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विपक्ष के ईमानदार कर्तव्य से लोकतंत्र को मजबूती

07:25 AM Jul 05, 2024 IST

विश्वनाथ सचदेव
आखिरकार लोकसभा में विपक्ष के नेता की आवाज़ सुनाई दे ही गयी। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी पहले संसद में बोले नहीं, पर तब वह कांग्रेस के एक नेता के रूप में ही बोलते थे, पर अब उनकी आवाज़ पूरे विपक्ष की आवाज़ मानी जायेगी और जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है, ‘लोकतांत्रिक परंपराओं का तकाज़ा है कि वे नेता प्रतिपक्ष की बात ध्यान से सुनें’, सोमवार को लोकसभा में दिये गये राहुल गांधी के भाषण को इस दृष्टि से देखा-सुना जायेगा। पिछले दस साल में हमारी लोकसभा में प्रतिपक्ष तो था पर नियमों के अनुसार नेता प्रतिपक्ष किसी को नहीं चुना जा सकता था। चुनावों में भाजपा को मिली सफलता इतनी ‘भारी’ थी कि विपक्ष की आवाज़ दब-सी गयी थी। इस बार ऐसा नहीं है। इस बार मतदाता ने भाजपा को सदन में सबसे बड़ा दल तो चुना है, पर उसे इतनी ताकत नहीं दी कि वह अपनी मनमानी कर सके।
आज देश में एक मिली-जुली सरकार है। बैसाखियों के सहारे चल रही है भाजपा के नेतृत्व वाली यह सरकार। भाजपा को सबसे बड़े दल के रूप में चुनने वाले मतदाता ने कांग्रेस को इतनी सीटें दे दी हैं कि उसका नेता सदन में प्रतिपक्ष के नेता के रूप में काम कर सके। सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष का यह संतुलन जनतंत्र को मज़बूत बनाने वाला है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भाजपा का नेतृत्व स्थिति को समझते हुए जनतांत्रिक मर्यादाओं के अनुरूप कार्य करेगा और विपक्ष से भी यही उम्मीद की जाती है कि वह सकारात्मक भूमिका निभायेगा।
संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के संदर्भ में हुई बहस से देश को ऐसी ही उम्मीद जगी है। चूंकि लोकसभा में दस साल बाद कोई नेता प्रतिपक्ष बना है इसलिए यह उत्सुकता होनी स्वाभाविक थी कि राहुल गांधी सदन में क्या और कैसे कहते हैं। नेता प्रतिपक्ष ने अपनी बात लगभग सौ मिनट में पूरी की और ऐसे अनेक मुद्दे उठाये जो मतदाता को सीधा प्रभावित करते हैं। नेता प्रतिपक्ष के रूप में उन्होंने जिस तरह से अपनी बात रखी उसने बहुतों को प्रभावित किया होगा। यह कतई ज़रूरी नहीं है कि उनकी बातों से सहमत हुआ ही जाये, पर इतना तो स्वीकारना ही होगा कि राहुल गांधी ने अपनी बात मज़बूती से देश के सामने रखी है और जो मुद्दे उन्होंने उठाये हैं वह सत्तारूढ़ गठबंधन को बेचैन करने वाले हैं। यह बात अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है कि राहुल गांधी के वक्तव्य के दौरान प्रधानमंत्री और गृहमंत्री समेत छह केंद्रीय मंत्रियों को खड़े होकर प्रतिवाद करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
यही नहीं, गृहमंत्री ने तो स्पीकर महोदय से यह कहना भी ज़रूरी समझा कि वे विपक्ष के प्रति अधिक उदार हो रहे हैं! यह भी मांग की जा रही है कि नेता प्रतिपक्ष के भाषण में कही गयी बातों को सत्यापित कराया जाये। नेता प्रतिपक्ष ने अपने भाषण में कोई नया मुद्दा नहीं उठाया था कुल मिलाकर वही बातें की थीं जो विपक्ष अर्से से कहता आ रहा है। मसलन, मणिपुर में हुआ घटनाक्रम और प्रधानमंत्री का साल भर तक वहां न जाना, नीट परीक्षा में हुआ घोटाला, सेना में भर्ती की अग्निवीर योजना, किसानों को न्यूनतम दरों की गारंटी का सवाल, महंगाई और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर पहले भी आरोप लगते रहे हैं ।
लेकिन नेता विपक्ष के रूप में राहुल गांधी ने सदन में जिस तरह इन मुद्दों को सामने रखा है वह सत्तारूढ़ पक्ष को विचलित करने वाला था। लेकिन एक मुद्दा जो सर्वाधिक विवादास्पद हो सकता है, वह धर्म को लेकर था। जब उन्होंने यह कहा कि ‘स्वयं को हिंदू कहने वाले ही हिंसा की बात करते हैं’ तो प्रधानमंत्री समेत समूचे सत्तारूढ़ पक्ष को जैसे कुछ कहने का आधार मिल गया। गृहमंत्री ने तो इस कथन के लिए राहुल गांधी से क्षमा मांगने के लिए भी कहा। निश्चित रूप से यह मुद्दा आने वाले कुछ दिन तक हमारी राजनीति पर छाया रहेगा, पर यह कहकर कि प्रधानमंत्री मोदी या भाजपा या संघ ही हिंदू नहीं हैं, नेता प्रतिपक्ष ने अपने कथन को स्पष्ट करने की कोशिश की थी। राहुल गांधी ने कहा, ‘हमारे सभी महापुरुषों ने अहिंसक और भय मुक्त होने की बात कही है... पर आज जो स्वयं को हिंदू कहते हैं वे हिंसा, घृणा संस्कृति की बात ही करते हैं... आप हिंदू हो ही नहीं सकते।’ हिंदुत्व का ठेका लेने वालों को भला यह बात कैसे स्वीकार हो सकती है, शोर मचना तो स्वाभाविक है। शोर तो इस बात पर भी मचेगा कि नेता प्रतिपक्ष धार्मिक आदि के चित्र लेकर क्यों आये?
बहरहाल, नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी का यह भाषण हमारी राजनीति में बहुत दिन तक गूंजेगा। भाजपा एक अर्से से, कम से कम पिछले दस साल से, यह असफल कोशिश करती रही है कि राहुल गांधी को राजनीति के लिए अपरिपक्व समझा जाये। पर आज सदन में उन्होंने जिस परिपक्वता का परिचय दिया है वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अब वह पहले वाले राहुल गांधी नहीं रहे। अपनी भारत जोड़ो यात्राओं के माध्यम से भी वह यह जताने में सफल रहे कि अब वह जन-मानस से सीधे जुड़ने की कला सीख चुके हैं। अब नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनके इस भाषण ने नई उम्मीद जगायी है। कोई ज़रूरी नहीं कि उनकी हर बात से सहमत हुआ जाये, पर यह समझना ज़रूरी है कि उनकी बातों में दम है। अब वह पहले वाले राहुल गांधी नहीं रहे। उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता।
एक और बात जो रेखांकित की जानी चाहिए, वह जनतंत्र में प्रतिपक्ष की भूमिका के बारे में है। एक कमज़ोर विपक्ष जनतंत्र के लिए किस तरह खतरनाक हो सकता है, यह बात हम पिछले दस साल में देख चुके हैं। ऐसे में सबसे बड़ा खतरा सत्ता के बेलगाम होने का होता है। जनतंत्र में प्रतिपक्ष का काम सत्ता के क्रिया-कलाप पर नज़र रखने का होता है। कमज़ोर प्रतिपक्ष यह काम आशा और आवश्यकता के अनुरूप नहीं कर सकता। यह स्थिति सत्ताधारी में अहंकार लाने वाली होती है। इसीलिए यह कामना की जाती है कि सत्ता और विपक्ष के बीच में एक संतुलित समीकरण बने। इस संतुलन में एक मज़बूत विपक्ष की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। विपक्ष जागरूक हो और अपने कर्तव्यों का निर्वहन ईमानदारी से करे, यह सफल जनतंत्र की एक महत्वपूर्ण शर्त है।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस के दौरान विपक्ष की सजगता और सक्रियता के संकेत मिले हैं। वहीं यह भी ज़रूरी है कि सदन में जो कुछ कहा जाये, वह ठोस आधार पर हो। विपक्ष से अपेक्षा की जाती है कि वह पूरी तैयारी के साथ सदन में आये। अधूरे तर्क और अनावश्यक नाटकीयता से बचा जाये। नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी के पहले भाषण में कहीं-कहीं अति नाटकीयता का दिखना कोई अच्छा संकेत नहीं है। पता नहीं किसने उन्हें देवताओं के चित्र सदन में ले जाने की सलाह दी है, पर यह बचकाना हरकत है, नेता प्रतिपक्ष ऐसी हरकतों से बचेंगे तो हमारे जनतंत्र की मज़बूती बढ़ेगी।
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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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