मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

स्थानीय नीतियों में बदलाव रोकेगा पर्यावरणीय आपदाएं

06:26 AM Nov 18, 2023 IST
टिकेंद्र सिंह पंवार                              संदीप चाचड़ा

हाल ही में मनाए गए ‘अंतर्राष्ट्रीय आपदा जोखिम घटौती दिवस-2023’ का मुख्य विषय था- प्रतिरोधक भविष्य बनाने में असमानता से लड़ाई। आपदा जोखिम घटाने को लेकर बनी रूपरेखा मौसमीय बदलावों पर पेरिस संधि की अनुपूरक है। सतत्तापूर्ण विकास ध्येय की पूर्ति में यह दोनों रूपरेखाएं आपस में जुड़ी हैं। इस साल अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर आपदा और असमानता के बीच संबंध की पड़ताल की गई।
पर्यावरण बदलावों पर अंतर-सरकारी मंच ने पर्यावरणीय आपदा के लिहाज से सबसे जोखिमज़दा माने जाने वाले भारतीय उपमहाद्वीप के दो मुख्य भागों पर अधिक ध्यान दिया यानी भारतीय हिमालयी पर्वतमाला और तटीय भारत। मानसून के दौरान हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम में हुई भारी तबाही अंतर-सरकारी मंच द्वारा दी गई चेतावनियों का संकेत भर है। ईमानदारी से देखें तो भावी आपदाओं के लिए हमारी तैयारी अभी भी नहीं है। सड़क-चौड़ाकरण और चार-लेन राजमार्ग बनाने की अंधी दौड़, खासकर भारतीय हिमालयी क्षेत्र में, और इसके लिए पहाड़ियों की एकदम खड़ी कटाई करने ने दिखा दिया है कि यह राह कितनी कष्टकारी है।
शिमला में भवन निर्माण के लिए मनमर्जी से हरित-पट्टी नियमों में ढील देना आपदा को न्योते का एक अन्य नुस्खा है। हरित पट्टी की निशानदेही प्रक्रिया अपने आप में वक्री है। कुछ ऐसे इलाके हैं, जिन्हें अकारण हरित पट्टी में डाला हुआ है तो कहीं पर जंगल का बड़ा हिस्सा मुक्त कर रखा है। शिमला में भूमि-उपयोग की परिभाषा की आमूल-चूल समीक्षा होनी चाहिए, जिसका आधार विशुद्ध रूप से भू-संरचना पर हो और इसके मुताबिक अलग-अलग मंडल बनाए जाएं। वैसे भी शिमला विकास योजना मामला पहले से सर्वोच्च न्यायलय में लंबित है और हरित पट्टी में निर्माण की इजाजत देते जाना न्यायशास्त्र के मूल तत्व के विरुद्ध है। इतने महत्वपूर्ण विषय पर निर्णय देने से पहले हिमालयी क्षेत्र का मंडल के आधार पर बृहद वर्गीकरण किए जाने की जरूरत है। यह तरीका नाजुकता और सकल आपदा जोखिम को कम करने में सहायक होगा।
विगत में, आपदा जोखिम कम करने के नाम पर मुख्य प्रयास संपत्ति और मानव जीवन बचाव कार्यों पर केंद्रित रहता था। पर्यावरणीय क्षति से बनी आपदाओं का प्रभाव घटाने को राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय निकाय स्तर पर आपसी तालमेल बनाकर प्रशासन की अनुकूलक क्षमता में बढ़ोतरी सुनिश्चित की जा सकती है।
मनुष्य की हरकतों से पर्यावरणीय बदलाव आगे भी बनेंगे और हम सबको प्रभावित करेंगे। इस किस्म की स्थिति से बचाव का मुख्य उपाय है क्रियाकलापों में बदलाव लाना। हमें खुद से पूछना चाहिए ‘क्या हमारा अपना, हमारे संस्थानों, सरकारी निकायों, निजी पूंजी निवेशकों, पर्यावरण को बिगाड़ने वाले आधारभूत ढांचे में बदलाव लाने के प्रयास पर्याप्त हैं और क्या यह पर्यावरण-जनित आपदा निरोधक रणनीति के अनुरूप हैं?’ दुर्भाग्यवश उत्तर है, नहीं।
आपदा निरोधक तंत्र समूह की रिपोर्ट बताती है कि पर्यावरणजनित आपदाओं से वैश्विक नुकसान औसतन 850 बिलियन डॉलर हुआ है, जो कि 2021-22 में सकल वैश्विक घरेलू उत्पाद का लगभग 14 फीसदी है। रोचक यह कि कुल संपत्ति का लगभग 67 प्रतिशत हिस्सा विकसित मुल्कों में केंद्रित है और मध्य आय वाले देशों में यह 25 फीसदी तो कम आय राष्ट्रों में महज 7 प्रतिशत है। आपदाजनित नुकसान सबसे ज्यादा विकासशील और न्यून-विकसित मुल्कों को झेलना पड़ रहा है। क्यों? जाहिर है, पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध के देश बेहतर सुसज्जित हैं और उन्होंने पर्यावरण सुधार उपायों में भारी निवेश किया है। विकासशील दुनिया की सापेक्ष जोखिम दर बहुत अधिक है, विकसित राष्ट्रों में वार्षिक हानि का औसत 0.1 प्रतिशत है तो विकासशील जगत में 0.4 फीसदी।
राष्ट्रों के लिए सतत विकास ध्येय पूर्ति और आपदा प्रतिरोधी रणनीति बनाने हेतु निवेश के लिए 9 क्षेत्रों की शिनाख्त की गई है। इसके लिए हर साल विकसित देशों से 9.3 ट्रिलियन डॉलर और विकासशील देशों से 2.9 ट्रिलियन डॉलर की दरकार है। लेकिन यह धन आएगा कहां से? इसका इंतजाम करने के लिए वित्तीय तंत्र बनाने पर वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्विचार होना चाहिए।
तंत्र विकसित करते वक्त एक अन्य महत्वपूर्ण विचारणीय बिंदु है, सबसे अधिक आपदा-जोखिम क्षेत्र की शिनाख्त करना। अनुमानों के अनुसार आधारभूत ढांचे को होने वाले सकल वार्षिक नुकसान में औसतन 30 फीसदी भूचाल जनित और 70 प्रतिशत हानि पर्यावरणीय संबंधित आपादाओं से है। इसलिए, पर्यावरण संबंधित आपदाएं स्थिति को आगे और बदतर कर देंगी। अनुमानों के मुताबिक लगभग 80 फीसदी जोखिम बिजली, परिवहन और टेलीकॉम क्षेत्र को होगा, जिसकी परिसंपत्तियां बनाने में सकल खर्च का 15-30 प्रतिशत खपता है और लगभग 70-85 फीसदी परिचालन, मरम्मत और प्रबंधन में। भावी आधारभूत ढांचा पर्यावरणीय क्षति रोधी और अनुकूलन युक्त होना चाहिए।
रूपरेखा और पर्यावरणीय नुकसान से पैदा हुई मुसीबतें रोकने वाली योजनाओं का प्रारूप तय करते वक्त पुनः मूल्यांकन पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। पहाड़ों में सीमेंट, सरिया-युक्त कंक्रीट या स्टील आधारित भवनों का अबाध निर्माण टिकाऊ निर्माण सामग्री के सोपान पर खरा नहीं उतरता।
आपदा की संभावना घटाने में पहला कदम है जोखिम आकलन। इसमें लोगों की सक्रिय भागीदारी और क्षमता-निर्माण प्रयास समांतर होने चाहिए। यह क्षमताएं प्रति-क्रियावादी न होकर पूर्व-सक्रिय रहे। सुरक्षित, भरोसेमंद और पर्यावरणीय नुकसान रोधी आधारभूत ढांचे पर ध्यान केंद्रित करके बस्तियां क्यों नहीं बनाई जा सकती? लेकिन यह करने के लिए मौजूदा प्रशासनिक तंत्र को खुद को बदलना पड़ेगा। खतरे वाले मुद्दों पर पूर्व-चेतावनी देने में अग्रणी लोगों-समुदायों-सिविल सोसायटी को और सशक्त बनाना होगा। उन्हें नव-प्रशासनिक तंत्र का हिस्सा बनाना चाहिए। ग्रामीण एवं शहरी प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर संविधान में किए गए 73वें और 74वें संशोधन को अक्षरशः लागू किया जाए।
विकास की रूपरेखा में मुख्य कदम यह हो—बाढ़ वहनीय मैदानी इलाके में किसी प्रकार का आधारभूत ढांचा निर्माण वर्जित, जल-प्रवाहों की नक्शादेही, नदी के एकदम साथ लगते क्षेत्र, खड्डों, तटीय जंगली इलाके और उप-नदियों के किनारों पर निर्माण कार्य पर प्रतिबंध, भूस्खलन वाले क्षेत्र की पहचान करके वहां गतिविधियों पर रोक, पूर्व-चेतावनी तंत्र को सुदृढ़ बनाना, आपदा में लोगों को शीघ्रातिशीघ्र निकालना, सुनिश्चित करना।
पर्यावरण-जनित आपदाएं आगे भी आती रहेंगी। चुनना हमें है– खुद में बदलाव लाकर अपना भविष्य सुरक्षित करें या ढीठ बने रहकर फनाह हो जाएं।

Advertisement

टिकेंद्र सिंह पंवार शिमला के पूर्व उप महापौर और संदीप चाचड़ा एक्शन एड इंडिया के कार्यकारी निदेशक हैं।

Advertisement
Advertisement