अतिशय लालच से उपजी दुखों की शृंखला
सीताराम गुप्ता
पिछले दिनों एक निवेश कंपनी लोगों के तीन सौ करोड़ रुपये लेकर चंपत हो गई। कंपनी ने अपने निवेशकों को विश्वास दिलाया कि वे डेढ़ साल में उनकी रकम सत्ताईस से सौ गुना तक बढ़ा कर देंगे। कंपनी के निदेशकों के सब्ज़बाग़ में आकर अनेक लोगों ने उनके पास अपना पैसा जमा करवा दिया। उन्होंने कुछ दिनों तक लोगों को अच्छा पैसा दिया भी लेकिन तीन सौ करोड़ रुपये एकत्र करके वे एक दिन रातोरात ग़ायब हो गए। कभी कोई एक महीने में रकम दोगुनी करने का वादा करता है तो कोई बाजार भाव से आधे पैसों में सामान देने का विश्वास दिलाता है। लेकिन क्या ये संभव है? हर्गिज नहीं। इस खुली प्रतियोगिता के जमाने में कोई कंपनी इतना लाभ कैसे कमा सकती है कि वो अपने निवेशकों के धन को हर महीने दोगुना कर दे?
फिर भी लोग इन घटनाओं से सबक़ क्यों नहीं लेते? क्यों बार-बार अपनी खून-पसीने की गाढ़ी कमाई इस प्रकार के लुटेरों के हाथों में सौंप देने को विवश हो जाते हैं? इसका प्रमुख कारण है हमारी अतिशय लोभवृत्ति जिसके कारण हम न तो कॉमन सेंस का इस्तेमाल करते हैं और न पुरानी घटनाओं से सीख ही लेते हैं। एक पुरानी घटना याद आ रही है। हर साल की तरह उस साल भी गांव में ठठेरे आए और गलियों में घूम-घूम कर आवाजें लगाने लगे कि टूटे-फूटे बर्तन संवरवा लो, बर्तनों पर कलई करा लो। घरों से टूटे-फूटे बर्तन बाहर निकलने लगे और होने लगा मोल-भाव। जो काम पहले दस रुपये में होता था, उस काम के लिए ये नए ठठेरे सिर्फ पांच रुपये मांग रहे थे। ये जानकर लोग खुश थे लेकिन फिर भी मोल-भाव हो रहा था।
ठठेरे, जो जितना कहता, मान लेते और भाग-भाग कर बर्तन जमा करने लगे। देखते-देखते बर्तनों का अम्बार लग गया। धीरे-धीरे सांझ घिर आई। ठठेरे अपना खाना बनाने का जुगाड़ करने में लग गए और लोगों से कहा कि कल सुबह भट्ठी चालू करके बर्तनों की मरम्मत का काम शुरू करेंगे। लोग बर्तन देकर अपने-अपने कामों में लग गए। जो लोग उस समय घरों में नहीं थे, घर आने पर उन्होंने जब ये सुना कि इतने सस्ते में बर्तन मरम्मत हो रहे हैं तो वे भी अपने-अपने बर्तन लेकर ठठेरों के रुकने के स्थान पर पहुंचे। वहां जाकर देखा तो पाया कि न तो ठठेरे वहां मौजूद थे और न बर्तन ही रखे थे। अब लोगों की समझ में आया कि वे इतने कम दामों मेें बर्तन संवारने के लिए क्यों तैयार हो गए थे। लेकिन अब क्या हो सकता था?
जब भी हम लोभ या मुफ्त-लाभवृत्ति के वशीभूत हो जाते हैं तो ऐसा ही होता है। लेकिन सोचिए कि कोई किसी को मुफ्त में या बहुत कम कीमत में कोई चीज या सेवा कैसे उपलब्ध करा सकता है? क्या आप सामान्य अवस्था में ऐसा कर सकते हैं? नहीं न! तो कोई भी कैसे ऐसा कर सकता है और यदि कोई ऐसा करने का दिखावा करता है तो वह बहुत महंगा पड़ता है। अतः हानि और दुख से बचने के लिए लोभ का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। लालच बुरी बला है लेकिन हम लालच के वशीभूत होकर एक असंभव बात को भी नकार नहीं पाते। लोभ हमारी आंखों पर मोटा परदा डाल देता है। मोटे ब्याज के लालच में मूलधन से भी हाथ धो बैठते हैं। लालचवश पहले तो ग़लत या अस्वाभाविक बात का विरोध नहीं कर पाते। जब भारी नुकसान हो जाता है तो विरोध करना संभव नहीं होता क्योंकि इससे हम स्वयं उपहास के पात्र बन जाते हैं।
अखबार इस प्रकार के नटवर लालों के कारनामों से भरे रहते हैं लेकिन हम नहीं चेतते। हमारी लोभवृत्ति के कारण ही रोज कोई न कोई नया ठग पैदा हो जाता है। कभी हम पैसा दुगना-तिगुना कराने के फेर में तो कभी जेवर बढ़वाने के चक्कर में लुट-पिटकर बैठ जाते हैं। कभी चिटफंड कंपनियां घोटाले करती हैं तो कभी प्लांटेशन कंपनियां। पिछले दशकों में प्लांटेशन कंपनियों ने भी निवेशकों को कम चूना नहीं लगाया। उनकी इन योजनाओं को बेचने वाले भी कम दोषी नहीं होते। एक प्लांटेशन कंपनी के एजेंट से एक बार पूछा गया कि क्या सचमुच इतनी रिटर्न मिल सकती है तो उसने कहा कि बिलकुल नहीं। फिर क्यों लोगों को ये स्कीमें बेचते हो? उसने कहा कि मोटा कमीशन मिलता है। क्या कमीशन के लिए हम कुछ भी करने लग जाएं? न तो हमें कमीशन के लिए गलत काम करना चाहिए और न ही अधिक लाभ के चक्कर में बेवकूफ बनना चाहिए।
वैसे निवेशक ही नहीं, ठगने वाले भी कम घाटे में नहीं रहते। आज तक कोई नटवर लाल कानून के शिकंजे से बच नहीं सका है फिर भी नए लोगों के इस धंधे में आ जाने का कारण उनकी भी अतिशय लोभवृत्ति ही है। हम लोभ के दुष्चक्र में फंसकर डूब न जाएं, इसके लिए जरूरी है कि हम सामान्य बुद्धि का प्रयोग करते हुए गलत चीज का शुरू से ही विरोध करें और उससे दूर रहें। यदि हम छोटे-मोटे लालच में नहीं पड़ेंगे तो सदा के लिए बड़े धोखों और नुकसान से बचे रहेंगे। लोभवृत्ति ही नहीं अपितु मुफ्त-लाभवृत्ति, आत्मप्रशंसा तथा ख़ुशामद करवाने की आदत, अहंकार, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जाना ऐसी आदतें हैं जो एक दिन हमारे पतन का कारण बनती हैं। अतिशय लोभ की प्रवृत्ति से बचकर ही हम इन दुर्गुणों से बचे रहकर सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं।