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क्या देश ने सुनी झोली में भरे पदकों की खनक

06:38 AM Sep 13, 2024 IST
नरेश कौशल

पेरिस पैरालंपिक में भारतीय खिलाड़ियों ने कामयाबी की नई इबारत लिखते हुए सात सोने के तमगों समेत 29 पदक हासिल किये। पदकों की यह नफरी पिछले टोक्यो पैरालंपिक में मिले पदकों से दस पदक ज्यादा रही। साल 2016 से पैरालंपिक में भाग लेना शुरू करने वाले भारत की यह कामयाबी अभूतपूर्व है। इस साल के पेरिस ओलंपिक में जहां हमारे खिलाड़ी एक अदद सोने के तमगे के लिये तरसते रहे, वहीं पैरा खिलाड़ियों ने सात चमचमाते सोने के तमगे भारत की झोली में डाल दिए। इसके अलावा नौ चांदी के व 13 कांस्य पदक भी इस कामयाबी में इसमें शामिल हैं। इस काबिले तारीफ प्रदर्शन के बूते भारत पेरिस पैरालंपिक में पूरी दुनिया में 18वें स्थान पर रहा। जबकि पेरिस ओलंपिक में हमें एक रजत व पांच कांस्य पदकों के साथ पदक तालिका में 71 वें स्थान पर रहना पड़ा था। जबकि हमारा चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान सिर्फ एक स्वर्ण तमगे के बूते 62वें स्थान पर जा पहुंचा था। लेकिन इन आंकड़ों के बावजूद पैरालंपिक में शानदार प्रदर्शन करके भारत लौटे खिलाड़ियों के प्रति हमने जैसा ठंडा व्यवहार किया, वो कहीं न कहीं पैरा खिलाड़ियों के मनोबल को कम करने वाला ही कहा जाएगा।
भारत जैसे देश में, जहां आम खिलाड़ियों के लिये भी ठीक-ठाक खेल सुविधाएं छोटे शहरों व ग्रामीण इलाकों में नहीं हैं, तो दिव्यांग खिलाड़ियों की जरूरत के हिसाब से तो ऐसी पर्याप्त सुविधाएं होना दूर की कौड़ी ही कही जाएगी। स्टेडियमों में व्हील चेयर वाले खिलाड़ियों के लिये रैंप तक जाने की व्यवस्था कम ही होती है। उनके लिये शौचालयों व अन्य सुविधाओं का अभाव होता है। वैसे भी उनका निजी जीवन का संघर्ष काफी बड़ा होता है। परिवारों में भी उन्हें भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। समाज उनके प्रति संवेदनशील व्यवहार नहीं करता है। उन्हें या तो दोयम नजरिये से देखता है या दया का पात्र मान लेता है।
पैरालंपिक में गए खिलाड़ियों के दल में तमाम कहानियां ऐसी हैं, जो हैरत में डालती हैं कि उनका संघर्ष कितना बड़ा था। कोई गंभीर दुर्घटना से दिव्यांग बना तो कोई असाध्य बीमारी से शारीरिक अपूर्णता का शिकार हुआ। किसी ने जन्मजात अपूर्णता पायी तो कोई गलत इलाज से अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर हुआ। लगातार दो पैरालंपिक में भाला फेंक में सोने का तमगा जीतने वाले हरियाणा के सुमित अंतिल को एक दुर्घटना के चलते एक पैर कटवाना पड़ा। सड़क दुर्घटना में शरीर के निचले हिस्से को निष्क्रिय पाने वाले अवनि लेखरा ने फिर दूसरी बार सोने का तमगा हासिल किया। करंट लगने से शारीरिक अपूर्णता से ग्रस्त होने वाले कपिल परमार ने पहली बार भारत को जूडो में पदक दिलाया। बिना हाथों के जन्म लेने वाली शीतल देवी का संघर्ष कितना बड़ा रहा, सोच कर हैरानी होती है। उसने पेरिस पैरालंपिक में कांस्य पदक जीता। ऐसे में देखें तो पैरालंपिक खिलाड़ियों का संघर्ष सामान्य ओलंपिक खिलाड़ियों से कई गुना ज्यादा है। भारत के 84 सदस्यीय दल ने पैरालंपिक इतिहास में ट्रैक स्पर्धाओं में 17 पदक जीतकर नया रिकॉर्ड बनाया। वहीं पेरिस ओलंपिक में 110 सामान्य खिलाड़ियों का दल सिर्फ एक रजत समेत छह पदक ही जीत पाया था।
एक बात तो तय है कि इतनी बड़ी संख्या में पदक जीतने वाले पैरालंपिक खिलाड़ियों को देश लौटने पर जो सम्मान दिया जाना था, वो हमने नहीं दिया। ऐसा लगा कि सरकारों से लेकर मीडिया तक को जो तरजीह इन खिलाड़ियों को देनी चाहिए थी, वो नहीं दी गई। जिस तरह सामान्य पदक विजेता खिलाड़ियों के सम्मान में हम जुटे रहे, वैसा उत्साह पैरा खिलाड़ियों के प्रति हमने नहीं दिखाया। इन खिलाड़ियों ने अपने जीवन के कठिन संघर्ष के बावजूद देश का जो सम्मान बढ़ाया, उसका प्रतिसाद देने में हम चूके हैं। उनके लिये सरकार व निजी क्षेत्रों द्वारा वैसे पुरस्कारों की घोषणा नहीं हुई और न ही उनके लिये नौकरियों व अन्य सुविधाओं के अवसर मुहैया कराये गये। सात स्वर्ण पदक जीतना छोटी कामयाबी नहीं थी। नौ चांदी के तमगों की चमक कम नहीं होती। विडंबना यह कि उन्हें परंपरागत मीडिया व सोशल मीडिया पर वैसा सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। यदि खिलाड़ियों के स्तर पर ऐसा भेदभाव न होता तो नये खिलाड़ियों में भी पैरा खेलों में भाग लेने का जुनून पैदा होता। इन खिलाड़ियों को, जिनका निजी व सार्वजनिक जीवन में संघर्ष बहुत बड़ा है, पर्याप्त सम्मान मिलना चाहिए। इन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करते हुए देश का नाम रौशन किया।
सच्चे अर्थों में, आज देश को दिव्यांग खिलाड़ियों के प्रति अधिक संवेदनशील होने व उनके प्रति ज्यादा सम्मान का भाव रखने की जरूरत है। उन्हें दया नहीं, प्रोत्साहन की जरूरत है। हमें ऐसी प्रतिभाओं को पहचान कर स्कूल स्तर से ही उनके पसंद के खेलों के लिये प्रोत्साहित करने की जरूरत है। उनमें आत्मगौरव का भाव भरने की जरूरत होती है ताकि उन्हें पैरालंपिक जैसी स्पर्धाओं में बेहतर प्रदर्शन के लिये प्रेरित किया जा सके। कायदे से हमें पेरिस से लौटे पैरा खिलाड़ियों को पलक-पांवडों पर बैठाकर भरपूर सम्मान देना चाहिए था। उनके लिये नगद पुरस्कारों की घोषणा की जानी चाहिए थी। उन्हें सरकारी व निजी क्षेत्र की नौकरियों में तरजीह मिलनी चाहिए थी। उनके लिये अनुकूल खेल वातावरण बनाने के लिए प्रोत्साहन की जरूरत थी। लेकिन दुखद कि 145 करोड़ लोगों के देश ने ऐसा नहीं किया। बावजूद इसके कि इन पैरा खिलाड़ियों ने अपने शानदार प्रदर्शन से देशवासियों को हैरान किया। ये देश व खेल प्रेमियों के लिये खुशी व गर्व की बात थी कि इन खिलाड़ियों ने पदक जीतने के तमाम पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिये।
वैसे ओलंपिक खेलों व पैरालंपिक खेलों में तकनीकी रूप से कुछ फर्क होता है। सामान्य खिलाड़ियों में इस बात का परीक्षण किया जाता है कि उनकी शारीरिक क्षमता कितनी है। वहीं पैरालंपिक में खिलाड़ी की दृढ़ इच्छाशक्ति व साहस की पड़ताल होती है। यही वजह है कि पैरालंपिक में सामान्य ओलंपिक के मुकाबले देशों की संख्या कम व पदक ज्यादा होते हैं। वैसे तो जो देश ओलंपिक में ज्यादा पदक जीतते हैं, वे ही पैरालंपिक में भी सामान्य तौर पर बेहतर प्रदर्शन करते हैं। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं। किसी देश में शारीरिक अपूर्णता वाले खिलाड़ियों के लिये कितनी खेल सुविधाएं हैं और समाज का दृष्टिकोण कैसा रहता है, इस पर भी खिलाड़ियों की सफलता निर्भर करती है। किसी देश में चिकित्सा सुविधाओं का स्तर भी दिव्यांग खिलाड़ियों की सफलता तय करता है। यही वजह है कि चीन व ब्रिटेन ने अधिक पदक जीते और अमेरिका व जापान पीछे रहे। बड़ी आबादी वाले देश चीन, भारत व ब्राजील को अधिक आबादी का लाभ भी पैरालंपिक खेलों में मिला। भारत में सस्ती चिकित्सा सुविधाएं होने का लाभ भी दिव्यांग खिलाड़ियों को मिलता रहा है, जबकि अमेरिका में महंगा इलाज उनकी राह में एक बड़ी बाधा है।
वैसे सामान्य खिलाड़ियों पर अपेक्षाओं का दबाव अधिक होता है। वहीं शारीरिक अपूर्णता वाले खिलाड़ियों पर ऐसा दबाव कम होता है और वे अधिक बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं। वैसे मनोवैज्ञानिक रूप से भी दिव्यांग खिलाड़ियों में पदक जीतने का बड़ा जुनून होता है। उनकी कोशिश होती है कि वे भी सामान्य नागरिकों जैसी शोहरत हासिल कर सकें। यानी पैरा खिलाड़ी में समाज में कुछ खास जगह बनाने का जुनून होता है। मेडल जीतने की ललक उन्हें बेहतर करने को प्रेरित करती है। दरअसल, शारीरिक रूप से चुनौती वाले प्रतियोगियों में पदक जीतने का जुनून ज्यादा पाया जाता है। उनकी एकाग्रता सफलता की राह खोलती है।
वक्त की नजाकत यह है कि क्या हम उनके विशिष्ट गुण को उचित सम्मान दे पा रहे हैं? क्या हम उन्हें ओलंपिक खिलाड़ियों के समान मान-सम्मान प्रदान कर रहे हैं? क्या पुरस्कार राशि व उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप रोजगार देने में निष्पक्ष हैं? यदि हम उन्हें उनका वाजिब हक और सम्मान देंगे तो देश में पैरा खिलाड़ियों की नई पौध विकसित होगी। फिर हर पैरालंपिक में झोली में भरे पदकों की खनक पूरी दुनिया में सुनाई देगी।

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