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लैंगिक न्याय पर दोहरा चरित्र

06:54 AM Jun 03, 2024 IST
लैंगिक न्याय पर दोहरा चरित्र
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लैंगिक न्याय जरूरी
पिछले दिनों दिल्ली में एक महिला सांसद के साथ मारपीट की घटना सिर्फ राजनीतिक नफे-नुकसान का मुद्दा ही नहीं बल्कि इसने आज अरविंद केजरीवाल को कटघरे में खड़ा कर दिया है। वैसे तो यह एक राजनीतिक पैंतरेबाजी का हिस्सा है। यह हकीकत है कि महिला उत्पीड़न के मामले में कोई भी राजनीतिक दल बेदाग नजर नहीं आता। अब देखना होगा कि लैंगिक समानता व न्याय के पक्षधर केजरीवाल इस संकट का कैसे मुकाबला करते हैं। उनकी कारगुजारी बताएगी कि पार्टी लैंगिक न्याय पर अपनी विश्वसनीयता को किस हद तक बचा पाती है।
रमेश चन्द्र पुहाल, पानीपत
राजनीति न हो
महिलाओं की अस्मिता से खिलवाड़ के दोषी लगभग सभी राजनीतिक दल हैं! पिछले दिनों कुश्ती संघ के पूर्व अध्यक्ष पर महिला पहलवानों पर यौन शोषण के आरोप लगे, लेकिन उसका कुछ नहीं बिगड़ा। मणिपुर में महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाया गया लेकिन शासन मूकदर्शक बना रहा। इसी तरह कर्नाटक में जद(स) लोकसभा प्रत्याशी पर कई महिलाओं के शोषण के कई गंभीर आरोप हैं। राजनीतिक दल स्वयं तो महिलाओं की अस्मिता की सुरक्षा नहीं कर सकते लेकिन दूसरों के मामलों को तूल देने में कोई कसर नहीं छोड़ते। अच्छा हो कि सभी राजनीतिक दल इस मामले में आपसी मतभेद भुलाकर दोषियों को सजा दिलवाने में काम करें।
शामलाल कौशल, रोहतक
दोहरा चरित्र
लैंगिक न्याय पर राजनीति का दोहरा चरित्र का अवसर पीड़ित महिलाएं ही दे रही हैं। अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को उस तक समय सहन करती है, जब तक कि सिर से ऊपर पानी न निकल जाए। माना कि महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और अश्लील वीडियो के‌ मामले ठीक नहीं, किंतु लैंगिक न्याय पर राजनीति ज्यादा भारी पड़ जाती है। वहीं रिपोर्ट में देरी और सियासी कारणों से आरोपी बच निकलते हैं। केजरीवाल लैंगिक न्याय के पक्षधर हैं, किंतु इस मामले में दोहरा चरित्र निभा रहे हैं। उन्होंने कोई भी बयान अभी तक नहीं दिया।
बीएल शर्मा, तराना, उज्जैन
सत्य का साथ दें
भारत में लैंगिक न्याय पर राजनीति की परीक्षा समय-समय पर होती रहती है। इस प्रकार के मामलों में राजनीतिक लाभ उठाने के लिए प्रयास किए जाते हैं। सांसद स्वाति मालीवाल जैसे प्रकरण राजनीति में पहले भी आते रहे हैं। वास्तविकता यह है कि महिलाओं को अपने अधिकारों की मुखर वकालत करनी चाहिए। जिससे किसी भी दल को राजनीतिक लाभ के लिए अवसर न मिल सके। महिलाओं से मारपीट, छेड़छाड़ और शोषण आदि के मामले चिन्ताजनक प्रवृत्ति काे दर्शाते हैं। जो राजनीति में लैंगिक न्याय पर राजनीतिक नैतिकता की परीक्षा लेती है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक विचार पीड़ितों के कल्याण पर भारी पड़ रहे हैं। जबकि राजनीतिक दलों को इस प्रकार के मामलों में सत्य का साथ देना चाहिए।
जयभगवान भारद्वाज, नाहड़
न्याय संभव नहीं
देश में बेटियां उतनी सुरक्षित नहीं हैं, जितनी होनी चाहिए। राजनीति और खेल क्षेत्र में भी लड़कियों और महिलाओं के साथ होने वाला दुर्व्यवहार और शोषण की खबरें विचलित करती हैं। सोचने को मजबूर करती है कि जब राजनीति और खेल क्षेत्र की लड़कियां और महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं तो आम लोगों की बेटियों की सुरक्षा कैसे होगी? जब भी कहीं स्त्री के साथ दुर्व्यवहार की घटना होती है और उस पर राजनीति होने लगती है तो यह आरोपियों के हौसलों को बुलंद करती है। जब तक लैंगिक न्याय के मुद्दे पर राजनेता दोहरा चरित्र दिखाते रहेंगे, तब तक न्याय संभव नहीं है।
राजेश कुमार चौहान, जालंधर
पुरस्कृत पत्र
कथनी-करनी का फर्क
भारतीय राजनीति में लैंगिक भेदभाव आज भी जारी है। महिला उत्पीड़न का मुद्दा तब बनता है जब वो विरोधी दल से जुड़ा हो। लेकिन अपनों की संलिप्तता पर तो ये विरोधियों की साज़िश होती है। सुविधानुसार कोई मालीवाल, संदेशखाली, राधिका खेड़ा पर चुप रहता है तो कोई बृजभूषण, मणिपुर, प्रज्वल रेवन्ना पर। कई कद्दावर नेता तो महिलाओं की अस्मिता को ठेस पहुंचाने वाले बयान दे चुके हैं। पुरुष सत्तात्मकता की राजनीति में लैंगिक न्याय पर नेताओं की कथनी और करनी में बहुत अंतर है।
बृजेश माथुर, गाजियाबाद, उ.प्र.

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