बाघों के संरक्षण पर गहराते सवाल
ज्ञाानेन्द्र रावत
राष्ट्रीय पशु बाघ के संरक्षण पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं। वह चाहे उसके शिकार का सवाल हो, शिकारियों पर अंकुश का सवाल हो, वन्य जीवों के अंगों की तस्करी करने वाले माफिया से अधिकारियों की मिलीभगत का सवाल हो, उनकी संख्या का सवाल हो, उनकी मौत के आंकड़ों का सवाल हो, उनके संरक्षण का हो या उसमें प्रबंधन में नाकामी का सवाल हो, यह कोई नयी बात नहीं है। अभी हाल-फिलहाल जो बात खुलकर सामने आयी है वह यह कि बाघों की जान को बाहरियों के मुकाबले अपनों से ज्यादा खतरा है। सबसे बड़ी बात यह कि इसका खुलासा खुद राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण यानी एनटीसीए ने बीते दस साल में मारे गये बाघों की मौत के मामले में विस्तृत अध्ययन के बाद किया है। एनटीसीए की रिपोर्ट की मानें तो पिछले दस सालों में तकरीबन 1105 बाघों की मौत हुई है। एनटीसीए के अनुसार उसने 2012 से 2022 तक मारे गये 1105 बाघों की पोस्टमार्टम व फॉरेंसिक रिपोर्ट की विस्तृत जांच की है लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि उसमें से 27.97 फीसदी बाघों की मौत की पहेली अनसुलझी है। इसका खुलासा कर पाना विशेषज्ञों के लिए आज भी बड़ी चुनौती बनी हुई है। वे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में नाकाम रहे हैं कि इन बाघों की मौत के पीछे वन्य जीव तस्कर या शिकारी हैं अथवा कोई और कारण है। इसकी जांच में विशेषज्ञ आज भी रात-दिन मेहनत कर शोध में लगे हुए हैं जबकि उन्होंने तकरीबन 72.03 फीसदी बाघों की मौत के कारणों का खुलासा कर अंतिम रिपोर्ट भी दे दी है।
जहां तक इस साल में बीते आठ महीनों का सवाल है, इस दौरान एनटीसीए की मानें तो 125 बाघों की मौत हो चुकी है, उस स्थिति में जबकि अभी भी साल खत्म होने में चार महीने बाकी हैं। वहीं बीते साल 2022 के कुल बारह महीनों में 121 बाघों की मौत हुई थी। एनटीसीए के दावों को सही मानें तो इन बाघों की मौतों के पीछे जंगल में बाघों की बढ़ती तादाद और उनका दूसरे वन्यजीवों के साथ दिनोंदिन बढ़ता संघर्ष है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि बाघों को बाहरी लोगों के मुकाबले अपनों से ज्यादा खतरा है। विशेषज्ञों का इस बारे में मानते हैं कि जिन बाघों की मौतों की जांच एनटीसीए ने अध्ययन के बाद बंद कर फाइनल रिपोर्ट लगा दी है उनमें 70 फीसदी से ज्यादातर बाघों की मौत आपसी संघर्ष और दूसरे वन्यजीवों के हमलों के कारण हुई है। वह बात दीगर है कि वन विभाग जंगल में हुई इन बाघों की मौतों को प्राकृतिक मौत करार देता है। उसके अनुसार इनमें बीमारी, बढ़ती उम्र यानी बूढ़ा हो जाना, आपसी संघर्ष व दूसरे वन्यजीवों के हमले अहम हैं। एनटीसीए का मानना है कि यह तब है जबकि बाघों के शिकार पर काफी हद तक वन अधिकारियों और पुलिस बल की चुस्ती और कड़ी मेहनत के बलबूते अंकुश पा लिया है।
जहां तक अभयारण्यों का सवाल है, उत्तराखंड स्थित कार्बेट टाइगर रिजर्व बाघों के घनत्व के मामले में समूचे देश के टाइगर रिजर्व में शीर्ष पर है। कुल 1288.31 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस टाइगर रिजर्व में तकरीबन 260 बाघ हैं। यहां भी पिछले चार सालों में 29 बाघ बढ़े हैं। साल 2014 में यह तादाद 215 थी। आंकड़ों के मुताबिक, साल 2018 के बाद यहां बाघों की संख्या 12.5 फीसदी बढ़ी। जबकि साल 2021 से पाखरो टाइगर सफारी को लेकर कार्बेट टाइगर रिजर्व लगातार चर्चा में रहा। टाइगर सफारी के लिए अनुमति से ज्यादा यहां पर बड़े पैमाने पर पेड़ों का कटान, बिना अनुमति कालागढ़ व पाखरो वन क्षेत्र में अवैध निर्माण का मामला काफी दिनों तक अखबारों की सुर्खियों में रहा। गौरतलब है कि प्रकरणों की काफी जद्दोजहद के बाद हुई जांच में इन मामलों की पुष्टि हुई थी। इसके बाद बाघों के वास स्थलों का भी मामला काफी चर्चित रहा। यहां इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि उत्तराखंड में 2018 की गणना में कुल मिलाकर 441 बाघ थे जो 2022 में बढ़कर आंकड़ा 560 के पार जा पहुंचा। राज्य में टाइगर रिजर्व क्षेत्र में पेड़ों के अंधाधुंध अवैध कटान, वन विभाग की 2171 बीघा जमीन भूमाफिया और अधिकारी व वन विभाग की मिलीभगत के चलते बेच दिए जाने और वनक्षेत्र व रिजर्व में अवैध निर्माण के बावजूद जहां बाघों की तादाद में बढ़ोतरी महत्वपूर्ण उपलब्धि है, वहीं इस रिजर्व में चुनौतियां भी काफी बढ़ी हैं जिनसे पार पाना वन विभाग के लिए आसान नहीं है।
यह भी गौरतलब है कि बाघों की बढ़ती मौतों की असली वजह उनकी तेजी से बढ़ती तादाद और अपने क्षेत्र में दूसरे का प्रवेश बर्दाश्त न कर पाना तो है ही, आपसी संघर्ष भी है, इसमें बीमार, बूढ़े और अशक्त हो चुके बाघों पर अस्तित्व की खातिर युवा बाघों के हमले भी अहम हैं जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। एनटीसीए बाघों के शिकार पर लाख अंकुश का दावा करे देश में आये दिन बाघों की खाल, अंगों सहित वन्यजीव तस्करों की गिरफ्तारी, उनकी मौतों के बढ़ते आंकड़े सबूत हैं कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। वह बात दीगर है कि केन्द्र सरकार द्वारा वन्य जीवों को बचाने की खातिर वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम 2022 अधिनियमित किये जाने के फलस्वरूप पुराने कानूनों में बदलाव के सार्थक परिणाम सामने आने लगे हैं । वहीं वन्यजीवों व वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन, साइट्स के तहत भारत पर दायित्वों को और प्रभावी बनाने का दबाव भी बढ़ा है। यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र के लिए जीवों और वनस्पतियों, पौधों की विविधता का स्वस्थ होना बेहद जरूरी है। इनमें मानवीय भूमिका के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन इसके लिए वन्यजीवों के साथ संघर्ष, उनके शिकार पर अंकुश तथा जीवों और वानस्पतिक विरासत के प्रति हमारा संवेदनशील रवैया बेहद जरूरी है।