आध्यात्मिक पूर्णता से ही ईश्वरीय अनुभूति संभव
जब कोई आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो उसको बोध हो जाता है कि चेतना का शुद्ध, स्वयंभू और स्वयं-प्रकाशमान सिद्धांत ही उसकी वास्तविक प्रकृति (जीवात्मा) है; जो उसके मन, शरीर आदि से अलग है।
विजय सिंगल
मनुष्य एक बहुआयामी प्राणी है। वह न केवल इंद्रियों, मन एवं बुद्धि के स्तर पर जीवन जीता है; बल्कि जीवात्मा (स्व) के रूप में भी जीवन का अनुभव करता है। जीवात्मा या देहधारी आत्मा, किसी प्राणी की वह व्यक्तिगत चेतना है जो अपने शरीर, मन और बुद्धि सहित हर एक चीज के प्रति जागरूक है। स्वयं की मूलभूत प्रकृति को न केवल सैद्धांतिक रूप से, बल्कि अनुभवात्मक स्तर पर भी जान लेना ही आत्म-साक्षात्कार है। आत्मज्ञान मानव अस्तित्व के मूलभूत प्रश्न– ‘मैं कौन हूं?’ का समाधान करता है।
भगवद्गीता ने मानव जाति को न केवल आत्मा का सैद्धांतिक ज्ञान प्रदान किया है, बल्कि आध्यात्म के उन अभ्यासों का भी विस्तृत रूप से वर्णन किया है जिनके द्वारा व्यक्ति स्वयं उस ज्ञान का अनुभव कर सकता है। इन अभ्यासों के माध्यम से व्यक्ति आत्मबोध को प्राप्त कर सकता है।
जीवात्मा के अस्तित्व को निर्णायक रूप से सिद्ध या असिद्ध करना बहुत कठिन है। इसे अनुसंधान के सामान्य साधनों से नहीं जाना जा सकता है। केवल आध्यात्मिक ज्ञान, अर्थात् जीवात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव ही इस संबंध में किसी की खोज को पूरा कर सकता है। आत्मा का प्रकाश कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे प्राप्त करना पड़े। यह सदा मौजूद रहता है लेकिन अक्सर अविद्या या अज्ञानता से ढका रहता है। अज्ञान से मोहित व्यक्ति आत्मा (पुरुष) एवं गैर-आत्मा (प्रकृति) को भ्रांतिवश एक मान लेता है और इस प्रकार भौतिक जगत को स्थाई मानने लगता है। जब उचित योगाभ्यास द्वारा अज्ञान का पर्दा उठ जाता है, तब आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश उदित होता है; और आत्मा का सत्य प्रकट होता है। आत्मा का प्रकाश चारों ओर समान रूप से फैला रहता है। किसी व्यक्ति को इस प्रकाश की अनुभूति तभी होती है, अर्थात् वह आध्यात्मिक ज्ञान तभी प्राप्त कर सकता है, जब उसका हृदय बुराई से शुद्ध हो और उसका मन सभी प्रकार की आसक्ति से मुक्त हो। एक अनासक्त मन ही आंतरिक शांति प्राप्त कर सकता है। ऐसा निर्मल मन आत्मा और अंतर्यामी परमात्मा के ज्ञान के प्रति सबसे अधिक ग्रहणशील होता है। तब मनुष्य जान जाता है कि भिन्न-भिन्न नामों और रूपों के होते हुए भी परम सत्य एक ही है। परिणामस्वरूप, जीवात्मा परमात्मा के साथ ऐक्य में स्थिर हो जाती है।
जब कोई आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो उसको बोध हो जाता है कि चेतना का शुद्ध, स्वयंभू और स्वयं-प्रकाशमान सिद्धांत ही उसकी वास्तविक प्रकृति (जीवात्मा) है; जो उसके मन, शरीर आदि से अलग है। जीवात्मा सब कुछ का द्रष्टा और ज्ञाता है। यह वह विषय है जो स्वयं अपने विचारों, भावनाओं और तर्कों सहित सभी विषय वस्तुओं से अवगत रहता है। जीवात्मा किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व का वह सार है जो जीवन और मृत्यु से परे है। आत्मा का ज्ञान होने पर व्यक्ति जान जाता है कि जीवात्मा अपरिवर्तनीय है। यह सभी अनुभवों की अपरिवर्तनशील पृष्ठभूमि है। दूसरी ओर अहंवादी अस्तित्व के कारक सदा प्रवाह की स्थिति में रहते हैं। वे पल-पल बदलते रहते हैं। यह अहंवादी अस्तित्व ही है जिसमें सांसारिक उथल-पुथल होती रही है; और जीवात्मा तो केवल एक निष्पक्ष साक्षी है। इसलिए, जो बंधन व्यक्ति के शरीर को बांधते हैं, वे उसके भीतर स्थित जीवात्मा को नही बांध सकते। जब बुद्धि जीवात्मा की चेतना से प्रकाशित होती है, और बुद्धि का प्रकाश मन में प्रतिबिम्बित होता है; तब स्वयं के एक पृथक एवं सीमित अहं होने का भाव लुप्त हो जाता है। सभी आशंकाएं दूर हो जाती हैं। जब कोई व्यक्ति सर्वोच्च भगवान की शरण लेता है, और आत्मज्ञान की तलाश गंभीरता से करता है, तो भगवान स्वयं उस मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार के उचित मार्ग पर ले जाते हैं। लक्ष्य रूप ईश्वर तब बन जाता है मार्गदर्शक ईश्वर।
नि:संदेह, जिसने आत्मा को जान लिया है, वह भौतिक प्रकृति के बंधन से मुक्त है। आध्यात्मिक रूप से, वह एक स्वतंत्र व्यक्ति है। लेकिन आध्यात्मिक स्वतंत्रता का अर्थ अमर जीवात्मा का नश्वर मानव प्रकृति से अलगाव नहीं है। बल्कि इसका अर्थ है मनुष्य का बाहरी भटकाव से हटकर आंतरिक पूर्णता को प्राप्त करना। ऐसा मुक्त जीव अपनी भिन्नता में आनन्दित होते हुए भी सदा दिव्य चेतना की अविभाज्यता से अवगत रहता है। ऐसे मुक्त प्राणी की इंद्रियां, मन, बुद्धि और आत्मा एक दूसरे से सामंजस्य में काम करते हैं। फलस्वरूप उसे आत्मा के ज्ञान का प्रकाश तथा मन और शरीर का आनंद प्राप्त होता है।
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि जब कोई मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को जान जाता है, तब वह अपने हृदय के भीतर आसीन परमात्मा को अनुभव कर लेता है।