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साढ़े सात दशक तक कलम के सारथी मनमोहन का सृजन

07:06 AM Mar 03, 2024 IST
साढ़े सात दशक तक कलम के सारथी मनमोहन का सृजन
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फूलचंद मानव
शताब्दियां किनकी मनाई जाती हैं? व्यक्तित्व हों या स्मारक, शताब्दी की ओर अग्रसर होते ही उनके बीते कल, वर्तमान और आने वाले कल पर चर्चाएं शुरू हो जाती हैं। साहित्य, समाज या प्रतिदिन की जीवनशैली में आपको झांकना पड़े, तो बहुत कुछ ताजा, अनछुआ नरोया भी सामने आने लगता है। मैं पटियाला पहुंचा तो प्रोफेसर मनमोहन सहगल मुझे बांहों में संभाल, छाती से लगाते, आशीर्वाद देते हैं। यह मेरे भावुक पल हैं।
घर में भीतर आते ही विशाल पुस्तकालय, अलमारियों में सजी-संवरी किताबें, फाइलें आमंत्रण दे रही हैं। साढ़े सात दशक की दीर्घ साहित्यिक यात्राओं में मनमोहन सहगल ने जालंधर, दिल्ली के बाद गुजरात, कुरुक्षेत्र और पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में पढ़ाया है। यूं कहें कि तीन-चार पीढ़ियों का साहित्यिक निर्माण किया है। मनमोहन सहगल मेरे या मेरे जैसे सभी आत्मीय दोस्तों के वास्ते एक शानदार व्यक्तित्व को लेकर उम्र की शताब्दी की ओर अग्रसर हैं। हां, उनका उपन्यासकार, समालोचक, इतिहासकार, शोध निर्देशक, पांडुलिपियों का गुरुमुखी और देवनागरी में दिग्दर्शन करवाता विद्वान, आज एक ही व्यक्तित्व में अनेक कृतित्व को समाए घर में पीठासीन है।
मनमोहन सहगल परिवार में अपनी चौथी पीढ़ी के साथ दैदीप्यमान है। आवाज में तनिक खरखरापन, हाथ में स्टिक और चेहरे की लौ बचाए, वे मुखर हैं। तिरानवे (93) वसंत देख चुके सहगल साहिब की अर्द्धांगिनी श्रीमती विजय भी चेहरे की स्मित रेखा की 88 लहरें रोशन करती जान पड़ती हैं। ‘अपनी स्टडी’ भला किसे प्रियकर नहीं लगती। सहगल जी मुझे अपने छपवा चुके चौबीस उपन्यास, पच्चीसवें नये नावेल के हस्तलिखित 36 पृष्ठ दिखाकर कथानक समझा रहे हैं। लव जेहाद। हर उपन्यास की अलग और उत्तम पृष्ठभूमि।
लोग काशी, द्वारिका, अयोध्या जाकर अपना तीर्थ मनाते हैं। मैं अपने तीर्थ को ही पटियाला से जीरकपुर-ढकौली ला रहा हूं। गाड़ी में योगेश्वर जी के साथ गुरु माता, बहिन विजय बातों में व्यस्त हैं। दोनों निखरे चेहरों पर ताजगी झलकी है। वही दरो दीवार खिड़‌कियां, पर्दे, रसोई और चाय का वही स्वाद, बदलाव चाहता है। धारा-प्रवाह संवाद में मनमोहन सहगल और मैं भी बोलते बतियाते आये हैं। एक अलग अपने-से माहौल में सहगल दम्पति ने चरण आ टिकाए हैं जीरकपुर मेरे घर में।
पंजाब यूनिवर्सिटी, स्टूडेंट सेंटर का कॉफी हाउस वाला टॉवर, गोल सीढ़ियां, रैंप से ऊपर खींचता है, तो अध्यापन युग का पुराना चैप्टर आगे आ रहा है। उम्र के पैंतालीस साल मानो पीछे घूम जाते हैं। मीठी धूप, सहज-सरल हवा और छात्र-छात्राओं का बड़ा हुजूम, हमें भी अपने अपने छात्रकाल में ले जा रहा है। भाई वीर सिंह हॉस्टल, पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला का 1979-80 का ‘मैस’ याद आया, जहां परेश, चंद्रशेखर, ब्रजमोहन शर्मा, हुकुम चंद राजपाल की संगत में मेरा हॉस्टल-प्रवास हसीन कहलाता था।
प्रसंग डॉ. परेश की होनहार बेटी लतिका शर्मा का उभर आया। पीयू के शिक्षा विभाग में प्रोफेसर विभागाध्यक्ष रहने के बाद एलूमनी-डीन के पद पर हैं। सैनेट सिंडिकेट के पदों पर भी। उनके विभाग में गए तो मुलाकात न हो पाई। मीटिंग में थीं। फोन नम्बर पाकर सहगल दम्पति से बात करवाई तो बचपन, यौवन, छात्रावास सभी खिल खुल उठे।
हिन्दी, पंजाबी विभागों के संकाय सदस्यों के दफ्तरी कमरों को ताले ठुके देखकर मनमोहन सहगल के साथ मैं भी नीचे आ पहुंचा। अब क्या होगा? रोज़ गार्डन, सुखना सरोवर का मार्ग तय करते थकान उभर आई थी। हम ठंड से पहले शाम घिरते ढकौली आ पहुंचे।
अगला दिन। एक नई सवेर। डबल बेड की चादरें, बड़ी प्लेटें, चाकू, पेपर नेपकिन संभाले, योगूजी गाड़ी में पिकनिक का सामान भरवा रही थी। फलाहार, चना-चबैना और भारी-भरकम थर्मसों के साथ तरुण बजाज हमारे सारथी चिप्पड़चिड़ी के रास्ते पर गाड़ी भगाते नजर आए। हमारे मानववादी दोस्त मनोज मलिक, गम्भीर पाठक, साहित्य रसिया हैं। ‘इहु जनमु तुमारे लेखे’ आत्मकथात्मक उपन्यास पढ़कर सहगल सर से बतियाने, सवाल पूछने पर उतारू थे। आन मिले सीधे चप्पड़चिड़ी के पिकनिक स्पॉट पर ही।
मनमोहन सहगल अपनी औपन्यासिक जीवनी के आधार पर सिर्फ शांत ही नहीं रहे थे, खोजी प्रवृत्ति के पाठक को भी शांत करते जा रहे थे। ई. सं. 2012 में ‘पंजाब में रचित हिंदी साहित्य का इतिहास’ 1500 पृष्ठों में प्रकाशित, दो बृहत खंडों में निर्मल पब्लिकेशंस, शाहदरा, दिल्ली से आया, तो उत्तर क्षेत्रीय भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर, अध्यक्ष, संपादक आलोचक ही नहीं, मनमोहन सहगल के दोस्त और दुश्मन भी दांतों तले अंगुलियां दबा रहे थे कि इतना समय, श्रम, प्रतिभा और लगन, ये कहां से खर्च कर रहे हैं? सन‍् 1993 ई. से 2012 तक के पंजाब साहित्येतिहास को जिस तरह काल-खंडों में विभाजित करके मनमोहन सहगल ने व्यवस्थित किया, अभूतपूर्व कहलाया है।
चार खंडों में उपलब्ध मनमोहन सहगल रचनावली, श्रीगुरुग्रंथ साहिब का सम्पूर्ण हिन्दी टीका, चार जिल्दों में, गुरुमुखी में उपलब्ध हिन्दी की पांडुलिपियों की खोजें, लिप्यांतरण एवं सम्पादन, साहित्येत्तर-विषयांतर पर दर्जनभर कृतियां, मौलिक उच्चस्तरीय आलोचनात्मक तीन दर्जन पुस्तकें, किशोरोपयोगी रचनाओं-पुस्तकों के साथ प्रो. सहगल के 24 उपन्यास गवाह हैं कि पंजाब रत्न, राष्ट्रीय अलंकरणों से चार बार विभूषित मनमोहन सहगल की आत्मकथा, उपन्यास शैली में इनके दीर्घ साहित्यिक अवदान पर मोहर लगाने वाले काम हैं। सन‌् 1932 के 15 अप्रैल को जालंधर में जन्म लेने वाले बालक मनमोहन 1984 में राष्ट्रीय प्रोफेसर हुए। विश्वविद्यालय अनुदान द्वारा स्वीकृत पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के फैलो, अभी रचना स्तर, जीवन गति और प्रतिभाशीलता के चतुर्दिक आलोक में अपनी आयु की शताब्दी की ओर अग्रसर और गतिशील हैं। उनके असंख्य शिष्य, सहयोगी, पाठक और मित्र प्रार्थनारत हैं कि मनमोहन स्वस्थ, प्रसन्नचित्त, प्रभावोत्पादक जीवन को सफल, सार्थक करेंगे।

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