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रूह का रुदन

08:21 AM Sep 10, 2023 IST
रूह का रुदन
चित्रांकन : संदीप जोशी
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विश्व ज्योति धीर

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बड़े शहर का श्मशान घाट। कई चबूतरों पर धूं-धूं जलती चिताएं। चीखें, विलाप, स्यापा। मैंने सुना था, नरकों में ऐसी डरावनी आवाज़ें आती हैं। कहीं आग की लपटें उठती हैं, कहीं रूहें आग में तड़पती हैं। चीखती-चिल्लाती हैं। यह कोई नरक का दृश्य है? परंतु आज मैं नहीं चीख रही थी। मुझे क्यों सुकून महसूस हो रहा है? मेरे ज़ख़्मों का दर्द आज किधर गया? सिलेंडर फटने से मेरी आधी जली देह पिछले दो महीनों से बेड पर तड़प रही है। ज़ख़्मों के अंदर पड़े कीड़े जब कुलबुलाते तो मुझे यूं प्रतीत होता जैसे गिद्धें मेरा मांस नोंच रही हों। दर्द भरी कराहें तीसरे घर तक सुनाई देतीं और सतीश भी मेरे साथ रोने लग पड़ता। पर आज तो मुझे कोई दर्द नहीं हो रहा। फिर सतीश क्यूं बेज़ार रो रहा है? मां से लिपटकर बच्चों की भांति बिलख रहा है? मां भी दोहत्थड़ पीटे जा रही है, ‘शील बेटा, उठकर देख ज़रा... हम बर्बाद हो गए। मेरे बेटे का घर बर्बाद हो गया। शील तेरे बच्चे आज बे-मां हो गए।’ मां मेरा नाम लेकर क्यों रो रही है? मुझे क्यों पुकारे जा रही है? मुझे तो बमुश्किल आराम मिला था, कई महीनों के दर्द के बाद।
एक गहरी नींद। क्या मैंने सपना देखा? इन चीखों और विलाप ने मुझे जगा दिया। ये तो सभी मुझे ही रो रहे हैं। मैं कहां हूं? मैं खुद अपने शरीर को देख रही हूं। यह तो उसी तरह सड़ा-गला बू मारता है, पर मुझे दर्द से निजात मिल गई है। नहीं, मैं इतनी जल्दी नहीं मर सकती। मेरे तो छोटे-छोटे बच्चे हैं। सतीश! सतीश! देखो, तुम्हारी शील तुम्हारे सामने है। मैं कहीं नहीं गई। मैं तो सो गई थी। कुछ पल के लिए। दर्द से छुटकारा मिल गया। बस, चैन पड़ गया और मेरी शायद आंख लग गई। सतीश मुझे देख-सुन नहीं रहा है। बूढ़े लोगों का बड़ा हुजूम। सफेद दुपट्टों से स्त्रियों के ढंके हुए चेहरे। धांहें मारती हुई स्त्रियां। मुझ मरी पड़ी के लिए छाती पीट रही हैं। मेरे जिगर के टुकड़े इस भीड़ में किधर गए? मैं तड़प उठी। दौड़ पड़ी, भीड़ में। हिम्मत, मेरा बड़ा बेटा। वह पापा जी के कंधे से लगकर हिचकियां भर-भर के रोये जा रहा है। हाथ में गुलाब का फूल। वही फूल जिसे कल शाम वह बगीचे में से तोड़ लाया था। आज उसका पांचवीं कक्षा का रिजल्ट आना था। उसने कहा था, ‘ममा, मैं पास हो जाऊंगा, इसलिए मुझे अपनी मैडम को ये गुलाब का फूल देना है।’ मैं गुस्सा हुई थी। ‘हिम्मत, फूल नहीं तोड़ा करते। ये तो टहनी पर सुन्दर लगते हैं। अब तो यह जल्दी मुरझा जाएगा।’
‘मम्मी, मैं इसे दुबारा नहीं जोड़ सकता?’ हिम्मत ने भोले-से मुंह से मुझसे पूछा था।
‘नहीं बेटा, एक बार जो फूल टहनी से अलग हो जाता है, वह फिर नहीं जुड़ता।’
हिम्मत के हाथ में से फूल गिर पड़ा। गुलाब के फूल को दुनिया की भीड़ ने अपने पैरों तले मसल दिया। मेरा छोटा बेटा - नवदीप। नवी... किधर है तू? मेरी रूह तड़प रही है। अपने चार वर्षीय नवी को मैं इधर-उधर खोज रही हूं। वह खड़ा होकर गुब्बारे और झंडियों से सजाई अर्थी को देख रहा है। शायद यह किसी पूरी उम्र भोगे हुए व्यक्ति की अर्थी होगी। अर्थी के साथ बज रहे बाजे सुनकर नवी तालियां बजा रहा है। उसे नहीं पता, अपनी मां के बिछड़ने के क़हर का। मैं उसके करीब हो गई। नवी ने अर्थी के ऊपर से फेंकी गई खील उठाकर मुंह में डाल ली। नवी बेटा, तू भूखा होगा। नवीं, ममा को सुन रहा है? नहीं सुन रहा। नहीं देख रहा। लगता है, भूखा है। उसे सतीश ने गोद में उठा लिया। मैं सतीश के साथ साथ चल पड़ी। उसकी आंसुओं से भरी आंखें और बिखरे बाल। जैसे कोई फकीर। बेबस, लाचार। मुझसे सहन नहीं हो रहा। सतीश! सतीश! सुनो मुझे। तुमने मुझे संभाला, गली-सड़ी बदबू मारती को। तुम्हें कभी घिन नहीं आई। फिर ईश्वर ने तुम्हारी सेवा देखकर मुझे ठीक क्यों नहीं किया? मुझे अपनी बच्चों के संग और रहने का अवसर क्यों नहीं मिला? मेरे बच्चे, मृत मां के लाडले तुम्हें पूछेंगे। ममा कहां गई, तुम क्या जवाब दोगे? सतीश को इस रूह की वेदना का अहसास नहीं था। वह क्या कहेगा बच्चों से? शायद रात को आकाश में तारों में से कोई तारा दिखा देगा - वो देखो, ममा तारा बन गई। अरे, यह कौन धरती पर लोट-लोट कर चीख रहा है? मेरी छोटी बहन। मेरे ही शहर में रहती थी पर मेरे कीड़े भरे बू मारते शरीर के पास कभी नहीं आई। एक दिन आई थी। नाक पर रूमाल रख उल्टी कर दी। दुबारा नहीं आई और आज सबसे ज्यादा रो-चीख रही है। दूसरी तरफ बड़ी बहन। जो भी मिलता है, उसके गले लगकर विलाप करने लगती है। यह रो नहीं रही, मौका देखकर ऐसा कर रही है। मुझसे अक्सर ही कहती रही, अच्छे-बुरे वक्त बंदे को मौका देखना चाहिए। यह तो अपनी गृहस्थी में फुर्सत से थी। सतीश ने बड़ी बहन से मिन्नतें भी कीं कि कुछ दिन हमारे यहां भी बिता जाए। बच्चे छोटे हैं। पर मेरी बहन जी को वक्त कहां। सत्संगों, तीर्थों और मंदिरों से ही फुर्सत नहीं। इसको भी मेरे से बू आती थी। मेरी मां जाइयों का खून सफेद था। पर मेरे बच्चों को तो मुझसे कभी बू नहीं आई। वे भी तो मेरे इर्द-गिर्द रहते थे। एक कोने में खड़ा है, मेरा भाई और भाभी भी। ज़ार-ज़ार रो रहे हैं। भाभी वैण-स्यापा नहीं कर रही। वह हिम्मत को सीने से लगाकर आंसुओं का समुंदर बहा रही है। मुझे पता है, वह सामाजिक दिखावे की खातिर मौका रखने वालों में से नहीं है। यदि कोई मेरी खैर-ख़बर लेने आए थे तो यही मेरा वीर, मेरी हालत देखकर बुक्का फाड़कर रो पड़ा था। जब भी आता तो दवा-दारू का इंतज़ाम करता। सतीश को हौसला देता। रोज़ फोन करता। रुपये-पैसे से भी सतीश की मदद की। पर मैं जानती हूं, इनके आंसुओं का झूठे विलाप के आगे कोई मूल्य नहीं। मेरे भाई ने मेरे रिश्ते का मूल्य ज़रूर रखा था। बहुत-सी औरतें तो अपने मरे हुओं को याद करके रोती-पीटती थीं। मेरे बिल्लोरों जैसे सहमे बच्चों को किसी ने छाती से नहीं लगाया। ये रिश्ते रोने-धोने के कारण अब चुप हैं और दुनियादारी की बातों में उलझ चुके हैं। मैं दौड़ती-भागती हरेक के पास जाती हूं। शायद मुझे कोई देखे, सुने, महसूस करे। बड़ी मौसी ने तो एक जनानी की चुन्नी पकड़ ली, ‘री बहन, ये लैस बड़ी सुन्दर लगाई है। कहां से लाई? मुझे भी लेकर भेज देना। सफेद दुपट्टे में लगाऊंगी। कहीं अच्छी-बुरी जगह पर गले में डालना पड़ता दुपट्टा तो अच्छा लगता है।’ मेरी पड़ोसिनें, मेरे रिश्तेदारों के साथ सतीश के दूसरे विवाह की योजनाएं भी बनाने लग पड़ी हैं। मेरे हिम्मत और नवी के लिए दूसरी मम्मी लाएंगी।
मेरी देह लकड़ियों पर रख दी गई है। मेरी रूह कांप गई। ठहरो! ठहर जाओ! मैं शोर मचाती हूं। कौन ठहरेगा। समय कभी रुकता नहीं। ठहर तो मैं गई। राह तो मेरा खत्म हो गया। मेरे बेटे हिम्मत को चिता में आग देने के लिए आगे कर दिया गया। वह ज़ोर-ज़ोर से रो रहा है, ‘पापा... मम्मी को आग नहीं लगानी... मम्मी को दर्द होगा। मम्मा को मैं आग नहीं लगाऊंगा।’
‘बेटा, यह तो रस्म है।’ बड़ी बहन को समझदारी दिखानी थी, उसने आगे बढ़कर हिम्मत को आग देने के लिए कहा है। चिता जल उठी है। हिम्मत आंसू बहाता रहा। लपटें ऊपर से ऊपर उठने लग पड़ीं। चिंगारियां उठ रही हैं, हवा में उड़ती हैं, फिर बुझकर धरती पर राख बनकर गिर पड़ती हैं। सभी ने मेरी जलती चिता से पीठ घुमा ली है। क्या हैं ये लोग? सब अजूबे हैं। असली मुर्दे हैं। चलते-फिरते। पर बिना अहसास के...।
स्त्रियों ने ठंडे पानी से आंखें धो लीं। हर एक ने धरती की कोख में से एक तिनका उखाड़ा। फिर दो टुकड़े करके सिर के पीछे फेंक दिया। मेरी ओर पीठ करके। फिर मुड़कर नहीं देखा। इन्होंने तिनका नहीं तोड़ा, मृत शील से रिश्ता तोड़ दिया। ये टूटे हुए तिनके मेरी रूह में चुभ गए। कांच की किरचों की तरह। मेरी रूह को ज़ख़्मी कर गए। लोग श्मशान में से बाहर चले गए हैं। एक पल में ही बदल गए। उनकी बातें भी बदल गईं। कितनी बेपरवाह होती है ज़िन्दगी और कितनी तड़प भरी होती है अनआई मौत। सतीश और बच्चे अभी भी मेरी जलती हुई चिता देख रहे हैं। सतीश ने हिम्मत की उंगली पकड़ ली। भाई ने नवी को गोद में उठा लिया। वे भी चल पड़े। मुझसे दूर। मैं तड़प रही हूं। साथ जाना चाहती हूं, पर जकड़ी हुई हूं। भाग नहीं सकती। मैं अब कहां जाऊंगी? मुझे तारों की भीड़ में शामिल नहीं होना। मैं तो यहीं रुदन करूंगी। यही भटकती रहूंगी। पर कितनी देर? कब तक? शायद तब तक तड़पूंगी जब तक मेरे बेटे घोंसले में से उड़ने योग्य नहीं हो जाते। जब तक वे अध-नंगे, अधभूखे सोएंगे, मैं रुदन करती रहूंगी।

अनुवाद : सुभाष नीरव

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