दूसरी नहीं धरती, इसे ही बचाइये
प्रो. आरसी कुहाड़
प्रकृति को संरक्षित और पोषित करने में हम सबका योगदान होना चाहिए। इस संबंध में पर्यावरणविद् और चिपको आंदोलन के नेता रहे सुंदरलाल बहुगुणा का वक्तव्य प्रासंगिक है कि पारिस्थितिकी स्थायी अर्थव्यवस्था है। दरअसल, पर्यावरण को बचाने की नौबत मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के बेतरतीब दोहन के चलते आयी। शुरुआत में मनुष्य ने पृथ्वी को समतल कर खेती लायक जमीन बनाई और जीविकोपार्जन के लिए जंगल, जल व जमीन का भरपूर उपयोग किया। कालांतर मनुष्य की जरूरतें व आबादी बढ़ती गई, उसने प्रकृति का अंधाधुंध दोहन शुरू कर दिया जिसके चलते पारिस्थितिकी तंत्र में नकारात्मक परिवर्तन हो गया जो आज घातक सिद्ध हो रहा है।
दरअसल, जब तक उपभोक्तावाद पर नियंत्रण नहीं किया जाएगा, प्रकृति के दोहन में कोई कमी नहीं आएगी। अब समय आन पड़ा है अपनी गतिविधियों पर पुनर्विचार करने का कि कैसे प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर मनुष्य कुदरती संसाधनों का उपयोग कर सकता है। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हम सब प्रकृति के प्रकोप से अपने आप को बचा पाने में असमर्थ पाएंगे। कहीं अतिवृष्टि होगी तो कहीं अनावृष्टि, कहीं लोग पानी के लिए तरसेंगे और कहीं पानी में सारी संपदा बहा देंगे। पिछले कई दशकों में ऐसा देखने में भी आया है। ग्लेशियर सूख रहे हैं, नदियां सिमट रही हैं, रेगिस्तान बढ़ रहे हैं, उपजाऊ जमीन बंजर समान होती जा रही है। जमीन के नीचे पीने लायक पानी बहुत कम रह गया है।
पर्यावरण को संरक्षित रखने के बारे में अब प्रश्न कई उठते हैं कि कैसे हम बंजर जमीन को पुनः उपजाऊ जमीन में परिवर्तित कर पाएं? कैसे काटे गए जंगलों को पुनः उनकी शक्ल दें? कैसे ग्लेशियर पिघलने से बचाएं? कैसे जंगली जानवरों को उनका आवास प्रदान कर पाएं? असल में दुनिया के कुछ महान लोगों की मिसालें मौजूद हैं जिन्होंने अपना जीवन पारिस्थितिकी तंत्र को विकसित करने में ही लगा दिया। इस संदर्भ में पहला नाम है ‘भारत के फॉरेस्ट मैन’ कहे जाने वाले पद्मश्री जादव मोलाई पायेंग का जिन्होंने कई दशकों के दौरान, ब्रह्मपुत्र नदी के एक सैंडबार पर पेड़ लगाए और उसे वन अभ्यारण्य में बदल दिया। मोलाई वन कहा जाने वाला यह जंगल, जोरहाट, असम में 1360 एकड़ क्षेत्र में फैला है। अगला नाम है इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र पुरस्कार से सम्मानित देवकी अम्मा का जो भारत के विभिन्न हिस्सों से पौधों को लाकर और उनका पोषण करके जैव विविधता की रक्षा रही हैं। पर्यावरण के प्रति उन्होंने जनचेतना जगाई है। देवकी अम्मा द्वारा लगवाये जंगल में विभिन्न प्रजातियों के 3000 से अधिक पेड़ हैं। कुछ दुर्लभ पौधे जैसे लक्ष्मी थारू, चीनी संतरा आदि भी हैं। फलों, सब्जियों और फूलों की आपूर्ति करने वाले 200 प्रकार के पेड़ों और झाड़ियों को उन्होंने सहेजा है।
इसी कड़ी में वर्ष 1935 में जन्मे आइस मैन कहे जाने वाले चेवांग नॉरफेल, लद्दाख के एक भारतीय सिविल इंजीनियर हैं, जिन्होंने 15 कृत्रिम ग्लेशियर बनाए हैं। ऐसी अन्य शख्सियत कर्नाटक की पर्यावरणविद् पद्मश्री सालु मरादा थिम्मक्का हैं, जो हुलिकल और कुदुर के बीच राजमार्ग के साथ-साथ चार किलोमीटर तक 385 बरगद पेड़ लगाने के लिए विख्यात हैं। सभी जानते हैं कि सुंदरलाल बहुगुणा पर्यावरणविद् और चिपको आंदोलन के नायक थे। उन्होंने हिमालय में जंगलों के संरक्षण के लिए लड़ाई लड़ी, पहले 1970 के दशक में चिपको आंदोलन के सदस्य के रूप में, और बाद में 1980 के दशक से 2004 के प्रारंभ तक टिहरी बांध विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। वहीं उत्तराखंड में प्रभा देवी ने 500 से अधिक पेड़ लगाए हैं जो पलासत गांव के संरक्षक के रूप में खड़े हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्स्थापित करने की दिशा में कार्य कर रही कुछ अन्य महिलाएं भी हैं जिनसे प्रेरणा लेकर विद्यार्थी, शिक्षक मिलकर ऐसे ही प्रयास करें तो पर्यावरण का भला होगा। इनमें एक हैं लतिका नाथ जो बाघ राजकुमारी के रूप में जानी जाती हैं। लतिका बाघों पर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाली देश की पहली वन्यजीव विज्ञानी हैं। ऐसा ही नाम है प्रेरणा सिंह बिंद्रा जो एक संरक्षणवादी, पत्रकार, लेखक और कार्यकर्ता हैं। प्रेरणा वन अधिकारियों, रेंजरों और एनजीओ के साथ वन्यजीवों के लिए संरक्षित क्षेत्रों जैसे उत्तराखंड के नंधौर वन्यजीव अभयारण्य और नैना देवी हिमालयन पक्षी संरक्षण रिजर्व में काम करती हैं। ऐसे ही पूर्णिमा देवी बर्मन असम के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क, या हरगिला को विलुप्त होने से बचाने की दिशा में काम कर रही हैं। एक और प्रेरक व्यक्तित्व हैं कृति कारंत। वे वन्यजीव संवादी हैं, जो प्रजातियों के वितरण और विलुप्त होने के पैटर्न, वन्यजीव पर्यटन के प्रभावों, स्वैच्छिक पुनर्वास के परिणाम, भूमि-उपयोग परिवर्तन और मानव-वन्यजीव अंतःक्रियाओं पर शोध कर रही हैं। वे वाइल्डसेव नामक परियोजना पर काम कर रही हैं, जिसने हजारों परिवारों को वन्यजीव-मुआवजे के दावे दर्ज करने और उनके सही लाभ प्राप्त करने में मदद की है।
असल में वर्ष के प्रत्येक दिन को पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए और हम में से प्रत्येक को पर्यावरण की रक्षा में योगदान देना चाहिए। मिट्टी, पानी, पौधों, वायु और जीवों की रक्षा व ग्रह पर जीवन बचाने के लिए हमें योजना बनाने और सतत ठोस काम करने की जरूरत है। कहने का सीधा-सा अर्थ है कि दूसरी धरती नहीं है। हमें हर हाल में इसी धरती पर ही रहना होगा और उसे ही संवारना और सजाना होगा। दुनिया के सभी देशों का प्रत्येक नागरिक, संगठन और सरकारें मिलकर इस सतत कार्यक्रम से जुड़ें तो यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।