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डिजिटल अरेस्ट भय से आर्थिक दोहन

08:58 AM Nov 03, 2024 IST
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।       - मिर्जा ग़ालिब
डॉ. संजय वर्मा
लेखक एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

मियां ग़ालिब जब ये शेर रच रहे होंगे, तो शायद किसी अन्य दुनियावी तमाशे का जिक़्र उनके ख्यालों में रहा होगा। लेकिन इधर तो हमारा देश जिस तमाशे से हर रोज रूबरू होता है, वह साइबर घोटालों से जुड़ा है। एक से बढ़कर एक साइबर हादसे हर दिन सामने आते हैं। पता चलता है कि कितनी बड़ी-बड़ी रकमें आम जनता अपने बैंक खातों से इन घोटालेबाजों की हरकतों के कारण गंवाती है। इधर तो साइबर धोखेबाजों के हौसले और भी बढ़ गए हैं। पहले जो काम वे डिजिटल खातों से जुड़े पिन, पासवर्ड और ओटीपी चुराकर करते थे, अब तो बाकायदा गैंग बनाकर और फर्जी पुलिस या जांच अधिकारियों का चोला ओढ़कर लोगों को धमकाते हुए कर रहे हैं। आभासी गिरफ्तारी, जिसके लिए डिजिटल अरेस्ट  वाक्यांश प्रचलन में है, का भय दिखाकर वे लाखों-करोड़ों रुपये के वारे-न्यारे कर रहे हैं। डिजिटल अरेस्ट के जरिये वे भय का ऐसा माहौल रच रहे हैं, जिसमें फंसकर कई पढ़े-लिखे लोग भी मामूली असावधानी कर बैठते हैं। ऐसी घटनाओं की अब कोई गिनती नहीं है, लेकिन अंदाजा है कि साल भर में ही साइबर धोखेबाजों में एक लाख करोड़ का चूना आम नागरिकों को लगा डाला है। डिजिटल अरेस्ट का कारनामा ये ठग कैसे कर रहे हैं, इसका  अंदाजा हाल की कुछ घटनाओं से हो सकता है।

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घटना नंबर एक : उत्तराखंड के देहरादून स्थित राजपुर में रहने वाले एक बुजुर्ग शख्स को साइबर ठगों ने 48 घंटे तक आभासी रूप से अपनी गिरफ्त में रखा और तीन करोड़ रुपये अपने खातों में स्थानांतरित करवा लिए। घटना 20 मई 2024 की है। लंबी छानबीन के बाद पुलिस ने एक ठग को उत्तर प्रदेश के बहराइच से हाल में पकड़ा है। इसने बुजुर्ग को फोन कर यह भय दिखाया था कि उनके द्वारा भेजे गए एक पार्सल में मुंबई एयरपोर्ट पर फर्जी पासपोर्ट और प्रतिबंधित नशे का सामान पकड़ा गया है। अगर गिरफ्तारी से बचना है तो अपने बैंक खातों में जमा सारी रकम धरोहर के रूप में बताए गए खातों में भेज दें। जांच के बाद आरोप-मुक्त होने की स्थिति में सारी रकम वापस मिल जाएगी। लेकिन रकम खातों में पहुंचते ही ठग रफूचक्कर हो गए।
घटना नंबर दो : तेलंगाना के हैदराबाद में साइबर अपराधियों ने फर्जी मनी लॉन्ड्रिंग केस में 44 वर्षीय एक आईटी कर्मचारी को करीब 30 घंटे तक ‘डिजिटल अरेस्ट’ करके रखा। उसे एक ऐप के जरिये फोन और वीडियो कॉल से लगातार धमकाया जा रहा था और गिरफ्तारी का भय दिखाया जा रहा था। मकसद था कि वह इतना भयभीत हो जाए कि मांगी गई रकम साइबर अपराधियों के बताए खातों में भेज दे। हालांकि वह आईटी कर्मी किसी तरह पुलिस तक पहुंचने में सफल रहा, जिसने उसे साइबर ठगों के चंगुल से बचा लिया।
घटना नंबर तीन : उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पीजीआई की प्रोफेसर को डिजिटल अरेस्ट कर जालसाजों ने बीते अगस्त में 2 करोड़ 81 लाख रुपये की ठगी कर डाली। मामला साइबर पुलिस के पास पहुंचा तो दो महीने की मशक्कत के बाद राजस्थान के जयपुर और झालावाड़ के अलावा बिहार के पटना से 18 आरोपियों को पकड़ा गया। हालांकि कुल रकम में से सिर्फ 11 लाख 36 हजार रुपये ही बरामद हो सके।
घटना नंबर चार :  कानपुर की एक महिला को 15 अलग-अलग नंबरों से फोन करके उसे तस्करी के एक मामले में अभियुक्त बताते हुए आभासी गिरफ्त यानी डिजिटली अरेस्ट में लेकर 90 लाख रुपये ठग लिए।
घटना नंबर पांच : पटना आईआईटी के एक छात्र को मुंबई पुलिस का एक फर्जी अधिकारी बने शख्स ने धमकाया और 9 लाख रुपये ठग लिए।
देश के कोने-कोने में हर सुबह-शाम हो रही ऐसी घटनाओं की लंबी फेहरिस्त है। हालात ये हैं कि साइबर अपराध की ज़द में आने वाले ऐसे किस्सों-कारनामों का एक सिलसिला खत्म होता है तो चंद रोज में कोई दूसरा सिलसिला नए ढंग से शुरू हो जाता है। ज्यादा पीछे न जाएं, तो इस साल की पहली तिमाही में ही सिर्फ  डिजिटल अरेस्ट की घटनाओं में ही लोगबाग 120.3 करोड़ रुपये गंवा चुके हैं। यह आंकड़ा देश के गृह मंत्रालय का है और इसमें सिर्फ दर्ज कराए गए मामलों को शामिल किया गया है। बहुत संभव है कि हजारों अथवा कुछ लाख रुपये की ऐसी ठगी वाले तमाम मामलों की सूचना साइबर पुलिस तक पहुंची ही न हो। समग्रता में देखें तो इस साल पहली जनवरी से 30 अप्रैल के बीच देश में साइबर अपराध की करीब साढ़े सात लाख (7.4 लाख) शिकायतें दर्ज कराई गई हैं। इनमें आम लोगों ने तीन महीनों के दौरान ही कारोबारी घोटालों में 1420 करोड़ रुपये, शेयर बाजार में निवेश कर तगड़ा मुनाफा कराने वाली योजनाओं का झांसा देकर किए गए घोटालों में 222.58 करोड़ रुपये और डेटिंग-रोमांस के छलावे में फंसकर 13.23 करोड़ रुपये गंवाए हैं। हालिया वर्षों के आंकड़े देखें तो इस साल साइबर अपराध के मामलों और उनमें रकम गंवाने के नए रिकॉर्ड बन सकते हैं। यह अंदाजा ऐसे लग सकता है कि वर्ष 2021 में साइबर अपराध की 4.52 लाख, वर्ष 2022 में 9.66 लाख और वर्ष 2023 में 15.56 लाख शिकायतें पुलिस के पास पहुंची थीं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने इससे पहले के वर्षों में साइबर अपराध के सालाना कुछ हजार मामले ही दर्ज किए थे। जैसे वर्ष 2017 में 3,466 मामले, 2018 में 3,353, 2019 में 6,229, 2020 में 10,395 और  2021 में 14,007 मामले दर्ज किए गए। यह भी पता चला है कि ज्यादातर साइबर अपराधी दक्षिण एशियाई देशों जैसे कि कंबोडिया, लाओस और म्यांमार में बैठकर इन कारनामों को अंजाम दे रहे हैं। भारतीय साइबर अपराध समन्वय केंद्र के अध्ययन के मुताबिक इन तीनों देशों से भारत में हुए कुल साइबर अपराधों का 46 फीसदी हिस्सा संचालित हुआ है।

...पर क्या मर्ज है डिजिटल अरेस्ट

यह एक स्थापित मनोवैज्ञानिक मान्यता है कि व्यक्ति किसी निजी समस्या में फंसा हुआ हो, तो उसे ठगना-लूटना आसान हो जाता है। किसी परेशानी में घिरे होने की स्थिति में व्यक्ति आगा-पीछा सोच नहीं पाता है और दूसरों के इशारे पर काम करने लग जाता है। अभी तक ठगने-लूटने के लिए अपराधी तत्व आम लोगों को डराने के लिए चाकू-रिवाल्वर दिखाने से लेकर कोई और भयभीत करने वाला तरीका अपनाते थे। लेकिन जब से रुपये-पैसे का लेनदेन साइबर तरीकों से संभव होने लगा है, डकैतों ने लूटमार के साइबर तरीके भी विकसित कर लिए हैं। जैसे, वे लोगों की निजी बैंकिंग जानकारियां (एटीएम पिन, वन टाइम पासवर्ड-ओटीपी आदि) हासिल कर उनके बैंक खातों में जमा रकम उड़ा लेते हैं। ओटीपी जैसी व्यवस्था लागू होने के बाद साइबर ठगों ने फोन हैकिंग को भी अपने तरीकों में शामिल किया है, क्योंकि इसके बिना वे बैंक की ओर से जारी ओटीपी तक नहीं पहुंच पा रहे थे। लेकिन इनमें डिजिटल अरेस्टिंग सबसे नया और प्रभावी तरीका है। इसकी मार्फत साइबर ठग पीड़ित व्यक्ति को इतना विवश कर देते हैं कि वह (पीड़ित) खुद ही अपने बैंक खातों में जमा-पूंजी ठगों के बताए ठिकाने पर भेज देते हैं। साइबर ठगी के इस नए तरीके को डिजिटल अरेस्ट कहने के पीछे की कुल भावना यह है कि इसमें भी साइबर ठगों के जाल में फंसे व्यक्ति को असली जैसे दिख रहे फर्जी पुलिस कर्मी या सीबीआई, कस्टम, आयकर विभाग आदि अन्य जांच एजेंसियों के अधिकारी की ओर से आभासी रूप से यह भय दिखाया जाता है कि आपने एक गैरकानूनी हरकत की है। इस कारण आपकी गिरफ्तारी तय है। इसके लिए वीडियो कॉल पर नकली एफआईआर और फर्जी वारंट दिखाया जाता है। या फिर किसी एयरपोर्ट पर कस्टम में फंसे कथित तौर पर पीड़ित द्वारा भेजे गए उस पार्सल (पैकेट) का हवाला दिया जाता है जिसमें नशीले पदार्थ या फर्जी पासपोर्ट पकड़े गए हैं। या फिर दूरसंचार नियामक के फर्जी अधिकारी धमकाते नजर आते हैं कि पीड़ित के नाम पर दर्ज एक मोबाइल नंबर को गैरकानूनी कार्यों में संलिप्त पाया गया है। ऐसी सूरतों में पुलिस आपसे पूछताछ करेगी और आपकी गिरफ्तारी हो सकती है। कुछ लोगों को उनके बेटे या बेटी के किसी सेक्स रैकेट में अथवा यौन शोषण के मामले में फंसे होने अथवा उनके साथ दुर्घटना हो जाने का भय दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि भयाक्रांत करने वाले ऐसे मामलों में मामूली शिक्षित लोग ही फंसते हों, बल्कि ऐसे कई मामले प्रकाश में आए हैं, जब अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग भी किसी विशेष मनोस्थिति में होने के कारण इनके जाल में फंस जाते हैं। अनजान स्रोत से आए फोन को जब कभी गलती से उठा लिया जाता है, तो बहुत संभव है कि शिकारी बाज़ की तरह झपट्टा मारकर ये साइबर ठग पीड़ितों को इतना अधिक डरा दें कि उसे प्रतीत होने लगे कि स्थानीय पुलिस से लेकर सीबीआई अथवा आयकर की जांच टीम को सच में उसके खिलाफ किसी मामले में ठोस सबूत मिल गए हैं और अगले किसी पल उसकी वास्तविक गिरफ्तारी हो सकती है। अधिकतर मामलों में देखा गया है कि घर या दफ्तर में अकेले बैठे अथवा किसी परेशानी के कारण पहले से व्यथित लोग बड़ी आसानी से डिजिटल अरेस्ट वाले दांव में फंस जाते हैं। यही नहीं, अपराधी इस मनोवैज्ञानिक तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि अगर किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी, दुर्घटना या किसी अन्य अनहोनी का डर दिखाया जाए और इनके फर्जी दस्तावेज गढ़ लिए जाएं तो किसी को भी यह यकीन दिलाया जा सकता है कि उसके नाम पर एफआईआर दर्ज है या गिरफ्तारी का वारंट निकल चुका है। डर को वास्तविक बनाने के लिए वीडियो कॉल पर वर्दीधारी पुलिस का अधिकारी किसी थाने में बैठकर पुलिसिया भाषा में बात करते नजर आता है, तो कभी अदालत का दृश्य दिखाया जाता है जहां मौजूद नकली न्यायाधीश उस व्यक्ति (पीड़ित) की किसी मामले में संलिप्तता होने के कारण कानूनी कार्रवाई का डर दिखाते हैं। ये दृश्य और प्रमाण पहली नजर में इतने वास्तविक लगते हैं कि उन पर शायद ही कोई संदेह कर पाता है। एक बार शिकंजे में फंस जाने के बाद लोकलाज के भय से पीड़ित ठीक उसी तरह काम करने लगता है, जैसा कि ये अपराधी चाहते हैं।

रोकथाम के उपाय नाकाफी क्यों

वैसे तो अपने रेडियो कार्यक्रम- मन की बात के हाल के संस्करण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समस्या की जड़ का खुलासा करते हुए बचाव के उपायों का उल्लेख किया ही है। उन्होंने कहा है कि यदि लोग ऐसी अनजान कॉल आने पर थोड़ी सजगता का परिचय दें, रुक कर सोचें और घटना का विवरण पुलिस अथवा अपने परिचितों को दें, तो शायद डिजिटल अरेस्ट की घटना महामारी का रूप नहीं ले पाए। लेकिन बचाव के तौर-तरीकों पर अमल करने में कुछ और कारणों से मुश्किल हो रही है। जैसे कि कोई व्यक्ति अगर पुलिस या नारकोटिक्स, सीबीआई, ईडी समेत किसी अन्य जांच एजेंसी के अधिकारी के रूप में किसी आम नागरिक से बात करता है, तो वह यही सोचकर आशंकित और भयभीत हो जाता है कि जाने-अनजाने में उससे कोई गलती या अपराध हो गया है, जिसके लिए उसे गिरफ्तार तक किया जा सकता है। जांच, पूछताछ, एफआईआर, वारंट जैसे शब्द एक आततायी की तरह प्रतीत होते हैं और ज्यादातर लोग कोई जांच या पूछताछ किए बगैर ऐसे अधिकारियों के आगे समर्पण कर बैठते हैं। ऐसे घटनाक्रम साफ करते हैं कि वास्तविक अपराधियों की बजाय आम नागरिकों में पुलिस आदि का इतना भय है कि उनके अधिकारियों के आगे कोई सवाल उठाने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं। ऐसे में गिरफ्तारी की आशंका आम लोगों को डिजिटल अरेस्ट कराने में सबसे अहम भूमिका निभाती है। निश्चय ही इसके लिए सरकार और पुलिसिया तंत्र को कोशिश करनी होगी कि उनका कोई डर अपराधी तत्वों में हो, न कि आम जनता में।
दूसरी बड़ी समस्या यह है कि हमारे देश के कई निजी बैंकों ने कम से कम अपराधी तत्वों के दस्तावेजों की कोई जांच-पड़ताल किए बगैर ही उनके खाते खोल दिए हैं, जहां वे आम लोगों से ठगी और लूटी गई रकम मंगाते हैं और तुरंत ही खाता खाली कर रफू-चक्कर हो जाते हैं। साइबर ठगी की शिकायत मिलने पर जब पुलिस ऐसे लोगों द्वारा जमा कराए गए दस्तावेजों के आधार पर पते-ठिकाने पर पहुंचती है, तो उन पतों पर कोई नहीं मिलता है। नोएडा में एक व्यक्ति को डिजिटल अरेस्ट कर 1.19 करोड़ रुपये की ठगी के मामले में पकड़े गए आरोपी ने हाल में स्वीकार किया है कि उसने खुद के और कई अन्य लोगों के फर्जी दस्तावेजों के आधार पर बैंक खाते साइबर ठगी के मकसद से खुलवाए थे। निश्चय ही, अब वक्त आ गया है कि इसकी जिम्मेदारी बैंकों और दस्तावेजों की पुष्टि करने वाली एजेंसियों पर डाली जानी चाहिए। बल्कि कुछ मामलों में तो बैंक कर्मियों की मिलीभगत से ही ऐसे खाते खोले जाने की घटनाएं सामने आई हैं। ऐसे में, यह नियम बनाया जाना चाहिए कि अगर कोई बैंक फर्जी दस्तावेजों के आधार पर किसी व्यक्ति का खाता खोल रहा है और उस खाते के जरिये साइबर ठगी हो रही है, तो आम लोगों से लूटी गई सारी रकम (जो उन खातों में जमा होने के बाद निकाल ली गई) संबंधित बैंक से वसूली जाए। साथ ही, सरकारी और निजी बैंकों के लिए जरूरी कर दिया जाए कि दस्तावेजों की वैधता संबंधी पुष्टि किए बगैर उनकी किसी भी शाखा में एक भी खाता खोला जाता है या उनका इस्तेमाल साइबर ठगी में होता है, तो सरकार उनके बैंकिंग लाइसेंस रद्द कर देगी। पकड़ में आए साइबर ठगों के नाम, फोटो, पते को सार्वजनिक करना और कड़े दंड देना भी एक उपाय हो सकता है। इसके बाद ही साइबर ठगी के मामलों में कुछ रोकथाम संभव है।
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खुद क्या बरतें सावधानी

हाल में अपने नियमित रेडियो कार्यक्रम- मन की बात में प्रधानमंत्री ने डिजिटल अरेस्ट से पैदा समस्याओं का उल्लेख करते हुए इससे बचने के कारगर उपायों का उल्लेख किया है। उन्होंने आह्वान किया कि यदि लोग ऐसा कोई फोन सतर्क होकर सुनें, उसकी भाषा और मांगी गई जानकारी को रुककर समझें और इसके बाद भी कोई कार्रवाई करें, तो साइबर ठगी से बचा जा सकता है। देखा गया है कि ऐसे मामलों में ज्यादातर फोन विदेश स्थित नंबरों से आते हैं। ऐसे नंबरों से आने वाले फोन को नहीं उठाना ही समझदारी है। अक्सर इनका एक ही तरह का पैटर्न होता है, मसलन, आपका कोई कूरियर एयरपोर्ट पर फंस गया है, आपके नाम पर जारी मोबाइल नंबर का गैरकानूनी काम में इस्तेमाल हो रहा है या आपके बेटे या बेटी को सेक्स रैकेट अथवा नशे के कारोबार में लिप्त पाया गया है। इनकी भाषा-शैली समझकर फर्जीवाड़े में फंसने से बचा जा सकता है। इधर कुछ फोन कंपनियों ने घोटालेबाजों के नंबरों की पहचान कर व्यवस्था की है कि उनकी ओर से कॉल आने पर आपके मोबाइल स्क्रीन पर फ्रॉड या स्पैम का संदेश चमकने लगता है। जाहिर है, ऐसे संदेश का अर्थ है कि आप फौरन उस कॉल को काट दें। दूरसंचार नियामक संस्था- ट्राई ने भी यह व्यवस्था बना रखी है कि आप खुद ही संदिग्ध नंबरों को पहचान कर उन्हें नियमित तौर पर बाधित (ब्लॉक) कर सकते हैं। लेकिन साइबर अपराधियों ने इस व्यवस्था के भी तोड़ निकाल लिए हैं। वे हर बार नए-नए फोन नंबरों से लोगों को ठगने का नेटवर्क बना रहे हैं। एक सावधानी यह भी बरतनी चाहिए कि यदि आपके रिश्तेदार या परिचित की आवाज की क्लोनिंग (नकल) करके उनके किसी मुसीबत में फंसे होने के बारे में आपको बताते हुए पैसे की मांग की जाती है, तो बेहतर होगा कि आप पलटकर खुद उस रिश्तेदार या परिचित को फोन कर लें। इससे स्थिति साफ हो जाएगी और आप किसी साइबर धोखाधड़ी में फंसने से बच जाएंगे। साइबर ठगी के तमाम तरीकों की तरह ही डिजिटल अरेस्ट रूपी समस्या निश्चय ही काफी बड़ी है, लेकिन चंद सावधानियों के बल पर इस समस्या से भी निपटा जा सकता है। हालांकि जो सरकार आम जनता से इन मामलों में जागरूक बनने का आह्वान करती है, वह खुद उन उपायों पर सख्ती से काम क्यों नहीं करती है जिससे ये सारे साइबर हादसे एक झटके में रोक दिए जाएं। सवाल है कि देश को डिजिटल इंडिया बनाने का जो पराक्रम सरकार ने आज से करीब एक दशक पहले (वर्ष 2015) में शुरू किया था, यदि उसका ऐसा बुरा हश्र हो रहा है तो इस दशा को सुधारने की जिम्मेदारी भी तो खुद उसी की है।
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