कला संसार में चमकते सितारे रहे डॉ. बीएन गोस्वामी
इरा पांडे
एक कार्यक्रम में नेहरू जी को दर्शकों से नामचीन शास्त्रीय गायिका एमएस सुब्बालक्ष्मी का परिचय करवाने को कहा गया, तो इस पर उनकी टिप्पणी मशहूर है ‘स्वर-साम्राज्ञी का परिचय करवाने लायक मेरी हैसियत कहां, मैं तो मात्र एक प्रधानमंत्री हूं।’ आज मैं एक मूर्धन्य विद्वान, एक अध्यापक और ऐसा इंसान, जिसने कला की दुनिया में ऊंचा मुकाम हासिल किया और जो जीवनपर्यंत एक प्रतिबद्ध शिक्षक, परामर्शदाता और शोध-शास्त्री रहे, उनके लिए श्रद्धांजलि लिखने बैठी हूं। ऐसा कोई नहीं है, जिसकी तुलना मैं डॉ. गोस्वामी से कर सकूं। द ट्रिब्यून के पाठकों को उनका नियमित ‘आर्ट एंड सोल’ नामक स्तंभ याद होगा, जो हर रविवार को उनके तमाम अध्ययन, यात्राओं और निजी व्यस्तताओं के बावजूद प्रकाशित होता रहा। इसलिए कोई हैरानी नहीं कि अस्पताल से छुट्टी मिलने के चंद घंटों बाद, उन्होंने पिछले रविवार को अपना 707वां लेख लिखा जो कि कसौली कला मेले के पूर्वावलोकन से संबंधित था। पिछले दो साल उनके लिए खास तौर से सुखद नहीं रहे। उनकी जीवनसंगिनी करुणा जी कोविड बीमारी से जूझने के बाद चल बसीं, कुछ महीने पहले उनका बेटा अप्पू भी कैंसर ग्रस्त होकर गुजर गया था। मैंने उन्हें अपनी संवेदनाएं लिख भेजीं और उत्तर की अपेक्षा नहीं की थी। आखिरकार, कौन मां-बाप होंगे जो पुत्र-शोक की वेदना से उबरकर जवाब दे पाएं। लेकिन फिर भी उन्होंने मुझे निजी पत्र लिखा, जो उतना ही स्नेहमयी और दिल को छूने वाले अहसास से परिपूर्ण था, जैसा उनसे मिलते वक्त सदा महसूस हुआ। इसलिए मेरे जैसी एक फ़ानी महिला इस असाधारण मनुष्य के बारे में कहने लायक कहां?
उनसे पहली बार कब मिली, यह याद करने की कोशिश कर रही हूं और मेरी याददाश्त इसमें खेल कर रही है। क्या यह मुलाकात तब हुई थी जब मैं बगल के अंग्रेजी विभाग मैं एक शोधकर्ता थी या किसी संगीत प्रस्तुति कार्यक्रम में? क्या उनके किसी संबोधन के दौरान या जब वे किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे? कुछ पक्का नहीं, लेकिन इतना साफ याद है कि वे एक जादुई वक्ता थे। इसके बाद, जब कभी मुझे पता चलता कि उनका कहीं संबोधन होने वाला है तो सब कुछ छोड़-छाड़ कर सुनने के लिए पहुंच जाती और वापसी उनके शब्दों में सराबोर होकर, और अधिक जानकारी से परिपूर्ण, और अधिक अभिभूत होकर होती। किसी सवाल का जवाब देते वक्त उनका ठिठक कर आध्यात्मिक मनन जैसा अंदाज़ होना या स्लाइड दिखाते वक्त उनके समझाने का वह तरीका, जब वे हमारा ध्यान उन अवयवों की ओर दिलाते जिन पर अन्यथा हम शायद ही अपने तौर पर गौर कर पाते, यह उनका विशेष उपहार होता। वे बारीकियों को समझने वाली आंख के धनी थे और छवियों, रंगों एवं कुछ पंक्तियों को पिरोने का उनका हुनर किसी कलाकृति को जीवंत कर देता और उसके सौंदर्य-आयामों को समझने में एक सबक।
कुछ साल पहले, डॉ. गोस्वामी जयपुर में लिट-फेस्ट में भाग लेने आए थे, जहां मुझे भी आमंत्रित किया गया था। उन्हें दर्शकों में बैठे देख मैं खुद को कुछ अनाड़ी वक्ता महसूस कर रही थी, क्योंकि इतनी बड़ी विभूति की उपस्थिति में मुंह से सही ढंग से शब्द निकलते भी कैसे। अगले दिन एक सत्र में उनका संबोधन था, जिसकी अध्यक्षता विलियम डैलरीम्पल कर रहे थे, मैंने महसूस किया कि हम में बहुत से एक ही किश्ती के सवार थे। इसके बाद तो डैलरीम्पल डॉ. गोस्वामी के सबसे बड़े प्रशंसक बन गए और हर साल लिट-फेस्ट में बीएनजी (वे इस नाम से लोकप्रिय थे) से उनका संवाद सम्मेलन का मुख्य आकर्षण होता। यह डॉ. गोस्वामी की देन है कि हमें कार्ल खंडालावाला, सरयू दोषी, एर्बरहार्ड फ्लैचर और अन्य नामचीन कला-आलोचकों और कला-इतिहासकारों के बारे में जानने को मिला, इतने सारे कि उन सब का नाम यहां गिनाना संभव नहीं है। सत्तर और अस्सी के दशक में, पंजाब यूनिवर्सिटी में हमारे जैसे बहुत से ऐसे थे, जिन्होंने डॉ. गोस्वामी की कृपा से कला की बारीकियां जानने का तरीका सीखना शुरू किया।
पंजाब यूनिवर्सिटी में संग्रहालय बनाने में उनके प्रयास अवश्य ही उनकी सबसे महत्वपूर्ण पहलकदमियों में गिने जाएंगे और इतना ही अहम है, कसौली में दिवंगत विवान सुंदरम की आईवी कॉटेज में ‘कसौली आर्ट सेंटर’ की स्थापना में उनका योगदान। उन्होंने वस्त्र-उद्योगपति साराभाई को ‘कैलिको म्यूज़ियम ऑफ टेक्साइल’ बनाने में मदद की और अभिभूत करने वाली यह जगह देखते ही बनती है, वहां रखी कलाकृतियों के संग्रह पर लिखी उनकी पुस्तक ज्ञान का भंडार है।
तथापि जिस काम के लिए उन्हें सदा याद किया जाएगा, वह है, पर्वतीय सूबों की पहाड़ी कलाकृतियों पर किया उनका लासानी शोधकार्य। लगन और मेहनत से तब तक अनाम रहे कलाकारों की वंशावली को खोज निकालना उनका सबसे बड़ा अन्वेषण था। यह उनके गहन अनुसंधान का नतीजा था कि पांडाओं का पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंश-ब्योरा, जिसे वह बहुत गुप्त रखते हैं, इसको किसी प्रकार प्राप्त कर उन्होंने गुलेर के कलाकार जोड़ी के नैन-सुख (भतीजा) और मनकू (चाचा) को ढूंढ़ निकाला। इस विषय पर लिखी दो पुस्तक (खंड पढ़ना) पहाड़ी सूक्ष्म कलाकृतियों में प्रयुक्त रंगों, विषयवस्तु और बारीकियों को समझने की रसयात्रा से कम नहीं है। उनका किया काम ऐसे कलाकारों की तूलिका के रंगों में रचकर सदा जिंदा रहेगा।
बीएनजी जैसा मुझे अब कोई न मिल पाएगा, लेकिन इतना मैं पूर्ण विश्वास से कह सकती हूं कि अपने जीवनकाल में मुझे एक ओजस्वी विभूति से मिलने का सौभाग्य मिला। अलविदा बीएनजी, जब तक आपकी पुस्तकें और कही बातें हमारे साथ हैं, आप तब तक सदा जीवित रहेंगे।