स्वच्छता की संस्कृति
जागरूक करें
स्वच्छता का अर्थ है स्वयं और पर्यावरण को हानिकारक तत्वों जैसे कीटाणुओं और गंदगी से मुक्ति देना। दरअसल, स्वच्छता को अपनाकर ही हम रोगों से मुक्ति पा सकते हैं व पर्यावरण शुद्ध रख सकते हैं। ऐसे में सरकार सार्वजनिक व गैर सरकारी संस्थाओं के जरिये गंदगी पर रोक लगाये। स्कूल-काॅलेजों में विद्यार्थियों को स्वच्छता के प्रति जागरूक करें। स्वच्छता मिशन जन सहयोग से ही कामयाब होगा। वहीं अधिकाधिक पौधे लगाने चाहिए। सूखा व गीला कचरा अलग-अलग रखें। यह भी कि वर्ष 2022 के पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में भारत का स्थान अंतिम रहा जो चिंता का विषय है।
नैन्सी धीमान, अम्बाला शहर
जन भागीदारी
महात्मा गांधी की जयंती पर स्वच्छता पखवाड़े में लोगों का भरपूर सहयोग उत्साहित करने वाला रहा। लेकिन स्वच्छता के लिए सिर्फ एक दिन या पखवाड़ा काफी नहीं बल्कि साफ- सफाई दिनचर्या का अंग हो। इसके लिए सफाई कर्मियों का उत्साहवर्धन भी आवश्यक है। वहीं देश में कोई भी अभियान जनसहभागिता के बगैर सफल नहीं हो सकता। इसलिए सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देकर इसे जन अभियान का रूप देना होगा। सार्वजनिक स्थानों की सफाई व्यवस्था की जिम्मेदारी नगर निकाय की होती है लेकिन हमें कूड़ा-कर्कट न गिराकर नागरिक कर्तव्य का निर्वहन करना होगा। जब देश का हर नागरिक स्वच्छता के प्रति सजग रहेगा तभी देश स्वच्छ बन सकता है।
सोहन लाल गौड़, कैथल
आदत बने
भगवानदास छारिया, इंदौर
व्यापक सोच
पूनम कश्यप, नयी दिल्ली
जागरूकता समितियां
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल
नजरिया बदलें
स्वच्छता की संस्कृति तभी विकसित होगी जब हम स्वच्छता के प्रति अपनी सोच स्वच्छ करेंगे। जब तक देश के सभी नागरिक स्वच्छता को अपना परम धर्म नहीं मानते, और देश के स्थानीय सत्ताधारियों और राजनेताओं के विचारों में लोकसेवा-देशसेवा-समाजसेवा की स्वच्छता नहीं आती, तब तक हमारे देश के शहरों और गांवों में भी गंदगी का आलम रहेगा। आज भी देश में बहुत से सार्वजनिक स्थानों पर भी कूड़ादान और बाथरूम नहीं हैं। स्वच्छ भारत का सपना तभी पूरा होगा जब आमजन और सत्ताधारी साफ-सफाई के लिए गंभीरता दिखाएंगे। स्वच्छ भारत के लिए जरूरी है कि शासन-प्रशासन आमजन को साफ-सफाई की मूलभूत सुविधाएं प्रदान करवाने में कोई कमी न छोड़े।
राजेश कुमार चौहान, जालंधर
पुरस्कृत पत्र
स्वभाव में हो सफाई
स्वच्छता की संस्कृति का विकास स्वच्छता की अवधारणा को आत्मसात् किए बिना संभव नहीं। स्वच्छता चूंकि स्वस्थ परिवार और सामुदायिक विकास का प्रमुख संकेतक है, इसलिए इस समस्या पर समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से ही दृष्टिपात किया जाना आवश्यक है। स्वच्छता जब तक हमारा स्वभाव नहीं बन जाती, तब तक यह कोई प्रभाव भी नहीं छोड़ सकती। धार्मिक आयोजनों में भण्डारों के उपरांत भण्डार स्थल पर इधर-उधर फेंके गये डिस्पोज़ेबल गिलास और थर्मोकोल की थालियां स्वच्छता के प्रति हमारे सतही दृष्टिकोण का खुलासा करने के लिए पर्याप्त हैं। आंतरिक शुद्धि से संचालित क्रियाकलाप ही सही अर्थों में स्वच्छता के विकास को परिभाषित करेंगे।
ईश्वर चन्द गर्ग, कैथल