अंतरिक्ष स्टार्ट-अप में निवेश 2023 में बढ़कर 124.7 मिलियन डॉलर हो गया। फिलहाल, भारतीय स्पेस इकोनॉमी का आकार तकरीबन 8.4 अरब अमेरिकी डॉलर है, जो ग्लोबल स्पेस इंडस्ट्री का लगभग 2 फीसदी है। इनस्पेस के अनुसार 2033 तक देश की स्पेस इकोनॉमी 44 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगी और ग्लोबल स्पेस इंडस्ट्री में भारत की हिस्सेदारी बढ़कर 8 प्रतिशत हो जाएगी। यह मुकाम हासिल करने में प्राइवेट सेक्टर महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
स्पेस सेक्टर में 100 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति देने का भारत का निर्णय एक रणनीतिक कदम है। यह भारतीय स्पेस इंडस्ट्री में निवेश करने और साथ काम करने के इच्छुक विदेशी खिलाड़ियों के लिए यहां प्रवेश की बाधाओं को कम करेगा। भारत की किफायती स्पेस इंडस्ट्री बड़ी संख्या में विदेशी निवेशकों को लुभाने की काबिलियत रखती है। सूर्य मिशन, चंद्रयान-3 मिशन की सफलता से भारत दुनिया के टॉप-5 अंतरिक्ष कार्यक्रम वाले देशों में शामिल है। कम लागत वाले हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम से ज्यादातर देश जुड़ना चाहते हैं।
स्पेस सेक्टर में एफडीआई को लेकर सरकार के पास दो विकल्प थे। एक तो टेलीकॉम सेक्टर की तरह वह स्पेस सेक्टर को भी 100 प्रतिशत विदेशी निवेश के लिए खोल दे या इसको 74 प्रतिशत पर रखा जाए, जैसा डिफेंस सेक्टर में है। सरकार ने बीच का रास्ता निकालते हुए पूरे स्पेस सेक्टर को तीन हिस्से में बांट दिया। लॉन्च व्हीकल के सेगमेंट में सबसे कम 49 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति दी गई है। इसका कारण रणनीतिक है, क्योंकि जो टेक्नोलॉजी, लॉन्च व्हीकल और रॉकेट में इस्तेमाल होती है, वही टेक्नोलॉजी मिसाइल और आईसीबीएम में भी लगती है। दूसरा कारण यह है कि सैटेलाइट जहां से भी लॉन्च की जाती है, वहां कुछ सॉवरेन जिम्मेदारियां होती हैं। जब सॉवरेन जिम्मेदारी देश पर है, तो उसका नियंत्रण देश के बाहर नहीं होना चाहिए। सरकार ने 74 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति उन जगहों पर दी है जो डिफेंस के समतुल्य हैं। जैसे सैटेलाइट, डेटा आदि। कंपोनेंट तथा अन्य मामलों में, जो टेलीकॉम के समतुल्य हैं, उनमें 100 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति दी गई है।
वैश्विक स्पेस इकोनॉमी का बाजार तेजी से बढ़ रहा है, भारत भी तेजी से इस क्षेत्र में कदम बढ़ा रहा है। कमर्शियल सैटेलाइट लॉन्चिंग में भारत पर भरोसा लगातार बढ़ रहा है। एक समय ऐसा भी था जब अमेरिका ने भारत के उपग्रहों को लाॅन्च करने से मना कर दिया था। आज स्थिति ये है कि अमेरिका सहित तमाम देश खुद भारत के साथ व्यावसायिक समझौता करने को इच्छुक हैं। अब पूरी दुनिया में सैटेलाइट के माध्यम से टेलीविजन प्रसारण, मौसम की भविष्यवाणी और का दूरसंचार का क्षेत्र बहुत तेज गति से बढ़ रहा है। कम लागत और सफलता की गारंटी इसरो की सबसे बड़ी ताकत है जिसकी वजह से स्पेस इंडस्ट्री में आने वाले समय में भारत का बोलबाला होगा। इंडियन स्पेस एसोसिएशन और अर्न्स्ट एंड यंग की ‘डेवलपिंग द स्पेस इको सिस्टम इन इंडिया’ के नाम से प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार स्पेस लॉन्चिंग का बाजार 2025 तक बहुत ही तेजी से बढ़ेगा। इस रिपोर्ट में भारत में इसके सालाना 13 फीसदी के हिसाब से वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। इसके पीछे की मुख्य वजह स्पेस के क्षेत्र में निजी भागीदारी का बढ़ना तो है ही, साथ ही नई-नई तकनीक आने और लॉन्चिंग सेवाओं की लागत में कमी की वजह से भी स्पेस इकोनॉमी तेजी से बढ़ेगी। अर्न्स्ट एंड यंग की रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में वैश्विक स्पेस इकोनॉमी का आकार 447 अरब डॉलर तक था जिससे 2025 तक 600 अरब डॉलर के पार जाने की उम्मीद है।

लेखक मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डायरेक्टर हैं।

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