धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर अपेक्षित कूटनीतिक संयम
द ग्रेट गेम
ज्योति मल्होत्रा
विदेश मामलों पर सलाह करने के वास्ते विदेश मंत्रालय के सचिव विक्रम मिसरी का बांग्लादेश की यात्रा पर जाना सही वक्त पर है। बांग्लादेश द्वारा इस्कॉन से जुड़े हिंदू साधु चिन्मय कृष्ण दास को कथित देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार करना और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की विवादित टिप्पणियों के परिप्रेक्ष्य में, जब वे मुगल सुल्तान बाबर द्वारा अयोध्या, संभल और आज के बांग्लादेश में मंदिरों को तोड़ने के पीछे की वजह ‘एक ही डीएनए’ होना ठहरा रहे हैं, यह कहना उचित होगा कि एक-दूसरे के सांप्रदायिक उन्माद का पोषण करने वाले कीटाणु भारत और बांग्लादेश, दोनों जगह, कुछ हिस्सों में जीवित और अच्छे-खासे मौजूद हैं।
आदित्यनाथ की टिप्पणी जरा भी अनोखी नहीं है। आरएसएस ने हाल ही में भारत की सरकार से आह्वान किया था कि वह बांग्लादेश में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों को रुकवाए, जबकि पश्चिम बंगाल के भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी ने तो यहां तक धमकी दे डाली कि यदि मुहम्मद यूनुस की सरकार हिंदुओं पर हमला करना बंद नहीं करती है तो व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए जाएं।
ऐसी टिप्पणी करने वाले आदित्यनाथ भाजपा के पहले बड़े नेता नहीं हैं। साल 2018 में, तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष और वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह ने भारत में बांग्लादेशी प्रवासियों को ‘दीमक’ ठहराया था और वादा किया था कि उनमें से प्रत्येक का नाम मतदाता सूची से हटा दिया जाएगा। यह बात अलग है कि खुद असम सरकार ने अगस्त माह में स्वीकार किया है कि 1971 और 2014 के बीच असम में रह रहे ‘विदेशियों’ में 43 प्रतिशत (20,613/47,928) वास्तव में हिंदू हैं।
शाह की अकूटनीतिक टिप्पणी शायद पूरी तरह से दीर्घकालीन ध्येय की प्राप्ति के वास्ते थी और यह प्रमाण है रणनीतिक असंवेदनशीलता के साथ हिंदुत्व की राजनीति के अस्वस्थ घालमेल का, खासकर जब मामला भारत के सबसे महत्वपूर्ण पड़ोस का हो। उस समय, विदेश मंत्रालय ने अपनी चुप्पी साधे रखी, लेकिन तत्कालीन बांग्लादेशी प्रधान मंत्री शेख हसीना को यह समझाने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी कि उन्हें किसी राजनेता की टिप्पणियों को व्यक्तिगत रूप से नहीं लेना चाहिए।
उस समय, प्रधानमंत्री मोदी अपने पूर्वी पड़ोसियों के साथ भारत के संबंध सुधारने में पूरी तरह से जुटे हुए थे- और शाह की टिप्पणियों ने इसे करारा झटका दिया। मोदी भली भांति समझते हैं कि किसी अन्य राष्ट्र के मुकाबले बांग्लादेश निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण है, इतना कि उसे किसी भी समय हल्के में नहीं लिया जा सकता। यही कारण है कि मिसरी की ढाका यात्रा इतनी महत्वपूर्ण बन गई है। अगस्त की शुरुआत में, जब से हसीना जान बचाकर दिल्ली पहुंची हैं, तब से द्विपक्षीय संबंधों में गिरावट आई है। कई मुद्दों पर दोनों मुल्कों में ठनी हुई है, जिसमें एक यह भी शामिल है कि तथाकथित क्रांति को हिंसा के चरम पर क्यों पहुंचने दिया गया, जिसकी नाटकीय परिणति हसीना के फ्लाइट लेकर सुरक्षित देश से बाहर निकलने के रूप में हुई। उधर, बांग्लादेश का मानना है कि भारत जानबूझकर देश की अधोगति में हसीना की प्रमुख भूमिका को समझने से इंकार कर रहा है, इधर भारत यह समझने में असमर्थ है कि बांग्लादेश आज जानबूझकर मुजीब-उर-रहमान जैसी महान शख्सियत की स्मृति को क्यों मिटाना चाहता है और उन्हें इतिहास के अपमानजनक कूड़ेदान के हवाले करने में क्यों लगा है।
बेशक, समस्या कहीं अधिक जटिल है। इस मामले में जब बांग्लादेश द्वारा आदित्यनाथ और शाह को सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ता के रूप में देखा जाए, और जब भारत सरकार सार्वजनिक रूप से इनकी निंदा करने से इनकार कर दे या निजी तौर पर उन्हें ऐसे बयान देने से परहेज करने के लिए न कहे, तो रार बढ़नी स्वाभाविक है और अकसर खुद-ब-खुद यह और गहरी होती जाती है।
बदतर यह कि भारतीय राजनेता अपने बांग्लादेशी समकक्षों पर वही करने का आरोप लगा रहे हैं जो वे खुद अक्सर अपने देश में करते हैं - उदाहरण के लिए, आदित्यनाथ के ‘बुलडोजर न्याय’ का मतलब अधिकांशतः यह निकलता है कि हिंदुओं के घरों की तुलना में मुसलमानों के मकानों को ज्यादा अनुपात में ढहाना - या जब भारतीय राजनेता खुलेआम शेष विवादित पूजा स्थलों की तथाकथित ‘वापसी’ का आह्वान करते हैं, उदाहरणार्थ, वाराणसी और मथुरा में, भले ही यह करना पूजा स्थल अधिनियम, 1991 का उल्लंघन हो, ऐसे काम बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों में सांप्रदायिक राजनीति को मंजूरी देने जैसे हैं।
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के तौर पर भारत और बाकी पड़ोसी मुल्कों के बीच का अंतर दशकों से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था- वास्तव में, पास-पड़ोस भी अक्सर भारत की लोकतांत्रिक संवेदनशीलता को एक आदर्श के रूप में लेता रहा है। अब कौन यह मानेगा कि तमाम विभिन्न राजनीतिक धारा के भारतीयों ने कभी अपने अल्पसंख्यकों से प्रतिशोध न लिया हो या इन अल्पसंख्यकों को न्याय से वंचित न किया हो, जबकि अक्सर लंबे समय तक - कांग्रेस और भाजपा, दोनों पर ही, दंगे भड़काने के दोष लगते रहे हैं। अंतर यह है कि भारत की न्यायपालिका ने ज्यादातर सत्ता को आईना दिखाया है। लोकतंत्र सिर्फ़ एक शब्द भर से अधिक रहा।
यहां तक कि जब कभी समझौता काफी बढ़िया ढंग से सिरे चढ़ा, जैसा कि राम जन्मभूमि विवाद में हुआ, और 2019 में सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थता से बने फ़ैसले से यह विवाद समाप्त हुआ - जिसमें मुस्लिम पक्ष ने गर्भगृह की अचल संपत्ति पर अपना दावा छोड़ दिया, जिस पर एक समय 1529 में राम मंदिर को गिराकर उस पर बाबर के एक सेनापति ने बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया था - तो उम्मीद थी कि हिंदू पक्ष इस पर अपनी छाती नहीं ठोकेगा और जीत का बखान नहीं करेगा।
बेशक ऐसा नहीं हुआ। राम मंदिर को वापस पाकर संतुष्ट होने के बजाय, आक्रामक हुए हिंदू मुक़दमेबाज़ों ने ज्ञानवापी मस्जिद से लेकर कृष्ण जन्मभूमि से लेकर संभल की मस्जिद तक, ज़्यादा से ज़्यादा धर्मस्थलों को लक्ष्य बनाना शुरू कर दिया है। ऐसा लगता है कि वे इतिहास के उस अन्याय का बदला लेने के लिए तरस रहे हैं, भले ही उन्हें उसका कोई प्रत्यक्ष अनुभव न हुआ हो। कल्पना करें कि बांग्लादेश में यही खेल कैसे खेला जाएगा, जो पहले से ही निरंकुश हसीना को भारत द्वारा पनाह दिए जाने पर गुस्से से उबल रहा है। बांग्लादेशी मीडिया इस आरोप को खारिज करता है कि यूनुस सरकार अपने देश में अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही है, लेकिन यह स्पष्ट है कि बिजली इस्कॉन साधु पर गिरी है। उसकी छवि के चलते उसे बलि का बकरा बनाना आसान हुआ।
यह भी विचार करें कि भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति अपनी ही सरकार की विदेश नीति को क्या नुकसान पहुंचा रही है - निश्चित रूप से न केवल यह भारत की स्थिति को कमजोर करती है बल्कि मोदी की भी, जाहिर है वे अपने तीसरे कार्यकाल में अपनी एक छाप, यहां तक कि एक विरासत छोड़ना चाहेंगे। विडंबना यह है कि कुछ अन्य मामलों में मोदी अपनी स्थिति अच्छी तरह बना पाए, जब उन्होंने बाइडेन द्वारा रूस पर लगाए प्रतिबंधों के मामले में भारत के रुख को अडिग बनाए रखा, और अब ट्रम्प से निपटने की तैयारी कर रहे हैं। चीन के मामले में वे अपना निजी अहंकार छोड़ने को तैयार हुए और पड़ोस को स्थिर करने के प्रयास में उन्होंने तालिबान तक से संपर्क साधा है।
और एक बांग्लादेश है - एक ऐसा देश जिसका जन्म भारत की मदद से 1971 में हुआ था और उसे अपनी पहचान पाने में सहायता की। यह सचमुच दुखद होगा यदि भारत आज बांग्लादेश को खो दे, क्योंकि कुछ अदूरदर्शी भारतीय हमारे युग के सबसे महान विचारों में से एक - धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत -के साथ जल्दबाजी में खिलवाड़ करने पर आमादा हैं।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।