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फिर आओ कबीर

09:55 AM Sep 16, 2024 IST

कविता रावत

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यूं तो जीवन के हर पल में कबीर दास जी के संदेश हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं, लेकिन कुछ संदेश गहरे अर्थ लिए हैं। यहु ऐसा संसार है, जैसा सेमर फूल। दिन दस के व्यवहार कौं, झूठे रंग न भूल। अर्थात‍् दस दिन के जीवन पर मानव नाहक ही मिथ्या अभिमान करता है। वह भूल जाता है कि जीवन तो सेमल के फूल के समान क्षणभंगुर है, जो रूई के समान सब जगह उड़ जाता है। इसलिए- काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब। पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब। मानव को सत्कर्म यथाशीघ्र पूरा कर लेना चाहिए। क्योंकि काल का कोई भरोसा नहीं, कब प्रलय आ जाए और वह कुछ अच्छा किए बगैर ही काल के गाल में समा जाए।
ऐसी ही जीवन और जगत की यथार्थता का बोध कराते हुए मानव जीवन को सार्थकता की दिशा में ले गए संत कबीर। उनका जन्म सन‍् 1398 ई. के लगभग माना जाता है। कहते हैं कबीर बचपन से ही हिन्दू भाव से भक्ति करने लगे थे। उन्हें स्वामी रामानंद के शिष्य के साथ ही प्रसिद्ध सूफी संत फकीर शेख तकी का भी शिष्य माना जाता है। देशाटन करने के कारण उनका हठयोगियों तथा सूफी फकीरों से सत्संग हुआ तो उनके ‘राम’ धनुर्धर साकार राम न होकर ब्रह्म के पर्याय बन गए-दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना। कबीर की बानी ‘निर्गुण बानी’ कहलाती है। वे रूढि़यों के विरोधी थे। अंधविश्वास, आडम्बर और पाखण्ड का उन्होंने जिस निर्भीकतापूर्वक और बेबाक ढंग से विरोध करने का साहस दिखाया वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने कर्मकाण्ड को प्रधानता देने वाले पंडितों और मुल्लों दोनों को खरी-खरी सुनाई।
आज हमारा जीवन राजनीति और समाजनीति के दो पहलुओं के बीच ‘कबीर’ आप ठगाइये, और न ठगिये कोय। आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होय। राजनीति से परे आज साधु-संन्यासी भी दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आ पाते, ऐसे में यदि आज कबीर जीवित होते तो निश्चित वे अपनी वाणी से सामाजिक वैषम्य, असामंजस्य, अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता, अनीति और अन्याय के प्रति विरोध प्रकट कर राजनीति के छल-कपट, वोट-नीति, फूट डालो और राज करो की नीति, व्यक्तिवाद के वर्चस्व, प्रजातंत्र की आड़ लेकर राजतंत्र के कृत्य, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के प्रति जनता को सचेत कर लोकतंत्र में जान फूंक देते जिससे स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण हो उठता।
साभार : कविता रावत डॉट कॉम

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