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ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ निर्णायक जंग अभी बाकी

06:26 AM Jan 02, 2024 IST

पंकज चतुर्वेदी

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मध्य प्रदेश की नई सरकार के गठन के बाद विभिन्न धार्मिक स्थलों से अभी तक करीब 28 हजार ध्वनि विस्तारक यंत्र यानी लाउडस्पीकर उतारे जा चुके हैं, वहीं हजारों लाउडस्पीकरों की आवाज भी कम करवा दी गई है। यह कदम महज बेवजह के शोर के खिलाफ ही नहीं है, यह धर्म-सम्मत भी है और पर्यावरण संरक्षण के लिए अनिवार्य भी। हालांकि समय-समय पर अदालतें इस बारे निर्देश देती रही हैं लेकिन पहले उत्तर प्रदेश और अब मध्य प्रदेश सरकार की प्रबल इच्छा शक्ति से इस दिशा में ठोस फैसले लागू किये। फिर भी यह ध्वनि प्रदूषण के बढ़ते खतरे के बीच कोई निर्णायक जंग नहीं है। नए साल की रात में ही देश के छोटे से कस्बे से लेकर महानगर तक डीजे, कार में संगीत और आतिशबाजी ने करीब एक घंटे शोर कर कानूनों को बुरी तरह ठेंगा दिखाया। अभी भी सड़कों पर जुलूस या फिर विवाह आदि की आड़ में कानफोडू डीजे बजाने पर पाबंदी नहीं है।
एक बात समझनी होगी कि ध्वनि से उत्पन्न पर्यावरण-संकट किसी भी स्तर पर वायु प्रदूषण से होने वाले नुकसान से कम नहीं है। यह शारीरिक और मानसिक दोनों किस्म के विकार का जनक है। इंसान के कानों की संरचना कुछ ऐसी है कि वे एक निश्चित सीमा के बाद ध्वनि की तीव्रता को सह नहीं सकते। जानवर और पशु-पक्षी तो इस मामले में और अधिक संवेदनशील हैं। आवाज़ की तीव्रता को मापने की इकाई ‘डेसीबल’, है। हमारे कानों के लिए 45 डेसीबल से अधिक की आवाज खतरनाक है। एक फुसफुसाहट लगभग 30 डीबी है, सामान्य बातचीत लगभग 60 डीबी, और मोटरसाइकिल इंजन का चलना लगभग 95 डीबी है। लंबे समय तक 70 डीबी से ऊपर का शोर आपकी सुनने की क्षमता को नुकसान पहुंचाना शुरू कर सकता है। वहीं 120 डीबी से अधिक तेज़ शोर आपके कानों को तत्काल नुकसान पहुंचा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था-आप किसी शोर को सुनना चाहते हैं या नहीं, यह तय करने का आपको पूरा अधिकार है लेकिन सड़क पर चीखते-चिल्लाते लोगों या साझा तिपहिया में बजते कानफोड़ू स्टीरियो आदि को इस आदेश की कतई परवाह नहीं।
ध्वनि प्रदूषण से हमारे सुनने का तंत्र तो क्षतिग्रस्त होता ही है, हमारी धमनियों के सिकुड़ने का भी खतरा होता है। अनिद्रा, एसिडिटी, अवसाद, हाई बीपी, चिड़चिड़ापन तो होता ही है। जर्मनी के ड्रेस्डन यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के आंद्रियास सिडलर ने शोध में बताया कि यातायात के शोरगुल से हृदयाघात का खतरा बढ़ जाता है।
कुछ साल पहले जबलपुर हाईकोर्ट ने जीवन में शोर के दखल पर गंभीर फैसला सुनाया था, जिसके तहत त्योहारों में सार्वजनिक मार्ग पर लाउडस्पीकरों को प्रतिबंधित कर दिया था। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अजय माणिकराव खानविलकर व जस्टिस शांतनु केमकर की डिवीजन बेंच ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद आदेश किया था कि त्योहार या सामाजिक कार्यक्रम के नाम पर अत्यधिक शोर मचाकर आम जनजीवन को प्रभावित करना अनुचित है। हाईकोर्ट ने मध्यप्रदेश कोलाहल निवारण अधिनियम-1985 की धारा-13 को असंवैधानिक करार दिया। हाईकोर्ट ने आदेश में कहा कि किसी के मकान या सड़क किनारे लाउडस्पीकर-डीजे आदि के शोर से न केवल मौलिक मानव अधिकार की क्षति होती है बल्कि आसपास रहने वालों को बेहद परेशानी होती है। लिहाजा, अधिनियम की जिस धारा का दुरुपयोग करते हुए लाउड स्पीकर आदि बजाने की अनुमति हासिल कर ली जाती थी, उसे असंवैधानिक करार दिया जाता है। लेकिन उस आदेश पर सटीक अनुपालन हुआ नहीं।
एक बात और, किसी भी धर्म का दर्शन कोलाहल या अपने संदेश को जबरिया लोगों तक पहुंचाने के विरुद्ध है। इस तरह धार्मिक अनुष्ठान में भारी भरकम लाउडस्पीकर की अनिवार्यता की बात करना धर्म-संगत भी नहीं है। कुरान शरीफ में लिखा है- यदि कोई शख्स दूसरे धर्म में यकीन करता है, तो उसे जबरन अपने धर्म के बारे में न बताएं। इसी तरह गीता रहस्य के अठारहवें अध्याय के 67-68वें श्लोक में कहा गया है- गीता के रहस्य को ऐसे व्यक्ति के समक्ष प्रस्तुत नहीं करना चाहिए जिसके पास इसे सुनने का या तो धैर्य न हो या जो किसी स्वार्थ-विशेष के चलते इसके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट कर रहा है या जो इसे सुनने को तैयार नहीं है।
ऐसा नहीं है कि ध्वनि प्रदूषण पर कानून नहीं हैं, लेकिन कमी है कि उन कानूनों का पालन कौन करवाए। अस्सी डेसीबल से ज्यादा आवाज न करने, रात दस बजे से सुबह छह बजे तक ध्वनि विस्तारक यंत्र का इस्तेमाल न करने, धार्मिक स्थलोंं पर तय ऊंचाई से अधिक पर भोंपू न लगाने, अस्पताल-शैक्षिक संस्थाओं, अदालत के आसपास लाउडस्पीकर का इस्तेमाल न करने जैसे ढेर सारे नियम व उच्च अदालतों के आदेश सरकारी किताबों में दर्ज हैं, लेकिन सियासी दबाव में ये सब बेमानी हैं।
धार्मिक स्थलों से भोंपू उतरवाना या उनकी आवाज काम करना एक शुरुआत तो है लेकिन जब तक सड़क पर हो रहे आए दिन के जलसे-जुलूस-सामाजिक-धार्मिक आयोजनों में शोर के खिलाफ सशक्त शोर नहीं मचाया जाता, शोर इंसान ही नहीं, प्रकृति को भी हानि पहुंचाता रहेगा।

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