मानसून में मनमोहक परिंदों की चहचहाहट
वर्षा ऋतु का आगमन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (दिल्ली व आसपास) को हरे-भरे स्वर्ग में परिवर्तित कर देता है। तीन माह की ग्रीष्म ऋतु और नौतपे की भीषण गर्मी के पश्चात पहली बारिश की फुहारें मानो पुनः जीवन का संचार करती हैं। चहुं ओर धरा पर हरियाली की चादर-सी बिछ जाती है। पशु-पक्षियों और पौधों की संवृद्धि को तो मानो पंख ही लग जाते हैं। पक्षियों ने तो अपने प्रजनन काल का क्रम भी मानसून के अनुरूप ही विकसित किया है। लगभग सभी पक्षियों की प्रजातियों के चूजे जून महीने तक अंडों से बाहर निकल आते हैं। कीड़े-मकोड़ों और भोजन की प्रचुरता न केवल विकास को गति देती है अपितु माता-पिता का काम भी आसान करती है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लगभग सभी प्रकार के प्राकृतिक आवास पाए जाते हैं जैसे कि यमुना नदी, अरावली के वन, दक्षिण हरियाणा के अर्ध-शुष्क इलाके, झील एवं आर्द्रभूमि (नजफगढ़, सुल्तानपुर, सूरजपुर) इत्यादि। भौगोलिक स्थिति से भी यह क्षेत्र एक मुख्य हवाई मार्ग पर स्थित है जो नियमित रूप से बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षियों द्वारा उपयोग किया जाता है। इस क्षेत्र में पक्षियों की तकरीबन 400+ प्रजातियां पाई जाती हैं। करीब 120 शरद ऋतु के प्रवासी हैं, 12-15 ग्रीष्म एवं मानसून के प्रवासी और बाकी स्थानीय निवासी हैं।
आइये, आज हम इन ग्रीष्म एवं मानसून के प्रवासी पक्षियों की बात करते हैं जिनकी सुंदरता और कलरव ने मौसम को और भी मनमोहक बना रखा है।
दूधराज, शाह बुलबुल
यह अति सुन्दर पक्षी मध्य प्रदेश का राज्य पक्षी भी है। लाल भूरे और श्वेत रंग के साथ नीली आंखों और काली कलगी का आकर्षण बेजोड़ है। नर पक्षी की लम्बी फीते जैसी पूंछ इसे विलक्षण सुंदरता प्रदान करती है। मादा की पूंछ छोटी ही होती है। ये पक्षी जून महीने में आते हैं और जंगलों में पानी की धाराओं के पास लटकता हुआ प्याले के आकार का घोंसला बना कर प्रजनन आरंभ कर देते हैं। महीने भर में चूज़े निकल आते हैं और सितंबर में पूरा परिवार दक्षिण भारत की ओर प्रवास कर जाता है।
नवरंग
नौ रंगों के जादुई मिश्रण से खूबसूरती की पराकाष्ठा प्राप्त करते इस छोटे से अद्भुत पक्षी की छटा देखते ही बनती है। यह बेहद रंग-बिरंगी खूबसूरत चिड़िया दक्षिण भारत से जून महीने में यहां आती है और सितंबर तक रहती है। इस दौरान यहां के पथरीले जंगलों में प्रजनन और बच्चों का पालन-पोषण करती है। सुबह और शाम को ये बहुत मधुर सुर में गाती है। जंगल के किनारे पर इन्हें जमीन पर फुदकते देखा जा सकता है।
पीलक,आम्र पक्षी
सुनहरे पीले रंग का मैना के आकार का एक सुंदर पक्षी है जिसका मीठा गीत जून महीने के अंत तक सभी कोनों से गूंज उठता है। यह एक शहरी पक्षी है और घरों के आसपास आसानी से देखा जा सकता है। बड़े पेड़ों के ऊपरी हिस्से में पत्तों को सिल कर कटोरे जैसा घोंसला बना कर प्रजनन करता है।
चातक
कोयल वंश का प्रवासी पक्षी है जो प्रजनन के लिए मानसून से ठीक पहले पूर्वी अफ्रीका से भारत में पलायन करता है। चातक पक्षी के आगमन के साथ ही मानसून प्रारम्भ होता है इसलिए इसे वर्षा पक्षी भी कहते हैं। इस मौसम में बहुत से अन्य पक्षी भी प्रजनन कर रहे होते हैं और वे परभ्रत (ब्रूडिंग पैरासिटिसिज्म) के लक्ष्य बन जाते हैं। चातक अपना घोंसला बनाने की बजाय अन्य छोटे पक्षियों के घोंसले में अपने अंडे देती है। यह अक्सर पांच-छह घोंसलों में चोरी छिपे एक-एक अंडा रख देती है जिसे दूसरे पक्षी अपना समझ कर पालते-पोसते हैं। बड़े होने पर सभी बड़े-छोटे चातक अफ्रीका लौट जाते हैं।
पहाड़ी कुक्कू, फुफ्फू
कुक्कू परिवार की यह पक्षी प्रवासी पक्षी है जो शरद ऋतु अफ्रीका में बिताता है और मार्च से अगस्त तक छह महीने प्रजनन के लिए भारत आती है। ये भी परभ्रत (ब्रूडिंग पैरासिटिक) पक्षी हैं जो अपना घोंसला बनाने की बजाय अन्य छोटे पक्षियों के घोंसले में अपने अंडे देती है। इस पक्षी ने स्वयं को छोटे बाज के स्वरूप में विकसित किया है। नर पक्षी बाज के जैसी उड़ान और आवाज से छोटे पक्षियों को डरा कर घोंसला खाली करवाता है और मादा चुपके से एक नीला अंडा उसमें रख देती है।
सुरमई कुहुक, छोटा पपीहा
यह पूरे एशिया में फैला हुआ पक्षी है जो ग्रीष्म ऋतु में छोटी दूरी का प्रवास कर के हल्के जंगलों और खेती वाले इलाकों में प्रजनन के लिए आता है। यह स्लेटी और लाल भूरे, दो रंगों में पाया जाता है। ये भी परभ्रत (ब्रूडिंग पैरासिटिक) पक्षी है जो अपना घोंसला बनाने की बजाय अन्य छोटे पक्षियों के घोंसले में अपने अंडे देती है।
नीलदुम पतिरंगा और नीलकपोल पतिरंगा
दिखने में लगभग एक जैसे नीले-हरे-पीले रंगों से सुसज्जित हवा में कलाबाजियों से शिकार के माहिर ये सुन्दर पक्षी दक्षिण पूर्व एशिया में पाये जाते हैं और जून-जुलाई में प्रवास कर प्रजनन के लिए यहां आते हैं। नदियों के किनारे रेतीली कटाव की दीवारों में बिल बना कर वंशक्रम की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। हरे और नीले रंग की छटाएं, सुगठित पतला शरीर, तेज उड़ान और हवाई शिकार की कला इन पक्षियों को विशेष दर्जा देती हैं। इन्हें तारों और सूखी टहनियों पर मादा को कीट खिलाते आसानी से देखा जा सकता है।
कश्मीर नीलकंठ
नीलकंठ की यह उप-प्रजाति इराक, ईरान, कश्मीर, कजाखस्तान और पश्चिमी चीन में प्रजनन करने के उपरान्त पूर्वी एवं मध्य अफ्रीका में सर्दियां बिताती है। इनके प्रवास का मार्ग उत्तर एवं पश्चिम भारत के ऊपर से गुजरता है। प्रजनन के दौरान नर पक्षियों के हवाबाजी के कारनामों के लिए जाना जाता है और इसीलिए इसका नाम 'रोलर' है। नीले, काले एवं भूरे रंगों से सजी अद्भुत छटा वाला पक्षी आमतौर पर खुले घास के मैदान, झाड़ियों, जंगलों और सड़क के किनारे पेड़ों और तारों पर देखा जा सकता है।
चिना बटेर, चानक
सुंदर गोल मटोल बटेर, मुंह पर काली सफेद पट्टियां और गले पर जैसे किसी ने काला रंग फेंक दिया हो। हर पक्षी प्रेमी इस अद्भुत पक्षी का मानसून के आरंभ से ही इंतजार शुरू कर देता है। दक्षिण और मध्य भारत से प्रवास करने के बाद यह छोटा पक्षी खुले घास के मैदानों में प्रजनन करता है। प्रजनन से पूर्व मादाओं को आकर्षित करने के लिए और अपने इलाके पर अधिकार दिखाने के लिए नर पक्षी किसी पत्थर पर चढ़ कर दो सुरों वाली तेज आवाज निकालता है जो रात को भी दूर-दूर तक सुनी जा सकती है।
छोटा गुल्लू, डबकी
यह साफ चेहरे एवं धारीदार भूरे शरीर वाला बटेर जैसा छोटा पक्षी है जो वास्तव में तटीय पक्षियों से अधिक निकटता से संबंधित है। दक्षिण और मध्य भारत से प्रवास करने के बाद यह छोटा पक्षी खुले घास के मैदानों में प्रजनन करता है। गहरे छद्मावरण के कारण इसको देखना अत्यन्त कठिन है। अधिकतर समय घास एवं झाड़ियों में बिताता है और खतरा भांपने पर दुबक जाता है। उड़ने की बजाय घास के अंदर तेजी से भाग कर आंखों से ओझल हो जाता है। मादा गहरी 'हूम-हूम' के साथ पुकारती है और नर 'केक-केक' उत्तर देता है।
जून बगुला, ज्योत्सना बक और लाल बगुला
उथले जल के अत्यंत शर्मीले पक्षी हैं जो प्राकृतिक जल स्रोतों के आस पास के सरकंडों और ऊची वनस्पतियों में रहते हैं। बगुलों से मिलते-जुलते ये शर्मीले पक्षी मछली, मेंढक और छोटे जलीय प्राणियों के शिकारी हैं। मुख्यत: निशाचर होते हैं परन्तु सुबह सवेरे और सांध्यकाल में भी शिकार करते देखे जा सकते हैं।। मूलतः दक्षिण और मध्य भारत के स्थानीय पक्षी हैं परन्तु मानसून में प्रजनन के लिए उत्तर भारत में प्रवास करते हैं।
जलकुक्कुट, कोंड़ा, कोंगरा
जलकुक्कुट रैलिडी परिवार के उभयचर पक्षी हैं जो अपना अधिकांश समय जल वनस्पतियों के अंदर ही बिताते हैं। लाल कलगी, पीली चोंच, काला धूसर शरीर और सुर्ख पैरों के साथ इस जलीय मुर्गे की सुंदरता देखते ही बनती है। अत्यधिक शर्मीले होने के बावजूद कभी-कभी खुले धान के खेतों में नजर आ जाते हैं। ये काफी शोर मचाने वाले पक्षी हैं और विशेष रूप से सुबह और शाम के समय ज़ोर से गूंजते हुए सुने जा सकते हैं। ये मुर्गे पूर्णतया प्रवासी तो नहीं हैं परन्तु पानी की उपलब्धता के अनुसार अपना स्थान जरूर बदलते रहते हैं।
धोबैचा, विश्वका, हापुत्रिका
उथले जल के बतान परिवार का एक सुंदर पक्षी जो फाख्ता, बतान और अबाबील का संयोजन है। वयस्क भूरे रंग के होते हैं और उनके हल्के पीले गले पर सुंदर काला हार होता है। सभी प्रैटिनकोल्स की एक असामान्य विशेषता यह है कि हालांकि उन्हें बतान के रूप में वर्गीकृत किया गया है, परन्तु वे आम तौर पर अबाबील की तरह उड़ान भर कीटों का शिकार करते हैं। शाम के समय अक्सर पानी के पास खुले खेतों में कीड़ों की तलाश में उड़ते देखे जा सकते हैं।
पक्षियों का अध्ययन करने का सबसे महत्वपूर्ण प्रयोजन पृथ्वी पर समस्त जीवन का समर्थन करने वाले पारिस्थितिक तंत्र को और नजदीक से समझना है। प्राकृतिक प्रणालियों के संचालन की गहनता को समझना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पक्षी पृथ्वी के लगभग हर पारिस्थितिकीय तंत्र के मुख्य पात्र हैं और पर्यावरणीय स्वास्थ्य के भी उत्कृष्ट संकेतक हैं। पक्षी विभिन्न प्राकृतिक प्रक्रियाओं के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने में सक्षम हैं। पक्षियों की आबादी में परिवर्तन हमें जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, सूखा और मौसम के प्रभावों के बारे में बहुत कुछ बता सकता है।
पराये घोंसले में वंश वृद्धि का मोह
पक्षियों में 'भ्रूण परजीविता' प्रजनन रणनीति का एक अत्यन्त दिलचस्प उदाहरण है। इसमें परजीवी पक्षी अपने अंडे दूसरे पक्षी (पोषक) के घोंसले में रख देती है जहां अंडे का सहन और चूज़े का पालन-पोषण दोनों पोषक पक्षी द्वारा किया जाता है। ऐसी परजीविता का एक प्रमुख उदाहरण है कौए तथा कोयल के बीच। विकासवादी रणनीति परजीवी माता-पिता को बच्चों के पालन-पोषण में निवेश से राहत देती है। यह लाभ परजीवी और पोषक, दोनों पक्षियों के बीच विकासवादी रणनीति की दौड़ को आगे बढ़ाने की कीमत पर आता है क्योंकि वे एक साथ विकसित होते हैं। भ्रूण परजीविता की विकासवादी रणनीति परजीवी माता-पिता को बच्चों को पालने या उनके लिए घोंसले बनाने की मेहनत से राहत देती है। यह परजीवी माता-पिता को अन्य गतिविधियों जैसे कि चारा खोजने और आगे संतान पैदा करने के लिए अधिक समय बिताने में सक्षम बनाता है। एक ओर पोषक पक्षियों ने परजीवी-वाद के खिलाफ मजबूत सुरक्षा विकसित की है, जैसे परजीवी अंडों को पहचानना और बाहर निकालना, या परजीवी घोंसले को त्यागना और फिर से शुरू करना। वहीं दूसरी ओर परजीवी पक्षियों ने नई प्रणालियों को अपनाया है धोखा देने के लिए। मानसून के समय मुख्यतः कुक्कू की कुछ प्रजातियां जैसे कि चातक, पहाड़ी फुफ्फू, पपीहा, छोटा पपीहा और कोयल उत्तर भारत में इस प्रणाली को अपनाते हैं। आइये देखते हैं कि यह सारा खेल कैसे रचा जाता है। उदाहरण स्वरूप पपीहे को ही लेते हैं। सर्वप्रथम पपीहे और बाकी कुक्कू ने अपने आकार, रंगों, बनावट, उड़ान और आवाज को छोटे बाज़ के जैसे ढाल लिया है। सबसे पहले पोषक पक्षी को पहचान कर उस के घोंसले पर बारीक नजर रखी जाती है। खराब मौसम का पूरा फायदा उठाया जाता है। मादा पपीहा घोंसले के नजदीक छिप जाती है और नर पपीहा दूर से बाज़ की जैसी आवाज निकाल कर हमले जैसी उड़ान भरता है। जैसे ही डर के मारे पोषक पक्षी घोंसला छोड़ता है, मादा चुपके से एक अण्डा उसमें रख देती है। यह प्रक्रिया छह-सात बार अलग-अलग घोंसलों में दोहराई जाती है। कुछ मादाएं तो पोषक पक्षी का एक अंडा नीचे गिरा देती हैं ताकि गिनती सही रहे। इतना ही नहीं, मादा पपीहा अपने अंडे को पेट में ही दो दिन आगे सेह कर रखती है ताकि उसका चूज़ा पहले पैदा हो। नर-मादा ही नहीं, नवजात चूज़े भी इस रणनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पैदा होते ही सबसे पहले बाकी अंडों को नीचे गिरा देता है ताकि पालन-पोषण में कोई प्रतिद्वंद्विता ही न रहे। जरा सोचिए, कुछ पल पहले अण्डे से निकला चूज़ा जिसकी न तो आंखें खुली हैं और न ही पंख निकले हैं और वह घंटों परिश्रम कर के तीन-चार अण्डों को कमर से धकेल कर कैसे घोंसले से नीचे गिरा देता है। कुक्कू के पोषक पक्षियों में सतबहनी, फुटकी, और कई प्रकार की टिकटिकी शामिल हैं। कुछ परजीवी पक्षियों ने तो अपने अंडों का आकार और रंग भी पोषक पक्षी के समकक्ष ही बना लिया है ताकि कोई शक की गुंजाइश ही न रहे।
सुरीला गाना काले नर कोयल का
बात अगर कोयल की करें तो इसके गाने के चर्चे आपने बचपन से सुन रखे हैं। नर और मादा में क्या अंतर है ये सब लोग तो नहीं ही जानते। ज्यादातर समझते हैं कि कोयल काली होती है और बहुत सुरीला गाती है। कू-कू... वाला सुरीला गायन करने वाली गायिका नहीं बल्कि गायक है, और इसी तरह अगर आपने मादा कोयल को काला कह दिया तो गलती कर बैठेंगे। यानि नर कोयल काला होता है और बेहद सुरीला गाता है जबकि मादा का वक्ष सफेद धारीदार होता है और उसके भूरे पंखों में सफेद बूटे होते हैं। नर कोयल काले आवरण का उपयोग कौओं को छलने के लिए करता है और काले-सफेद बिंदुओं से ढकी मादा कोयल छुप कर कौए के घोंसले में अपना अण्डा चुपके से सरका देती है। पोषक पक्षियों ने भी अपनी प्रतिरक्षा को मजबूत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अण्डों की गिनती रखना, उनकी पहचान के लिए रंग एवं बनावट को बदलना तथा घोंसले की स्थिति को छुपाव में रखना कुछ रक्षात्मक रणनीतियां हैं। परजीवी एवं पोषक पक्षियों में विभिन्न रणनीतियों का निरन्तर विकास पीढ़ी-दर-पीढ़ी जारी है और ऐसे ही चलता रहेगा। और यही प्रकृति का नियम है।
लेखक पक्षियों के संरक्षण के लिए दो दशक से सक्रिय हैं।