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समेटना खामोश लम्हे

08:03 AM Dec 18, 2023 IST

प्रतिभा कटियार

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बात-बात-बात… कितना कुछ कहा जा रहा है। मैं थक जाती हूं। जब बातों की बात है तो थोड़ा सुनती हूं, बस इस सुनने में ही थक जाती हूं। असल में होता यह है कि कुछ कहने की इच्छा मात्र से थक जाती हूं। कहना भीतर होता है लेकिन कौन उसे बाहर लाये सोचकर चुपचाप सामने मुस्कुराती जूही को देखने लगती हूं। ऐसा ही तो होता है कई बार। आप कुछ कहना चाहें, कुछ अभिव्यक्त करना चाहें, लेकिन अनेक किंतु-परंतु आपको रोक लेते हैं।
ऐसा ही हुआ। अब बिस्तर के पास वाली छोटी टेबल किताबों से भर चुकी है। ये वो किताबें हैं जिन्हें मैं कभी भी हाथ बढ़ाकर पढ़ना चाह सकती हूं। उस संभावना में ये किताबें बिस्तर के क़रीब रहती हैं। अब कुछ किताबें बिस्तर तक पहुंच चुकी हैं। कुछ नहीं बहुत सारी। क्योंकि कुछ से तो ये बहुत ही हैं। नहीं बहुत सारी से भी ज़्यादा। हां, शायद यही सच है। भरी हुई है टेबल। इतनी कि अब ये किताबों का बिस्तर हो गया है और मैं अपने लिए थोड़ी-सी जगह बनाती हूं कि सो सकूं। लेकिन मुश्किल यह नहीं है कि मेरे ही बिस्तर पर मेरी जगह नहीं बची, मुश्किल यह है कि किसी भी किताब पर टिक नहीं पा रही। उन्हें देखती हूं। आधी पढ़ी किताबें। बुकमार्क लगी किताबें। अधख़ुली किताबें। अब उन्हें देखते ही थकान से भर जाती हूं।
आज समीना से कहा इन सब किताबों को ड्राइंग रूम की बुकशेल्फ में रख दो और जैसे ही वो किताबें लेकर गई भीतर कोई हुड़क-सी उठी। कभी-कभी हम सिर्फ़ पास रहना महसूस करते हैं, करना चाहते हैं। यह सोचना और करना। और यह उपयोगिता से काफ़ी बड़ा होता है। यह महसूस करना। ड्राइंग रूम की शेल्फ में सजने के बाद वो किताबें मुझे उदास लगीं। जैसे मेरा उनके साथ जो आत्मीय रिश्ता था उसे मैंने पराया कर दिया हो। ख़ाली साफ़ सलीक़ेदार बिस्तर मुझे चिढ़ा रहा है।
बाहर बारिश हो रही है और भीतर बारिश की वो आवाज़ बज रही है बिलकुल वैसे ही जैसे ख़ाली बर्तन में बजती है कोई आवाज़। न पढ़ने का अर्थ किताबें ख़ुद से दूर करना कैसे मान लिया मैंने। ऐसा ही जीवन के साथ तो नहीं कर रही हूं? उन ख़ामोश लम्हों को समेटने लगी हूं जिनके होने में कुछ होना दर्ज नहीं है लेकिन जिनके होने ने बिना किसी लाग लपेट, बिना किसी अपेक्षा के मुझे अपने भीतर पसर जाने दिया।
साभार : प्रतिभा कटियार डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम

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