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तरक्की के बावजूद कुछ सपने अधूरे

06:30 AM Nov 09, 2023 IST

जयसिंह रावत

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नवगठित उत्तरांचल की अंतरिम सरकार के पहले वित्त मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 3 मई, 2001 को जब राज्य का पहला बजट पेश किया था तो उसमें कुल व्यय 4,505.75 करोड़ और राजस्व प्राप्तियां 3,244.71 करोड़ प्रस्तावित थीं। राज्य गठन के समय उत्तरांचल को लगभग 1,750 करोड़ का घाटा विरासत में मिला था और अंतरिम सरकार ने 10 करोड़ के ओवर ड्राफ्ट के साथ अपना काम शुरू किया था। यही नहीं, नये राज्य को विरासत में भारी-भरकम कर्ज भी मिला था। जबकि 15 मार्च, 2023 को मौजूदा वित्त मंत्री प्रेमचन्द अग्रवाल ने 2023-24 का सालाना बजट पेश किया तो उसमें कुल व्यय 77,407.08 करोड़ और राजस्व प्राप्तियां 76,592.54 करोड़ प्रस्तावित थीं। उत्तरांचल के नाम से जन्म लेने वाले उत्तराखंड के बजट की इतनी बड़ी छलांग नये राज्य की प्रगति का एक पैमाना ही है। हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता और केदारनाथ जैसी आपदाएं न आतीं तो यह राज्य इससे भी कहीं अधिक तरक्की कर चुका होता। लेकिन इतनी तरक्की के बावजूद अभी उत्तराखंडवासियों के कुछ सपने अधूरे हैं तो कुछ बिखर भी गये हैं।
उत्तराखंड के जन्म के समय राज्य को विरासत में भारी-भरकम घाटा और कर्ज मिलने के साथ ही 11वें वित्त आयोग से भी पूरा न्याय नहीं मिला था। तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने अन्य हिमालयी राज्यों के साथ ही उत्तरांचल को भी 1 मई, 2001 को विशेष श्रेणी का दर्जा दे दिया जिससे विकास के मार्ग में आने वाली वित्तीय कठिनाइयां काफी आसान हुईं। इसके बाद राज्य को औद्योगिक पैकेज भी मिला, जिससे राज्य का तेजी से औद्योगिक विकास होने के साथ ही राज्य की जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय बढ़ती गयी। सन‍् 2002 में सी. रंगराजन की अध्यक्षता में 12वां वित्त आयोग गठित हुआ तो तत्कालीन सरकार के होम वर्क के फलस्वरूप न केवल 11 वें आयोग के नुकसान की काफी हद तक भरपाई हुई बल्कि अपेक्षा के अनुरूप आयोग ने नये राज्य पर दरियादिली भी दिखाई।
1 जनवरी, 2007 को उत्तरांचल का टैग उतार कर उत्तराखंड नाम धारण करने वाले इस राज्य की विकास यात्रा में राजनीतिक अस्थिरता, पद लोलुपता और केदारनाथ जैसी आपदाओं के कारण व्यवधान अवश्य रहे फिर भी विशेष श्रेणी का दर्जा, औद्योगिक पैकेज और नये राज्य के प्रति केन्द्र सरकारों की सहानुभूति के चलते इन 23 सालों में राज्य की जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय ने भी आश्चर्यजनक छलांगें लगाईं। नवीनतम अनुमान के अनुसार राज्य की जीडीपी 3.33 लाख करोड़ और प्रति व्यक्ति आय 2,33,565 तक पहुंच गयी है। जबकि 1999-2000 में राज्य की प्रति व्यक्ति आय मात्र 14,086 रुपये और जीडीपी लगभग 1.60 लाख करोड़ के आसपास थी। यद्यपि टिहरी, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जिलों की प्रति व्यक्ति आय 1 लाख तक भी नहीं पहुंची। जबकि हिमाचल की प्रति व्यक्ति आय उत्तराखंड से कम 2,22,226.54 तक ही पहुंची है। इसी प्रकार हिमाचल की जीएसडीपी भी उत्तराखंड की कहीं कम 2.14 लाख करोड़ है। वहां बैंकों का ऋण जमानुपात भी उत्तराखंड से बहुत कम 30.80 है। राज्य गठन के समय विद्युतीकृत गांवों की संख्या 12519 थी जो कि अब 15745 तक पहुंच गयी है।
राज्य में एलोपैथिक अस्पतालों की संख्या तब से अब 553 से 716 तक, आयुर्वेदिक अस्पतालों की संख्या 415 से 544 हो गयी और जन्म दर 19.6 से घट कर 16.6 और बाल मृत्यु दर 6.5 से घट कर 6.3 तक आ गयी है। वर्ष 1999 में नेशनल हाइवे से लेकर जिला और ग्रामीण मार्गों की लम्बाई 14,976 किमी थी जो कि 2022 के आंकड़ों के अनुसार 40,457.29 किमी तक पहुंच गयी है। वर्ष 2001-02 की सरकारी सांख्यिकी डायरी के अनुसार उस समय राज्य में 191 उद्योग स्थापित थे, जिनमें से 69 के बंद होने से कुल 122 ही उद्योग शेष रह गये थे। अब 2021-22 की सांख्यिकी डायरी के अनुसार राज्य में वृहद उद्योगों की संख्या 329 तक पहुंच गयी है। इन बड़े उद्योगों के अलावा राज्य में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की संख्या 73,961 हो गयी है।
पहाड़वासी अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिये अनुच्छेद 371 की मांग कर रहे थे लेकिन अब उद्योग के नाम पर पहाड़ियों की जमीनों की खुली लूट मची हुई है। वर्ष 2003 में जो भू-कानून बना था उसका 2017 के बाद निरन्तर क्षरण हो रहा है जिस कारण पहाड़ की जनसांख्यिकी बदल रही है। राज्य आन्दोलन के दौरान हुए मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को आज तक सज़ा नहीं हो पायी। राज्य में कृषि जोतों का आकार निरन्तर घटता जा रहा है। सन‍् 1995-96 में राज्य में 4 से 10 हेक्टेयर के बीच जाेतों का प्रतिशत 3.1 था जो कि 2021-22 तक 1.64 प्रतिशत रह गया। इसी तरह 2 से 4 हेक्टेयर आकार की जोतें 8.7 प्रतिशत थीं जो घट कर 6.59 प्रतिशत रह गयीं। राज्य में 2015-16 में कुल कृषि जोतें 9,12,650 थी, जिनमें 6,75,246 पहाड़ की और 2,37,404 मैदान की थी। इतने बड़े पैमाने पर खेतों का सिमट जाना कृषि के प्रति लोगों की अरुचि और बड़े पैमाने पर पलायन का ही संकेत है। इसका कारण सरकार द्वारा मुफ्त राशन और मनरेगा में सौ दिन के रोजगार की गारंटी माना जा रहा है। खेतों की उर्वरता घटते जाने और जंगली जानवरों द्वारा किये जाने वाले भारी नुकसान के कारण भी लोगों में खेती का मोह बहुत घट गया है। इस पहाड़ी राज्य में नयी शिक्षा नीति का भी सरकारी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता पर असर नहीं पड़ रहा है। इसका ज्वलंत उदाहरण सरकारी स्कूलों में बच्चों की घटती संख्या है।
केंद्र सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार उत्तराखंड में साल 2021-22 में बेरोजगारी दर 7.8 प्रतिशत रही है। हालांकि, 2022-23 में बेरोजगारी दर के आंकड़ों में गिरावट देखी गई है। राज्य गठन के समय सेवा योजन कार्यालयों में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 3,08,868 थी जो कि 2021-22 में 8,39,679 हो गयी।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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