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हिंदी साहित्य की विरल मेधा के मेघ

08:08 AM Sep 06, 2023 IST
हिंदी साहित्य की विरल मेधा के मेघ
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स्मृति शेष : रमेश कुंतल मेघ

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डॉ. राजवंती मान

विश्व की तमाम प्राचीन सभ्यताओं के बीहड़ से गुजरने वाले अन्वेषी डॉ‍. रमेश कुंतल मेघ उर्फ़ रमेश प्रसाद मिश्र 1 सितंबर, 2023 को महाप्रयाण कर गये। हिंदी साहित्य जगत के लिए डॉ. मेघ जैसे ज्ञानी विचारक, दार्शनिक, आलोचक चिंतक का निधन अपूरणीय क्षति है।
हरियाणा के पंचकूला में स्थायी रूप से रह रहे डॉ. मेघ का जन्म खांटी बुंदेलखंड के एक छोटे से शहर सागर ताल में आंचलिक सांस्कृतिक सुवास में 18 फरवरी, 1930 को हुआ था। एक लिहाज से यह उम्र लम्बी कही जा सकती है परंतु उनके साहित्यिक अवदान (यात्रा) पर दृष्टि डालें तो वह इस उम्र से कई योजन आगे निकल गये थे।
प्रागैतिहासिक काल तक की लम्बी यात्रा करने वाले, गहरा कला-काव्य-बोध समेटे, मिथकीय छवियों के चितेरे, प्रबल जिज्ञासु दार्शनिक, काल के गर्त में दबी क्लासिकीय छवियों पर जमे अंधेरे की परतों को भेद कर तथा वर्तमान से जोड़ने वाले वह मर्मस्पर्शी-चिंतक जितने विशिष्ट अपनी वाकशैली में थे, उतनी ही विशिष्ट कलात्मकता उनके व्यक्तित्व में भी थी।
हिंदी साहित्य के अनछुए विषयों पर उनका लेखन अति विशिष्ट और अद्वितीय है। यह विशिष्ट रूपात्मकता उनकी पुस्तकों के शीर्षकों और आवरणों से झलकती है। उनकी दो दर्जन के लगभग पुस्तकों में– साक्षी हैं सौदर्य प्राश्निक, अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा, मिथक और स्वप्न : कामायनी की मन-सौन्दर्य सामाजिक भूमिका, वाग्मी हो लो, कांपती लौ, आधुनिकताबोध और आधुनिकीकरण, क्योंकि समय एक शब्द है, तुलसी –आधुनिक वातायन से, मन खंजन किनके, हमारा लक्ष्य खिलाने हैं लीला कमल, विश्वमिथक सरित्सागर... आदि शामिल हैं।
अपने सतत सघन संधान, अंतरानुशासनात्मक अध्ययन, मिथक और मिथक आलेखन तथा सौंदर्यशास्त्र जैसे विशिष्ट क्षेत्रों के चिन्तन-मनन लेखन में डॉ. मेघ हिंदी साहित्य के शिखर पर अकेले ही खड़े दिखाई देते हैं। उनका आलोचना, कला सौंदर्यशास्त्र और मिथक सम्बन्धी चिन्तन भारत तक ही सीमित नहीं अपितु विश्व की अनेक पुरातन सभ्यताओं से ताल्लुक रखता है। इस विश्वव्यापी सफर में डॉ. मेघ हिंदी के ऐसे विरले साहित्य साधक हैं जो ज्ञान-कुंडलियों को साधने, प्रागैतिहासिक (प्री-हिस्ट्री) की बीहड़ सभ्यताओं का इतिहास खोजने एक ‘नोमड एक्सप्लोरर’ की भांति निकल पड़े।
अपनी पुस्तक विश्व मिथक सरित्सागर, मानवदेह और देह भाषायें को वे अपने दो हंसगान कहते रहे हैं। एक अंतिम और तीसरा हंसगान रोबर्ट प्राउस्ट पर लिखने की उनकी तमन्ना थी, जिसका जिक्र उन्होंने कई बार किया और मदद करने की इच्छा जाहिर की थी। सारी संदर्भ सामग्री एकत्रित करके एक जगह रखवा भी दी गई थी, परन्तु उम्र का दबाव कुछ अधिक हो गया था।
गणित, रसायन और भौतिकी में बीएसई डिग्री हासिल करने वाले डॉ‍. मेघ ने एकाएक अपना रास्ता बदल कर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से हिंदी में एमए और फिर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से हिंदी साहित्य में पीएचडी की डिग्री हासिल की। उनके गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी रहे। जब भी साहित्यिक विचार-विमर्श होता वे अपने गुरु के बारे में बताते कि ‘हमारे गुरु का कद बहुत ऊंचा था जिनके सामने हम बिलकुल छोटे-छोटे जंगली फूलों की तरह थे, उन्होंने हमें हरसिंगार में तब्दील कर दिया।’
डॉ‍. मेघ बताते थे कि उनका पीएचडी का वायवा महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिया। उन्होंने पूछा, ‘कि नौजवान जीवन में क्या करना चाहते हो।’ मैंने कहा, ‘मैं मध्यम वर्ग से आता हूं और नौकरी ही करना चाहता हूं।’ उन्होंने फिर पूछा, ‘लिखने-पढ़ने के बारे में क्या विचार है?’ तो मैंने कहा कि कविताएं कहानियां लिख लेता हूं। महापंडित ने कहा कि नौजवान तुम्हारे अंदर विलक्षण प्रतिभा है तुम कविता कहानी छोड़कर आलोचना के क्षेत्र में आगे बढ़ो! मेघ जी ने उन्हें प्रणाम करके आदेश शिरोधार्य कर लिया और कविता-कहानी लिखना बन्द कर दिया।
उनके पुस्तक कक्ष में उनकी हस्तलिखित कविताओं के कई बंडल विद्यमान थे जो अधिकतर 1949 से 1952 के आसपास लिखी गईं हैं। उनमें से कुछ पृष्ठों पर कविताओं के साम्य में पेंसिल से बनाए हुए अद्भुत रेखाचित्र शामिल थे। खुद डॉ. मेघ मानते थे कि वह मुख्यतः चित्रकार थे।
दरअसल, डॉ. रमेश कुंतल मेघ के अध्ययन अध्यापन का कार्यक्षेत्र आरा (पटना) से अरकंसास (पाइन ब्लफ) तक फैला रहा। वे रीडर-इंचार्ज हिन्दी विभाग, पंजाब यूनिवर्सिटी, पूर्व प्रोफेसर व अध्यक्ष हिंदी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय और अमेरिका की अरकंसास यूनिवर्सिटी, पाइन ब्लफ (यूएसए) में फुल ब्राइट प्रोफेसर रहे हैं। वह कला समीक्षक, आलोचिन्तक, सौन्दर्यशास्त्री, मिथक व्याख्याता, दार्शनिक, इतिहास अन्वेषक थे। यदि कहा जाए कि वह हिंदी की विरल मेधा के मेघ थे तो ये शब्द उनकी प्रतिभा और प्रज्ञा के सामने छोटे पड़ जाते हैं।
दरअसल, 88 साल की आयु में डॉ‍. मेघ को उनकी पुस्तक ‘विश्वमिथक सरित्सागर’ (2015) को वर्ष 2017 का राष्ट्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। अकादमी के खचाखच भरे सभागार में 11 फरवरी, 2018 को जब डॉ. मेघ को यह पुरस्कार प्रदान किया गया तो पन्द्रह मिनट तक स्टैंडिंग ओवेशन दिया गया। और पूरा हॉल तालियों से गूंजता रहा।
निष्कर्षत: डॉ‍. मेघ का अनूठा सृजनात्मक योगदान, उनकी पुस्तकें कला-संस्कृति, सौन्दर्यशास्त्र, मिथकोलोजी व इतिहास के ऐसे मानक प्रस्तुत करती हैं जहां से ज्ञान की अनेक धाराएं फूटती हैं। जिन्हें साधना हिंदी साहित्यकारों के लिए चुनौती बना रहा है। डॉ. मेघ ने उन पर कितना पावन श्रम और पसीना बहाया होगा उसका अंदाजा तो उनके थोड़े से किन्तु गम्भीर साहित्यानुशीलक लगा सकते हैं। सामग्री की सम्पन्नता, शब्दों की युक्तता, अवधारणाओं और प्रतिस्थापनाओं की विपुलता, सांस्कृतिक भव्यता का अकूत खजाना मौजूद है जिसे डिकोड करने में आने वाली पीढ़ियां वर्षों खपायेंगी। कोविड के त्रासद समय से ही डॉ. मेघ स्वास्थ्य कारणों से लगभग एकांतवासी हो चले थे और अल्जाइमर जैसी बीमारी ने इन दिनों उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया था। उनकी बेटी क्षिप्राली (मेरे लिए नीलू जी) अत्यधिक समर्पित भाव से उनका ख्याल रखती रही हैं।
इतिहास और काल की सीमाओं से परे नृशास्त्र, विश्वास, मिथक, इतिहास जैसे अनेक बहुविध विषयों से हिन्दी के साहित्यिक दामन को सजाने समृद्ध करने वाले विरले मर्मी-चिन्तक अपने प्रिय मिथकीय संसार में लौट गये।

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