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बंद आंखें और भेड़िया धसान कथा

06:41 AM Sep 01, 2023 IST

सूर्यदीप कुशवाहा

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आज हर क्षेत्र में भेड़िया धसान है। वास्तविक जहां हो या आभासी दुनिया... कोई नहीं छूटा जहां भेड़िया धसान ने नहीं कूटा। भेड़िया धसान समाज का कचरा-ए-शान है। यहां आप ऐसे समझिए कि बुद्धिजीवी का लबादा ओढ़े हैं। लेकिन व्यावहारिक ज्ञान में नल्ला हैं। बस देखा-देखी पाप और देखा-देखी पुण्य। भई! सोशल मीडिया में पुण्य आत्माओं की कमी नहीं है। विक्रम-बेताल की कहानी से बिलकुल जुदा है। समझ रहा ऊंची सोच, जिसमें मोच आ गया है। बिना सोचे-समझे भीड़ का हिस्सा बनने में गौरव की अनुभूति हो रही है। जिसके अनुभव की कसौटी पर कुंडली मार के भेड़िया धसान में शामिल हो रहे हैं।
लाहौल विला कुवत... अरे! जबरा फैन फॉलोइंग का ज़माना है। इसकी दुनिया दीवानी है। बाकी सब फ़ानी है। मानो तो हर बंदा जानी है। यही असली कहानी है। खाली-खाली दिमाग़ में भरती शैतानी है। बिना सोचे समझेंगे तो भईया याद आएगी नानी। दिमाग़ ज्यादा लगाने से ज्यादातर गंजे हो जाते हैं और उन बंदों को कंघी फेरने का नसीब ही मिट जाता है। खुराफ़ात की खुजली जब आदमी को लग जाती है तो आदमी उठता नहीं दूसरे को उठा देता है। शराफतलाल की दुकान खुल गई है। बस खुराफाती ग्राहक की दरकार है।
भेड़िया धसान पात्रों में बोले तो फ़िल्मी नई हीरो-हीरोइन, युवा नेता, साहित्य अनुरागी और बैरागी, लेखक बिरादरी, भ्रष्टाचार के सिपाही इत्यादि शामिल किए जा सकते हैं। इसका व्यापक क्षेत्रफल है जिसका प्रतिफल सदा आम आदमी भोगता है। मार्क जुकरबर्ग के मंच में अफवाह से लोग पोस्ट कॉपी पेस्ट करके भेड़िया धसान को बढ़ावा देकर अपना अमूल्य योगदान दे रहे। फेसबुक सार्वजनिक मंच है। हर किसी की प्राइवेसी में खलल पड़ता है। कॉपी पेस्ट से आपकी परेशानी कहां घटेगी? नहीं खा सकते आटा, क्योंकि पीसने के लिए चाहिए जांता। दूर हो जिससे पेट का कांटा, और किसी ने कभी नहीं रेवड़ी बांटा।
भेड़िया धसान कथासार को गूढ़ से गुड़ खाने को न समझिए जनाब। कविता को देख कविता में घुसे, आलेखकुमार से प्रभावित होकर लेख लिखे, बिन पढ़े ही फिर लघुकथा में घुसे और व्यंग्यराज़ मधुशाला से मिलने के उपरांत नशा कर व्यंग्य में घुसे तो फिर नहीं निकले। इसीलिए व्यंग्य में भेड़िया धसान आम बात है।
भेड़िया धसान इंजीनियरिंग, डॉक्टरी की पढ़ाई में भी खूब रहा वरना कोचिंग इतना न फलते-फूलते। आज कल गांव के मुस्टण्ड खलिहर नवाब बनकर रोज पार्टी-शार्टी में लगे रहते हैं। काम-धाम ढेले भर का नहीं बस व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान ठेलते रहते हैं।
खुद भी न सुधरे और खुदा भी सुधरने के लिए अपना दूत भेजे तो बैरंग लौटे। भेड़िया धसान की भीड़ में समाज सुधारक गुम हो जाता है। रेवड़ियां पाकर लोग सरकारों को जय-जयकार कर देवता बना दिए हैं। लाभार्थी बनकर जीवन चौपट और प्रतिनिधि पपेट बनकर मनोरंजन कर रहे हैं। कब समझेगी जनता जनार्दन। भ्रष्टाचार का मर्दन और महंगाई डायन की गर्दन दबोचने की कब ज़िम्मेदारी सरकारें लेंगी। लोकतंत्र का यक्ष प्रश्न बन गया है। कभी थी काबिल मीडिया आज भेड़िया धसान में शामिल है। कब खुलेंगी बंद आंखें और वास्तविकता से रूबरू होंगे... पर्दा बेपर्दा होगा।

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