जन संसद की राय है कि चुनाव पूर्व दल बदल राजनीति के मौसम विज्ञानियों का खेल है। सत्ता सुख की लालसा है। सभी राजनीतिक दल इस मामले में एक जैसे हैं। इस पर रोक की ईमानदार कोशिश नहीं होती। जनता ही सबक सिखाए।
लोकतंत्र विरोधी
विधानसभा चुनाव से पूर्व ही राज्यों में सत्ता दल छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल होने वाले नेता-मंत्रियों ने लोकतंत्र की हत्या करके तथा मूल्यों का उल्लंघन करते हुए जनता के विश्वास को ठेस पहुंचाई है। इतना ही नहीं, 5 साल तक जिस थाली में खाया उसी में छेद भी किया। इससे सत्तारूढ़ पार्टी की छवि अवश्य धूमिल हुई है। जनता जनार्दन को विधानसभा चुनाव में वोट की ताकत से विश्वासघाती दलबदलू उम्मीदवारों को भारी शिकस्त देकर घर बिठा देना चाहिए। चुनाव आयोग को भगोड़े उम्मीदवारों पर शिकंजा कसते हुए उन्हें अयोग्य करार देकर राजनीति से बाहर कर देना चाहिए।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल
गिरावट का परिचायक
नेताओं द्वारा चुनाव पूर्व दल बदल करना राजनीति में आई गिरावट का परिचायक है। यह कृत्य ऐसे मौकापरस्त नेता करते हैं जो राजनीति को लोक सेवा नहीं अपितु एक व्यवसाय के रूप में देखते हैं। ऐसे लोग केवल धनार्जन के लिये ही राजनीति में आते हैं। सेवा तो बिना लोकसभा अथवा राज्य विधानसभा का सदस्य बने भी की जा सकती है। ऐसे अनैतिक आचरण को रोकने के लिये ऐसा कानून बनाना चाहिए कि जो नेता चुनाव पूर्व दल बदल करे उसको कम से कम 5-6 वर्ष के लिये कोई भी चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किया जाये।
अनिल कुमार शर्मा, चंडीगढ़
जनता सबक सिखाए
देश का सर्वोच्च न्यायालय तथा चुनाव आयोग वर्षों से चुनावी सुधारों की ओर प्रयत्नशील हैं, जिसमें कुछ सफलताएं भी प्राप्त हुई हैं। लेकिन चुनाव पूर्व दल बदल जैसी बीमारी पर बहुत कुछ करना शेष है। अधिकतर राजनेता और दल अपने स्वार्थ एवं सत्ता सुख के लिए इसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते बल्कि रुकावट पैदा करते हैं। इसलिए जनता का यह दायित्व बन जाता है कि वह चुनावों में ऐसे नेताओं का बहिष्कार करके और मतदान से सबक सिखाकर प्रजातंत्र को मजबूती प्रदान करे।
एमएल शर्मा, कुरुक्षेत्र
पतन की पराकाष्ठा
उत्तर प्रदेश में दल बदल की बयार बताती है कि राजनीति में वैचारिक प्रतिबद्धता का दौर बीते दिनों की बात है। दशकों तक नीति, सिद्धांत व कार्यक्रम के आवरण में लिपटी रही राजनीति अब पूर्णतया स्वार्थी हो गई है। जाति विशेष का दम भरने वाले पाला बदलकर 5 साल तक सत्ता का सुख भोगते रहे फिर चुनाव आया तो जातीय हितों की दुहाई देकर दूसरे दल में शामिल हो गए। प्रयोगवादी कहें या नाटकीय- इस कवायद से दलीय हित पर नेताओं की निजी राजनीति हावी होती दिख रही है, जिससे चुनावी मुद्दे पार्श्व में चले जाएंगे। नि:संदेह राजनीति में नैतिक मूल्यों के पतन की पराकाष्ठा ही है।
पूनम कश्यप, नयी दिल्ली
अवसरवाद की हद
समकालीन राजनीति में दल बदल की बीमारी बेहद ज्वलंत मुद्दा है। इस बदलाव में अवसरवाद की झलक दिखने लगे तो यह न केवल अनैतिक, अपितु हास्यास्पद स्थिति का रूप ले लेता है। जितनी आसानी से नेता एक पार्टी को छोड़ कर दूसरी में समा जाते हैं, जनता के लिए विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि आखिर, नेताजी कल सच बोल रहे थे या फिर आज। आखिर, क्या कारण है कि पांच साल तक सत्ता का सुख भोगने के बाद अचानक ही नेता जी को अहसास होने लगता है कि वह जिस सरकार में थे, वह तो जनहित के साथ समझौता कर रही थी।
नितेश मंडवारिया, नीमच, म.प्र.
राजनीति के मौसम विज्ञानी
चुनाव पूर्व दल बदल का मूल सिद्धांत है सत्ता सुख भोगना और दल बदल विरोधी कानून से बचना। पार्टी की डूबती नैया, अकर्मण्यता के कारण कटता टिकट या विपक्षी होते हुए सत्ता दूर की कौड़ी लगने पर राजनीति के मौसम वैज्ञानिक विचारधारा से भटकाव, अकुशल नेतृत्व, पार्टी में दम घुटने, जनता की आवाज नहीं उठा पाने जैसे कुतर्क देकर पाला बदलते हैं। लोकतंत्र के हित में दलबदलुओं को सबक सिखाने का सही तरीका है कि हम दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर इन्हें वोट न दें। बंगाल विधानसभा चुनाव में ज्यादातर दलबदलुओं को हरा कर जनता ने उचित सबक सिखाया था।
बृजेश माथुर, बृज विहार, गाज़ियाबाद
पुरस्कृत पत्र
सत्ता मोह का रोग
चुनावी मौसम में राजनीति में दल बदल एक असाधारण स्थिति बनती जा रही है। सत्तर के दशक से शुरू हुआ यह रोग आज राजनीतिक नासूर बन गया है। कब, कौन, कहां पलटी मारेगा- कहना बड़ा मुश्किल है। इसका समाधान खुद राजनीतिक दलों को ही ढूंढ़ना होगा। हालांकि दल बदल कानून अस्तित्व में है, पर वही ढाक के तीन पात वाली बात। कौन किसको कोसेगा, हमाम में सारे नंगे हैं। सवाल उठता है कि यह खेल कब तक चलेगा? क्या यह राजनीति की नियति बन गई है? यूं भी नेताओं की स्वार्थपरता, सत्ता मोह एवं कुर्सी के लिए कुछ भी करेगा जैसे वाक्य हमेशा राजनीतिक गलियारों में जिंदा रहते हैं।
हर्ष वर्द्धन, पटना, बिहार