खुशियों-उत्कंठा से महरूम करती शिक्षा पद्धति
पिछले कुछ वक्त से, जिस युवा विद्यार्थी से मेरा जुड़ाव गहरा है, उसमें बदलाव होते देख रहा हूं। एक समय था जब वह खिलंदड़ हुआ करता था। साइकिल चलाने से लेकर फुटबॉल के मैदान में या गुणवत्तापूर्ण साहित्य पढ़ने से लेकर अपने मनोभावों को लेखों और लघु कहानियों में पिरोने का आनंद उठाने तक– वह असीम सृजनात्मक ऊर्जा से लबरेज़ हुआ करता था। लेकिन इन दिनों लगता है वह निरंतर तनाव, भय में है और उखड़ा-उखड़ा रहता है। कुछ दिन पहले ही उसने 12वीं कक्षा की बोर्ड-परीक्षा दी है। उसे चिंता है कि क्या वह परीक्षा में कम से कम 97 फीसदी अंक ले पाएगा या नहीं। इसके अलावा प्रवेश परीक्षाओं की एक लंबी शृंखला को लेकर भी उसमें तनाव व्याप्त है। मसलन, जेईई, नीट, सीक्यूईटी इत्यादि, में अपनी कुव्वत सिद्ध करने के लिए इनमें बैठना ही पड़ेगा। इस चिंता ने उसकी हंसी, उसकी अलमस्ती, उसकी नींद और उसकी जीवन ऊर्जा छीन ली है।
हालांकि यह केवल किसी एक बच्चे की कहानी नहीं है। यदि आप अपने इर्द-गिर्द देखें। युवा विद्यार्थियों से बात करें। उनकी रोजमर्रा की व्यथा सुनें– स्कूल से लेकर कोचिंग सेंटर तक की– आपको वाकई महसूस होगा कि एक विषैली शिक्षा संस्कृति हमारे बच्चों को बर्बाद कर रही है, उन्हें उनकी खुशियों और उत्कंठा से महरूम कर रही है। एक अशांत एवं नाखुश पीढ़ी पैदा करती जा रही है।
आखिर क्यों कहा जा रहा है कि शिक्षा के नाम पर यह पीढ़ी ज़हर प्राप्त कर रही है? इसके पीछे चार कारण हैं। प्रथम, परीक्षाओं को अत्यधिक महत्व देने से सीखने का आनंद जाता रहा। अर्थपूर्ण ढंग से जुड़े रहकर शिक्षा पाने वाली संस्कृति को दरकार होती है तनावमुक्त वातावरण की, ताकि कोई छात्र अपने निराले स्वभाव और कौशल के मुताबिक आत्म-अन्वेषण और आंतरिक उन्नति कर पाए। अंकों के आधार पर आकलन, सदा अच्छे नंबर लाना और किसी के ज्ञान का तोल भौतिकी, गणित या अंग्रेजी में पाए अंकों से करने का बेलगाम दबाव, वह भी हफ्ते दर हफ्ते, महीना दर महीना और साल दर साल परीक्षाओं के जरिए या फिर अत्यधिक जटिल होते जा रहे अभ्यास, परीक्षा प्रपत्रों को हल करने की शृंखला ने बच्चे की सीखने की नैसर्गिक लय को भंग कर डाला है। साथ ही हद दर्जे का तनाव, भय और मानसिक संत्रास बना डाला है।
दूसरी बात यह कि इसने सामाजिक संपर्क की आवश्यकता को भी बिगाड़ दिया है, संयुक्त एवं आपसी संवाद से सीखने की भावना खत्म होती जा रही है। इसकी बजाय, अति-प्रतिस्पर्धा का वायरस, दूसरे की सफलता से जलन, एकाकीपन और स्वार्थीपन युवा छात्रों के मानस में घर करता जा रहा है। शिक्षा की ऐसी संस्कृति की वजह से हमारे बच्चों के लिए सामाजिक मेल-मिलाप से सीखना लगातार मुश्किल बन रहा है जबकि किसी स्वस्थ और लोकतांत्रिक समाज के लिए खुद को बनाए रखने वास्ते जरूरी है विनम्रता, सहृदयता और संवाद के जरिए संयुक्त उत्थान की प्राप्ति, सहयोग और आपसी देखभाल वाली संस्कृति।
तीसरी बात यह है कि चूंकि वर्तमान में सफलता गाथाओं के प्रति आसक्ति हावी है। गौर करें कि कैसे नीट या जेईई परीक्षाओं में टॉप करने वालों को अंधाधुंध प्रचार के जरिए रातों-रात पौराणिक कथाओं के विजेता नायकों सरीखा स्टारडम प्रदान कर दिया जाता है। इन ‘चमकीले सितारों’ के बीच यह हरकत जाने-अनजाने में विफलता की गाथाएं भी पैदा करती जाती है।
जी हां, हर साल, हम हजारों-हजार युवाओं को यह मानने को मजबूर करते हैं कि वे किसी काम के नहीं क्योंकि वे अलां-फलां परीक्षा नहीं निकाल पाए, इसलिए वे डॉक्टर या इंजीनियर बनने लायक नहीं हैं, हम उन्हें विफलता का कलंक, कमजोर पड़े आत्म-सम्मान, जख्मी स्वः और आत्महत्या करने की सोच के साथ जीने को मजबूर कर रहे हैं।
चौथी बात यह कि शिक्षा की यह संस्कृति इसलिए भी विषैली है क्योंकि यह एकल-आयामी है। जैसा कि इन दिनों यंत्रवत सोच बन गई है कि किन्हीं उच्च तकनीक-कॉर्पोरेट्स में ऊंचे वेतनमान वाली नौकरी पा लेना ही शिक्षित होने और उच्चता पाने का द्योतक है, जो कुछ हमें दिखाया जा रहा है, वह व्यवस्थित ढंग से अन्य पेशों के सम्मान को कमतर करना है। इसके अलावा, यह करना मानवेतर शिक्षा के मूल्यों को कमजोर करना है। मानो, यह खेल चलाने वाले नीति-निर्माता और अकादमिक प्रबंधक ऐसी पीढ़ी को आगे बढ़ाने की योजना बना रहे हैं, जो केवल विशेषज्ञों की बनी हो, जैसे कि रोबोटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस विशेषज्ञ। लेकिन उन्हें न तो आत्मा को जगाने वाले महान काव्य, साहित्य और आध्यात्मिक लेखों से सरोकार है न ही व्यक्ति को अंधेरे से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले, ईर्ष्यागत प्रवृत्ति से हटाकर सहचर की ओर ले जाने वाली शिक्षा में दिलचस्पी है। वास्तव में आज हमारे सम्मुख तकनीक रूप से उन्नत किंतु नैतिकताविहीन पीढ़ी है। यह परम विद्रूपता है।
पूरी तरह पक्का नहीं है कि क्या हमारे बच्चों को इस विषैली संस्कृति से बचा पाना संभव होगा कि नहीं। तथापि, सकारात्मकता के तौर पर, हम यानी अध्यापक और अभिभावकों को अपनी आवाज़ उठानी होगी ताकि शिक्षा की नई पद्धति बन पाए। वे सब जिन्हें अभी भी शिक्षण के पेशे से प्यार है, उनके लिए जरूरी है कि वे उदारवादी शिक्षा या लोकतांत्रिक कक्षा के माहौल को जीवित रखें। जब तक कि हम अध्यापक इस बारे में खड़े नहीं होंगे, अपने ऊपर काम नहीं करेंगे, आत्म-विश्वास से परिपूर्ण भूमिका नहीं निभाते या अन्य शिक्षाविदों और जन-बुद्धिजीवियों को नहीं जगाते तब तक न तो नौकरशाही की मशीन की तीलियां हिलेंगी न ही बच्चों की दुनिया से पूरी तरह कटे पड़े तकनीकी-प्रबंधकों-कॉर्पोरेट्स के कर्ता-धर्ताओं द्वारा बनाई उन नीतियों को सिर झुकाकर मानते चले जाने वाला चलन बदलेगा। इतना ही नहीं, उनमें सीखने-सिखाने के उचित तौर-तरीकों का शऊर भी नहीं है। शिक्षा को बचाने की मुहिम चलाए बिना कोई उम्मीद नहीं है।
इसी प्रकार, अभिभावकों के लिए भी अहम है यह महसूस करना और प्रोत्साहित करना कि हरेक बच्चा अपने-आप में अलग होता है। किसी की बुद्धिमत्ता को साझा पैमाने से या सामान्यकृत कर दिए गए अंकों से नापने वाली पद्धति के जरिए आंकना सही नहीं। यदि आपके बच्चे को विज्ञान पसंद नहीं है या उसे मैथ्स-ऑलिम्पियाड परीक्षा में भाग लेने की ललक नहीं तो यह कोई अप्राकृतिक घटना नहीं है। उसके अंतस को जानने में, सहानुभूति वाली समझ बनाने से आपको पता चल सकता है कि वह किसी अन्य किस्म के कौशल अथवा कला या योग्यता से परिपूर्ण है, मसलन, पेंटिंग, संगीत, खेती या फिर सामाजिक कार्य में।
हम कब महसूस करेंगे कि बाजार के प्रचलित मूल्यों की एक नैतिक हद होती है और इसमें कुछ गलत नहीं यदि हमारा बच्चा अपेक्षाकृत कम आय वाले काम-धंधे में भी खुश रहे, जो कि उसके विलक्षण स्वभाव के अनुरूप हो? जिंदगी में इससे ज्यादा कुछ दुखदायक नहीं होगा यदि किसी बच्चे को अपना निजी विलक्षण कौशल या स्वभाव, सामान्यकृत बना दी गई ‘सफल विद्यार्थी आकलन पद्धति’ वाली चूहा-दौड़ विषैली संस्कृति की भेंट चढ़ाना पड़ जाए।
लेखक समाजशास्त्री हैं।