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विकास के आंकड़ों को आईना दिखाती विसंगति

06:30 AM Sep 29, 2023 IST

दीपिका अरोड़ा

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बेरोज़गारी देश के समग्र विकास को बाधित करने वाली प्रमुख समस्याओं में से एक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के वर्षों बाद भी भारतवर्ष के लिए यह एक गंभीर मुद्दा बनी हुई है। ‘श्रम बल सर्वेक्षण’ (पीएलएफएस), 2021-2022 आंकड़ों का हवाला देते हुए अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा 20 सितंबर को ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया, 2023’ नाम से जारी की गई रिपोर्ट बताती है, भले ही कोविड-19 के बाद से भारत में बेरोज़गारी दर में गिरावट आई, बावजूद इसके वर्तमान में 15 फ़ीसदी से अधिक स्नातक नौकरी से वंचित हैं। देश में 25 वर्ष से कम आयुवर्ग वाले 42 फ़ीसदी स्नातक बेरोज़गारी से जूझ रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़, उच्च शिक्षित समूह के भीतर व्याप्त बेरोज़गारी दर में बड़ा अंतर है। स्नातकों को उनकी प्रतिभा-कौशल अनुरूप नौकरियां मिलने पर भी प्रश्नचिन्ह अंकित है।
सांख्यिकी गणनानुसार, विकास व रोज़गार में सीधा संबंध है। साधारणत: माना जाता है कि देश का विकास होने पर रोज़गार के अवसर भी बढ़ते हैं किंतु मौजूदा स्थिति कुछ और ही तस्वीर पेश करती है। रिपोर्ट के मुताबिक़, 2004 से 2017 के मध्य प्रतिवर्ष लगभग 30 लाख नौकरियां सृजित हुईं। 2017 से 2019 के बीच यह आंकड़ा प्रतिवर्ष 50 लाख नौकरियों तक जा पहुंचा किंतु 2019 के पश्चात नियमित वेतन पाने वाले रोज़गारों में कमी आई। निस्संदेह कोविड-19 इसमें मुख्य कारण रहा, जिसके चलते 2023 में वैश्विक स्तर पर लगभग लाखों कर्मचारियों को नौकरी छोड़ने हेतु बाध्य होना पड़ा। भारत भी कोविड-दुष्प्रभाव से अछूता न रह पाया। इसके चलते 2020-2021 के मध्य यहां नियमित आय वाली 22 लाख नौकरियां कम हुईं किंतु असंगठित क्षेत्र की 52 लाख नौकरियों की ओर किसी का ध्यान तक न गया, जो कि कोविड के चलते लोगों को गंवानी पड़ीं।
रिपोर्ट यह ख़ुलासा भी करती है कि नियमित वेतन वाली मात्र छह फ़ीसदी नौकरियां ही कर्मचारियों को स्वास्थ्य बीमा अथवा दुघर्टना लाभ बीमा जैसी सुविधाएं मुहैया करवाती हैं। सर्वाधिक चिंताजनक पहलू यह है कि आशानुरूप नौकरियां न मिलने पर युवा स्नातक वैकल्पिक रूप में बेरोज़गार रहना अधिक पसंद करते हैं।इससे पूर्व रोज़गार-डेटा तैयार करने वाली निजी संस्था, ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ द्वारा जारी रिपोर्ट में भी जून, 2023 के दौरान बेरोज़गारी दर 8.45 प्रतिशत पर जा पहुंचने का तथ्य सामने आया था, जबकि मई में यह आंकड़ा 7.68 फ़ीसदी रहा। हरियाणा, राजस्थान, बिहार, झारखंड तथा जम्मू-कश्मीर में बेरोज़गारी दर सबसे अधिक रही, जबकि दिल्ली भारत का सर्वाधिक बेरोज़गार केंद्रशासित प्रदेश पाया गया।
संरचनात्मक, घर्षणात्मक, मौसमी तथा चक्रीय श्रेणियों के अंतर्गत भारत में बेरोज़गारी के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। बढ़ती जनसंख्या, घटते संसाधन अवसरों के संदर्भ में प्रतिकूलता लाते हैं। विनिर्माण क्षेत्र में कम निवेश एवं अपर्याप्त ढांचागत विकास माध्यमिक क्षेत्र में नौकरी के अवसर सीमित कर देता है। श्रम प्रधान उद्योगों में निजी निवेश में गिरावट का सामना करना भी बेरोज़गारी बढ़ने का कारण बनता है। ख़राब उत्पादकता तथा कृषि कर्मियों के लिए वैकल्पिक रोजगार की कमी के चलते कृषि क्षेत्र में भी परिस्थितियां चुनौतीपूर्ण बन जाती हैं। कानूनी कठिनाइयां, अपर्याप्त सरकारी समर्थन, छोटी कंपनियों के साथ कमज़ोर बाज़ार, वित्तीय तथा बुनियादी ढांचा, लागत तथा अनुपालन की अधिकता के कारण उन कार्यों को लाभहीन बना देते हैं।
शैक्षणिक व्यवस्था में रोज़गार सृजक तकनीकी कौशल का अभाव भी बेरोज़गारी का कारण है। यद्यपि नई शिक्षा नीति के तहत रोज़गार के पर्याप्त अवसर सृजित होने की संभावनाएं प्रबल हुई हैं तथापि इस विषय में संभावित परिणाम आने अभी बाकी हैं। बेरोज़गारी स्वयंमेव समस्या न होकर अनेक सामाजिक समस्याओं की जननी भी है। ख़ाली दिमाग शैतान का घर माना गया है, जो युवाओं को नशों तथा अपराधीकरण की ओर ले जाता है। साथ ही बेरोज़गारी देश की युवा प्रतिभा के विदेश पलायन का सबब भी बन रही है।
विषय गंभीर हो तो गहराई से समझकर, इसके तात्कालिक समाधान निकालने अनिवार्य हो जाते हैं। सरकारें ऐसे सार्वजनिक रोज़गार कार्यक्रम बना सकती हैं जो नौकरी के स्थायित्व हेतु न्यूनतम वेतन पर पूर्णकालिक रोज़गार उत्पन्न करें अथवा कार्य के बदले अनाज कार्यक्रम के माध्यम से बेरोज़गारों को अस्थायी श्रम प्रदान करें। उत्पादकता, मांग व आपूर्ति के समुचित संतुलन द्वारा बाज़ार स्थिर बनाए रखने से चक्रीय बेरोज़गारी घटेगी। विषम परिस्थितियों में विस्तारवादी मौद्रिक नीति के माध्यम से सार्वजनिक व्यय बढ़ाकर मौसमी तथा चक्रीय बेरोज़गारी का मुक़ाबला किया जा सकता है। शिक्षा प्रणाली में उद्यमिता प्रशिक्षण के समन्वय से भी स्थिति में सुधार होगा। सरकार को रोज़गार अवसरों की उपलब्धता बारे भी गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। विकास दर एवं समुचित रोज़गार अवसरों में अपेक्षित तालमेल न होने से जीडीपी बढ़ाने वाली लक्षित विकास नीतियां भी संशय के घेरे में आ जाती हैं।

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