मुख्यसमाचारदेशविदेशखेलबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाब
हरियाणा | गुरुग्रामरोहतककरनाल
रोहतककरनालगुरुग्रामआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकीरायफीचर
Advertisement

प्रभावी हो सकते हैं चुनाव पर आर्थिक कारक

06:39 AM Apr 15, 2024 IST
Advertisement
राजेश रामचंद्रन

क्या यह घड़ी 2004 जैसी है? चौंकाने वाले परिणाम के साथ वह आम चुनाव विशेष रहा –न केवल हारने वाले के लिए बल्कि जीतने वाले के लिए भी– और राजनीतिक पंडितों पर काफी देर तक इन नतीजों का असर बना रहा कि कैसे मायावी प्रचार की परिणति सत्ता में बदलाव बनकर आई। तथ्य यह है कि कांग्रेस ने जीत के लिए विशेष प्रयास नहीं किए थे लेकिन भाजपा के ‘शाइनिंग इंडिया’ नारे ने यह हाल करवा दिया। क्योंकि अधिकांश लोगों के लिए ‘चमकता भारत’ जैसा कुछ नहीं था, लिहाजा किसी नारा-लेखक की कलम से निकली यह चतुराई भरी पंचलाइन उलटी पड़ गयी।
यहां जो बात 2004 के चुनावी परिदृश्य की याद दिला रही है, वह है सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज़ (सीएसडीएस) द्वारा करवाया हालिया सर्वे– यह एक थिंक टैंक है जिसकी स्थापना तकरीबन 60 साल पहले राजनीतिक विज्ञान के माहिर रजनी कोठारी, डीएल शेठ और आशीष नंदी द्वारा की गई थी। इस सर्वे के परिणाम बीते बृहस्पतिवार को एक राष्ट्रीय दैनिक अखबार में छपे। इसके मुताबिक, मुख्य चुनावी मुद्दा हिंदुत्व न होकर बेरोजगारी और कीमतों में वृद्धि (महंगाई) है (यानी कि यह मुख्य चिंता है, जैसा कि सर्वे ने परिभाषित किया है)।
राम मंदिर और भ्रष्टाचार, दोनों 8 प्रतिशत सहित, मुद्दों की सूची में पांचवें पायदान पर हैं जबकि मुख्य चिंताओं के क्रम में, रोजगार (27), महंगाई (23), विकास (13) और अन्य (9 प्रतिशत) इनसे ऊपर हैं। सर्वे में बेरोजगारी को लेकर संत्रास का स्तर चौंकाता है। सर्वेकर्ताओं का दावा है कि यह अध्ययन 19 सूबों के 100 संसदीय चुनाव क्षेत्रों में 400 मतदान केंद्रों के अंतर्गत 10,019 लोगों से बातचीत पर आधारित है। सर्वे में भाग लेने वालों में लगभग 62 प्रतिशत का कहना है कि नौकरी पाना मुश्किल हो गया है, स्थिति बड़े शहरों में छोटे कस्बों व गांवों के मुकाबले ज्यादा दुरूह है। यह चिंताजनक आंकड़ा है। आम नागरिकों में सबसे बड़ी संख्या रखने वाले वर्ग में रोजगार की उपलब्धतता किसी समाज की प्रगति का वास्तविक पैमाना होता है न कि स्टॉक सूचकांक में हो रही उत्तरोत्तर बढ़ोतरी या फिर भारतीय खरबपतियों की संपत्ति में होता इजाफा। वर्ष 2004 में भले ही सत्ताधारियों के मुताबिक तो भारत चमक रहा था किंतु गरीबों के लिए ऐसा कुछ नहीं था, लिहाजा उन्होंने अपना गुस्सा मतदान से जाहिर कर दिया।
जिस अन्य मुद्दे ने गरीब इंसान पर चोट की है वह है कीमतों का बढ़ना ः अध्ययन में भाग लेने वालों में 71 प्रतिशत ने बढ़ती महंगाई की बात की है और गरीब तबके में यह आंकड़ा इससे भी ऊपर है- उनमें 76 प्रतिशत परेशान हैं। इस पर भाजपा को बैठकर ध्यान देना और मनन करना चाहिए। बेरोजगारी और महंगाई, जीवनयापन से परस्पर जुड़े दो ऐसे मुद्दे हैं, जिनकी अहमियत पहचान आधारित राजनीति से कहीं ऊपर है। यदि सबसे बुरी तरह प्रभावित मतदाता परेशान है और बहुत विशाल संख्या में है, तो जनमत-निर्माता और सोशल मीडिया इन्फलुएंसर जो मर्जी कहेंें, हकीकत में इनका कोई असर नहीं और सर्वे के मुताबिक, सच सिर्फ यही है।
2004 के विपरीत, कदाचित वर्तमान केंद्र सरकार को व्याप्त संत्रास के बारे में जानकारी है। चुनाव पूर्व इसकी तमाम गतिविधियां दर्शाती हैं कि सत्ताधारी दल को सुधारक उपाय करने की जल्दी लगी है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, भाजपा या तो स्थानीय भागीदारों से गठबंधन कर रही है या यह सुनिश्चित करने में लगी है कि चुनाव तीन या चार कोणीय बन जाए ताकि विपक्ष के मत बंट सकें। कम-से-कम ऊधमपुर में गुलाम नबी आज़ाद की पार्टी ने यह सुनिशिचत कर दिया है कि चुनावी मुकाबला बहु-कोणीय हो जाए, उम्मीद है उनका प्रत्याशी गुलाम मोहम्मद सरूरी मुस्लिम वोटें विभक्त करेगा।
पंजाब में भी मुकाबला चार कोणीय बनने से नतीजे मिल-जुले रहने का कयास है, यह स्थिति रिवायती तौर पर दो बड़े दलों के बीच होते आए चुनावी संग्रामों से अलग है। हरियाणा में जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) का भाजपा से आहिस्ता से गठबंधन तोड़कर अलग होने का फायदा सिर्फ सत्ताधारी दल को होगा क्योंकि विपक्ष की जाट वोटें बंट जाएंगी। चौटाला कुनबे की दो पार्टियां चुनावी संग्राम में हैं –जेजेपी और भारतीय राष्ट्रीय लोकदल– और उम्मीद के मुताबिक दोनों ही जाट वोटों का एक हिस्सा ले पाने में सफल होंगे, जो अन्यथा कांग्रेस के भूपिंदर सिंह हुड्डा की झोली में जातीं।
अब, बीरेंद्र सिंह और उनके पुत्र की कांग्रेस में वापसी होने से, जाटों में पार्टी की साख में बढ़ोतरी हो सकती है। लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे भाजपा की मंशा यही है कि शायद इससे मनोहर लाल खट्टर के राज से मतदाताओं में बनी नाराजगी से पार पाया जा सकेगा। किंतु खट्टर सरकार के नौ वर्षीय शासन में गैर-जाट वोटें लामबंद भी होने लगीं। यह चाल कारगर हो भी सकती है या नहीं भी, किंतु जो सामने दिखाई दे रहा है, वह यह कि भाजपा की चुनावी रणनीति स्थानीय मुद्दों, सत्ता विरोधी रुझान और अन्य सामाजिक कारकों की समझ पर आधारित है। क्या ये उपाय बेरोजगारी द्वारा उत्पन्न संत्रास का तोड़ बन पाएंगे?
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआईई) के अनुसार जनवरी, 2023 में हरियाणा की बेरोजगारी दर (37.4 फीसदी) देशभर में सबसे बदतर रही। बेशक हरियाणा सरकार ने इस पर सवाल उठाए थे, और सीएमआईई के डाटा को अंतिम सत्य की तरह न लेकर महज सूचकांक की तरह लेना चाहिए। हरियाणा के आर्थिक संताप और भाजपा के राजनीतिक टोटकों को देखना रोचक है –यानी मुख्यमंत्री बदलने और वोट विभक्त करने वाली रणनीति।
हर वह सूबा जिसका असर सकल परिणामों पर अधिक है – बशर्ते मुकाबला दो-ध्रुवीय न हो – और कई बार उन राज्यों में भी जहां पर दांव पर लगाने को अधिक नहीं है, भाजपा ने गठबंधन करने, वोट-विभक्त रणनीति, दल-बदल करवाने और सामाजिक शक्तियों को साथ लाने की कला बरती है। मसलन, बिहार में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी, कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और महाराष्ट्र में शिव सेना और एनसीपी से छिटके गुटों को साधकर साथ मिलाना। इन राज्यों में कुल मिलाकर 196 संसदीय सीटों के रूप में भारी गिनती दांव पर है और उक्त समस्त उपाय समस्या-निवारण रणनीति के तहत किए हैं। इन 196 सीटों में, भाजपा नीत एनडीए ने 2019 में 170 पर जीत हासिल की थी। लगता है भाजपा ने व्याप्त आर्थिक संताप से उपजी चिंताओं का पूर्वानुमान लगाकर ही इन तमाम राज्यों में चुनावी कलाबाज़ी की है। अब सवाल यह है –क्या बेरोजगारी और महंगाई से बनी नाराजगी से भाजपा को इतना करारा झटका मिलेगा जिसकी ताव उपरोक्त पैंतरेबाजी वाले उपाय भी न झेल पाएं? साल 2004 में, मतदाता के आर्थिक कष्ट ने भाजपा को चुपचाप सत्ताच्युत कर दिया था, वह भी कांग्रेस द्वारा जीत के लिए खास जोर लगाए बिना। भाजपा के तत्कालीन बड़े नेता प्रमोद महाजन ने चुनाव के बाद स्वीकार किया था कि गरीबों ने उनकी सरकार गिरा दी।
लेकिन इस बार स्थिति अलग है। सरकार को पता है कि भविष्य उसके लिए क्या हो सकता है। लिहाजा प्रत्येक सूक्ष्म स्तर पर प्रबंधन किया है और प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में अपनी सरकार द्वारा गरीबों की मुश्किलें दूर करने के लिए चलाई सामाजिक भलाई योजनाओं का जिक्र करते हैं। क्या यह उपाय कारगर होगा? अभी तक तो, गरीबों का गुस्सा चुप्पी साधे हुए है और असंतोष की सुनामी में बदलने के संकेत हाल-फिलहाल दिखाई नहीं दे रहे।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement