जरूरी सवालों से मुंह चुराने की न हो कोशिश
विश्वनाथ सचदेव
तेरह अगस्त। यह तारीख भले ही 15 अगस्त के आस-पास की हो, पर इसका हमारी आज़ादी से कोई रिश्ता नहीं है। यह सही है कि इसबार आज़ादी के अमृत महोत्सव के संदर्भ में आयोजित ‘घर-घर तिरंगा’ अभियान की शुुरुआत भी इसी दिन से हो रही है, पर यहां संदर्भ इसका भी नहीं है। असल में बारह साल पहले इसी दिन, यानी 13 अगस्त, 2010 के दिन एक फिल्म रिलीज़ हुई थी- पीपली लाइव। उस फिल्म का एक गाना तब खूब लोकप्रिय हुआ था-और आज तक अक्सर उसे दुहराया जाता है। गाना था, ‘सखी सईंया तो खूब ही कमात है, महंगाई डायन खाये जात है’। इस गाने में आम जीवन की ज़रूरतें पूरी न हो पाने की पीड़ा व्यक्त की गयी थी और लगातार बढ़ती मंहगाई की मार झेलती जनता का दर्द उभर कर सामने आया था। फिर तो यह गाना एक मुहावरा बन गया। जब भी महंगाई का चाबुक पीठ पर पड़ता है जनता को ‘महंगाई डायन’ याद आ जाती है।
अब फिर याद आ रही है महंगाई डायन! यह बात दूसरी है कि सत्तारूढ़ पक्ष के कुछ सांसदों को बढ़ती महंगाई कहीं दिख नहीं रही, पर इसे झेल रही जनता को खूब पता चल रहा है इसकी मार का। यह हमारे समय की एक कड़वी हकीकत है कि जनता महंगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त है और हमारे शासक इसे देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं। पर आंख बंद कर लेने से सामने आया संकट टल तो नहीं जाता।
जनता का यह संकट अब हमारी राजनीति का भी संकट बनता जा रहा है। शासक भले ही स्वीकारें नहीं, पर भीतर ही भीतर इस संकट का अनुभव अवश्य करने लगे हैं। भला कौन शासक भूल सकता है कि प्याज़ की बढ़ती कीमतों ने कभी इंदिरा गांधी को सत्ता में फिर से ला बिठाया था। यह 1980 की बात है। फिर लगभग 15 वर्ष बाद हमने सामान्य चीज़ों की बढ़ती कीमतों के चलते दिल्ली, राजस्थान जैसे राज्यों में सरकारों को मुंह की खाते देखा। यह सारे उदाहरण हमारे राजनेताओं को भी याद हैं। यही कारण है कि जहां एक ओर कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल ‘महंगाई की मार’ को अपना राजनीतिक हथियार बनाने में लगे हैं, वहीं दूसरी ओर सत्तारूढ़ पक्ष, भाजपा, महंगाई की मार को कम दिखाने की कोशिश में लगी है। एक भाजपा सांसद द्वारा संसद में ‘महंगाई कहीं न दिखने’ की बात को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज कांग्रेस समेत हमारा सारा विपक्ष लगातार कमज़ोर होता दिख रहा है। ऐसे में कांग्रेस पार्टी द्वारा महंगाई को अपनी राजनीति का मुद्दा बनाना एक सोची-समझी रणनीति ही है। नेशनल हेराल्ड कांड के मुद्दे पर कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है। भाजपा भी कांग्रेस की इस विवशता का लाभ उठाने में लगी है। इसीलिए कांग्रेस ने रणनीति बदली। महंगाई के मुद्दे पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री के निवास-स्थान को घेर कर प्रदर्शन करने की योजना बनायी। साथ ही उसी दिन कांग्रेस के सांसदों ने राष्ट्रपति को गुहार लगाने का कार्यक्रम भी घोषित किया। शासकों ने इसकी मंजूरी नहीं दी। कांग्रेस अपनी बात पर अड़ी रही। प्रदर्शन हुए। प्रियंका गांधी और राहुल गांधी समेत कांग्रेस के बड़े नेता पुलिस द्वारा हिरासत में लिये गये। कांग्रेस ने इसे महंगाई और बेरोज़गारी के खिलाफ अभियान बताया, जबकि भाजपा की सारी सेना इसे ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई के खिलाफ बचाव की एक कोशिश के रूप में समझने-बताने में लगी रही। जिस तरह से आंदोलन करती प्रियंका गांधी को घसीट कर कार में बिठाया गया, वह बरसों पुराने उस कांड की याद दिला रहा था जब इंदिरा गांधी को इसी तरह सड़क से उठाया गया था। सोशल मीडिया में यह सब लगातार दिखाया जा रहा था।
भाजपा के नेतृत्व को बहुत देर लग गयी यह समझने में कि कांग्रेस के इस प्रदर्शन को जनता की सहानुभूति मिल रही है। सबेरे से शाम तक कांग्रेस यह सहानुभूति बटोरती रही। तब जाकर गृहमंत्री अमित शाह जैसे नींद से जागे। खबरिया चैनलों पर उनका बयान छाने लगा। उन्होंने नया दांव चला। उन्होंने कहा, ‘आज पांच अगस्त है, आज ही के दिन प्रधानमंत्री ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर की आधार-शिला रखी थी। इस पवित्र दिन को काले कपड़ों में विरोध-प्रदर्शन के लिए चुनकर कांग्रेस ने तुष्टिकरण की नीति का परिचय दिया है।’ गृहमंत्री से संकेत पाकर जैसे भाजपा को होश आ गया- उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी पांच अगस्त को ‘अयोध्या दिवस’ बताते हुए कांग्रेस के महंगाई-विरोधी अभियान को हिंदुओं की भावनाओं पर हमला बताया। महंगाई-बेऱोज़गारी से त्रस्त जनता ने भाजपा-नेतृत्व द्वारा कांग्रेस के अभियान को हिंदू-मुस्लिम में बांटने की इस कोशिश को जैसे नकार दिया। सोशल मीडिया पर इस कोशिश के खिलाफ बयान आने लगे।
देश के गृहमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की इस कोशिश के निहितार्थ समझना मुश्किल नहीं था। यह पहली बार नहीं है जब महंगाई या बेरोज़गारी जैसे मुद्दों को पीछे धकेलने की कोशिश की गयी है, पर शायद यह पहली बार कि ‘अयोध्या-दिवस’ और ‘तुष्टिकरण’ जैसे शब्दों की आड़ लेकर जन-जीवन से सीधे जुड़े सवालों के जवाब देने से मुंह चुराया गया है।
यह बात आसानी से गले नहीं उतर सकती कि कांग्रेस पार्टी ने ‘महंगाई डायन’ के खिलाफ चलाये गये अभियान के लिए पांच अगस्त का दिन इसलिए चुना कि वह जनता के एक वर्ग की सहानुभूति पा सके। भाजपा नेतृत्व की इस सोच पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है।
महंगाई इस समय देश की एक प्रमुख समस्या है। या तो सरकार इसकी गंभीरता को समझ नहीं रही, या फिर इसके समाधान में स्वयं को असमर्थ पा रही है। ये दोनों स्थितियां चिंताजनक हैं। महंगाई-बेरोज़गारी की गंभीरता को कम आंकने का मतलब नासमझी ही नहीं, अयोग्यता भी है। ऐसे मुद्दे को सांप्रदायिकता के रंग में रंगने की कोशिश तो किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकती। देश का हर नागरिक आज महंगाई से त्रस्त है। हिंदू या मुसलमान, सिख या ईसाई, सब बेरोज़गारी की मार झेल रहे हैं। न तो इन मुद्दों को वैश्विक संकट बता कर ढकने की कोशिश करना उचित है और न ही ‘कांग्रेसियों ने इस दिन काले कपड़े क्यों पहने’ का सवाल उठा कर मुद्दे की गंभीरता को मोड़ देने की नीति का समर्थन किया सकता है। सच कहें तो कांग्रेस के प्रदर्शन को राम-विरोधी बताकर या तुष्टिकरण की कोशिश कहकर महंगाई और बेरोज़गारी जैसे गंभीर मुद्दों से जूझती जनता की समझ का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। पर हमारे नेताओं को समझना होगा कि ‘यह पब्लिक है, सब जानती है’। इसे कुछ समय के लिए भरमाया-बरगलाया जा सकता है, हमेशा के लिए नहीं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।