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संवैधानिक प्रावधान और अस्मिता के प्रश्न

06:42 AM Dec 26, 2023 IST

जयसिंह रावत

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वर्षान्त में मूल निवास व मजबूत भूमि कानून की मांग को लेकर देहरादून में आहूत महारैली में जिस तरह जनसैलाब उमड़ा उसे उत्तराखण्ड की जनता की भावनाओं का उद्वेग ही कहा जा सकता है। कहीं-न-कहीं जनभावनाओं का यह उफान फिलहाल लोगों की संास्कृतिक पहचान के लिये ज्यादा लगता है। जमीनों की खरीद-फरोख्त पर मजबूत भू-कानून के जरिये रोक लगाने की मांग भी पहाड़ी लोगों की सांस्कृतिक पहचान अक्षुण रखने के लिये ही है। लेकिन मूल निवास का मुद्दा अन्ततः नौकरियों और अन्य सरकारी सुविधाओं तक ही पहुंचेगा, जिसे संवैधानिक रुकावटों से गुजरना होगा। संविधान अपने नागरिकों को समानता के मौलिक अधिकार के साथ राज्य के अधीन किसी भी पद के संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान, निवास या इसमें से किसी आधार पर भेदभाव की स्पष्ट मनाही करता है।
सवाल केवल उत्तराखण्ड के मूल निवास आन्दोलन तक सीमित नहीं है। मध्य प्रदेश की पूर्ववर्ती शिवराज सिंह चौहान सरकार द्वारा जन्म के आधार पर राज्यवासियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण की घोषणा की जा चुकी थी। मूल निवास के आधार पर विरोध और समर्थन की बहसों के बावजूद कुछ राज्यों में जन्म के आधार पर और कुछ में भाषा के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था लागू हो चुकी है। आरक्षण का मुद्दा एक संवैधानिक विषय है, विभेद विहीन समान अवसरों की गारंटी देने वाले अनुच्छेद 16 के उपखण्डों में संशोधन संसद ही कर सकती है।
मूल निवास या जन्म के आधार पर आरक्षण की बात उठती है तो संविधान के अनुच्छेद 16के उपखण्डों का जिक्र आवश्यक है। संविधान में अनुच्छेद-16 सरकारी नौकरियों में अवसर की समानता को संदर्भित करता है जबकि अनुच्छेद 16(1) राज्य के अधीन किसी भी पद पर रोजगार या नियुक्ति से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों के लिए अवसरों की समानता की गारंटी देता है। अनुच्छेद 16(2) स्पष्ट करता है कि कोई भी नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान, निवास के आधार पर राज्य के तहत किसी भी रोजगार या कार्यालय के लिए अयोग्य नहीं होगा या उसके साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन अनुच्छेद 16(3) इन कानूनों को अपवाद प्रदान करता है। इसमें कहा गया है कि संसद उस राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के भीतर निवास के किसी विशेष स्थान की आवश्यकता निर्धारित करने वाला कोई भी कानून बना सकती है जिसमें सार्वजनिक पद या रोजगार हो। इसका मतलब यह है कि जन्म स्थान के आधार पर सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण के बारे में निर्णय केवल भारत की संसद ही ले सकती है, किसी राज्य की कोई विधायिका नहीं। संसद अब तक इस प्रावधान का लाभ आंध्र प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश को दे चुकी है। कुछ राज्यों को छूट और कुछ को छूट से वंचित रखना भी राज्यों के समानता के अधिकार का हनन है।
महाराष्ट्र में, जो कोई भी 15 साल या उससे अधिक समय से राज्य में रह रहा है, वह सरकारी नौकरियों के लिए तभी पात्र है, जब वह मराठी में पारंगत हो। तमिलनाडु भी ऐसी परीक्षा आयोजित करता है। पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने मूल निवास के बजाय भाषा को राज्य की सेवाओं में नियुक्ति का आधार बनाया है। इसके अतिरिक्त, संविधान के अनुच्छेद 371 में कुछ राज्यों के लिए विशेष प्रावधान भी हैं। संविधान के अनुच्छेद 371डी के तहत, आंध्र प्रदेश को निर्दिष्ट क्षेत्रों में स्थानीय कैडरों की सीधे भर्ती करने की अनुमति है।
संविधान के अनुच्छेद 19 (ई) के तहत, प्रत्येक नागरिक को भारत के किसी भी हिस्से में निवास करने और बसने का अधिकार है। इसके अलावा किसी भी राज्य में किसी भी सार्वजनिक पद पर भर्ती होने पर व्यक्ति के साथ उनके जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। संविधान कुछ प्रतिबंधों के बावजूद शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े असमान लोगों को समानता के स्तर तक लाने के लिये अनुच्छेद 15 (4) और 16(4) के जैसे सकारात्मक प्रावधान भी करता है। जो राज्य को उन समुदायों के लिए उच्च शैक्षणिक स्थानों और नियुक्तियों में प्रवेश के आरक्षण के लिए विशेष प्रावधान करने की अनुमति देते हैं।
दरअसल, देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रदीप जैन बनाम भारत संघ के मामले में भूमिपुत्रों के लिए नौकरियां आरक्षित करने की नीतियों को संविधान का उल्लंघन माना था। सन‌् 1995 में भी सुप्रीम कोर्ट ने सुनंदा रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में, प्रदीप जैन वाले मामले के फैसले को बरकरार रखा और उस नीति को रद्द कर दिया, जिसमें शिक्षा के माध्यम के रूप में तेलुगु वाले उम्मीदवारों के लिए अंकों में 5 प्रतिशत अतिरिक्त वेटेज की अनुमति दी गई थी। लेकिन जब संसद कुछ राज्यों को जन्म या निवास के आधार पर आरक्षण देने की छूट दे चुकी है तो उसे अब समानता के अधिकार को समान बनाने की पहल भी करनी चाहिए।

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