सुदृढ़ भारत का निर्माण संभव, बशर्ते...
पचहत्तर वर्ष पहले भारत ने आज़ादी प्राप्त की। अनेकानेक अवरोधों के बावजूद देश के सर्वोत्तम दिमागों ने, लगातार घंटों तक काम करते हुए, दो साल की अथक मेहनत से देश के संविधान का अंतिम प्रारूप तैयार किया। जिसकी मूल प्रस्तावना है : ‘हम भारत के लोग, एक प्रभुत्ता सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने तथा इसके समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता प्रदान करने वाला ऐसा शासन, जो सब नागरिकों के बीच सौहार्द्र बढ़ाए और भारत की एकता और अखंडता अक्षुण्ण रखे, स्थापित करने के लिए खुद को आत्मार्पित करते हैं।’ यहां विगत के घटनाक्रम पर यह देखने के लिए नजर डालना मौज़ूं होगा कि क्या हम उस लीक पर कायम रह पाए, जिसकी कामना कभी की थी।
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1947 के विभाजन के दौरान हुए खौफनाक सांप्रदायिक नरसंहार में दस लाख से ज्यादा लोग मारे गए और कई करोड़ अपने घरों से दर-ब-दर हुए। नवजात सरकार के सामने दुरूह समस्याओं की असंख्य चुनौतियां मुंह बाए खड़ी थीं, मसलन, व्यापक अराजकता, करोड़ों लोगों का पुनर्स्थापन, भोजन की भीषण तंगी, गंभीर आर्थिक संकट और अन्य समस्याओं का ढेर था।
हालांकि प्रशासनिक तंत्र जहां-तहां टुकड़ों में बंटा हुआ था, लेकिन फिर भी पूरी शिद्दत से चुनौतियों का सामना किया : कई जगह शरणार्थी राहत कैंप बनाए और हजारों राशन की दुकानें स्थापित कीं, कानून-व्यवस्था को पुनः स्थापित किया गया और अनेकानेक अन्य काम किए गए।
ब्रिटिश हुकूमत अपने पीछे दरिद्रता, अनपढ़ता, विशाल पैमाने पर बेरोजगारी और खाली खजाना छोड़कर गई थी। हमारे पहले गृह मंत्री सरदार पटेल को इस बात पर दृढ़ विश्वास था कि भारत की एकता और अखंडता तभी बनी रहेगी जब एक संघीय प्रशासनिक व्यवस्था के तहत अखिल भारतीय सेवा प्रणाली बने, जो देश के तमाम हिस्सों में बसे नागरिकों के लिए, सक्षम एवं भ्रष्टाचार रहित सेवाएं प्रदत्त करने वाले उद्देश्य के अनुरूप हो। इस तरह भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा का जन्म हुआ।
लगभग पहले दो दशकों के दौरान, क्रमवार आई केंद्रीय सरकारों ने देश निर्माण की नींव मजबूत बनाने और लोकतंत्र को सुदृढ़ धरातल पर रखने के लिए दूरदर्शी नीतियों का पालन किया। इस काल में स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि और उद्योग क्षेत्र में तेजी से विस्तार हुआ, भूमि-कानून और संपत्ति परिसीमन कानून में बदलाव हुए, विशालकाय बांध और सिंचाई व्यवस्था, चिकित्सा, तकनीक, अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा, प्रबंधन, रेल मार्ग निर्माण, विज्ञान, सड़कें, हाईवे, सुरंगें, नौवहनीय और सिविल उड्डयन क्षेत्र में तरक्की के लिए प्रतिष्ठानों की स्थापना करने के अलावा ऊर्जा, कोयला, सीमेंट, खाद, दवाएं और अन्य बढ़ती जरूरतों के लिए विशाल-स्तरीय क्षमताएं बनाई गईं।
दूर-द्रष्टा नीतियां अपनाने वाले इस काल के बाद आई सरकारों ने भी इस लीक को कमोबेश बनाए रखा और साथ ही अपना नया दृष्टिकोण भी जोड़ा। हालांकि, अलग-अलग सरकारों की उपलब्धि की मात्रा काफी भिन्न रही, जोकि उनके स्थायित्व, प्रतिबद्धता और देश को आगे ले जाने की योग्यता से जुड़ी हुई थी।
देश निर्माण की गाथा में, दो असाधारण उपलब्धियाें को याद करना प्रासंगिक होगा ः पहली, हरित क्रांति की सफलता, जिसने न केवल भारत को बारम्बार पड़ने वाले अकालों से निजात पाने में काबिल बनाया बल्कि एक अन्न निर्यातक मुल्क भी बना दिया। दूसरी, 1990 के दशक के आरंभ में बना ऋण अदायगी संकट ः इस मुसीबत ने अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की राह खोल दी, जिसकी बदौलत आने वाले वर्षों में वार्षिक आर्थिक प्रगति दर ने बेहतरीन छलांगें लगाईं।
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पिछले 75 सालों में, पीछे की ओर खींचने वाले अनेकानेक कारकों के बावजूद, भारत ने कई मोर्चों पर बहुत बड़ी सफलता पाई है : औसत जीवनकाल 31 वर्ष (1947) से बढ़कर 2020 में 70 साल हो गया, साक्षरता दर 12 फीसदी (1947) से उठकर 2018 में 77.7 प्रतिशत हो गई, शिशु मृत्युदर 181 प्रति 1000 (1950) से घटकर 2020 में 27 हुई, कुल प्रजनन दर जोकि 1950 में 5.9 प्रतिशत थी वह 2020 में 2 फीसदी पहुंच गई। प्रति व्यक्ति आय 265 रुपये (1950) से बढ़कर 1,50,326 रुपये हो गई (2021-22), सकल घरेलू उत्पाद जो 1960 में महज 0.04 ट्रिलियन था वह 2021 में 3.8 ट्रिलियन जा पहुंचा और आज भारत विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती मुख्य अर्थव्यवस्थाओं में एक है, जिसके पास खासा विदेशी मुद्रा भंडार है। जो मुल्क 1981 तक अनाज में विशुद्ध रूप से आयातक था, आज वह खाद्यान्न निर्यात करता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पेयजल, साफ-सफाई और ग्रामीण विद्युतीकरण, संपर्क मार्गों में असाधारण विस्तार हुआ है। आज हमारे देश में 116 करोड़ लोग फोन का इस्तेमाल करते हैं और विश्व में वैज्ञानिकों व तकनीकी विशेषज्ञों की दूसरी सबसे बड़ी श्रमशक्ति भारत के पास है। भारत अंतरिक्ष, परमाणु और सूचना प्रौद्योगिकी में दुनिया के अग्रणी देशों में आता है और हमारी सेना विश्व में तीसरी सबसे बड़ी है।
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भारत की जनसंख्या बहुत विशाल और विविधतापूर्ण है, विश्व के तमाम धर्मों के मानने वाले यहां बसते हैं, सैकड़ों भाषाएं और हजारों बोलियां हमारे मुल्क में हैं, सामाजिक-सांस्कृतिक रिवायतें, खानपान और पहनावे में एक-दूसरे से काफी भिन्नता है, और कुछ इलाकों में तो शारीरिक आकार-प्रकार एकदम अलहदा है। जैसा कि विगत का अनुभव दर्शाता है, केंद्रीय और राज्य सरकारों द्वारा अपनाई किन्हीं नीतियों से बनी असमानता या जनजातीय, दूरदराज में बसने वाले, अल्पसंख्यकों से जुड़े मामलों में व्यवहार में संवेदनशीलता की कमी से गंभीर समस्याओं का उठ खड़ा होना लाजिमी है और इससे बनी अशांति का प्रगति और विकास की गति पर विपरीत असर पड़ता है।
जहां आधिकारिक विज्ञप्तियों में भले ही दावा किया जाता है कि भारत को ‘पूर्वाग्रही’ और ‘गैरजिम्मेदाराना’ आलोचना से कोई ‘फर्क नहीं पड़ता’ है वहीं इनको नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, देश में व्याप्त सांप्रदायिक गड़बड़ के मद्देनजर भारत का स्थान वैश्विक लोकतंत्र सूचकांक में नीचे खिसका है। अन्य विभिन्न कारणों के चलते विश्व असमानता सूचकांक रिपोर्ट और विश्व भ्रष्टाचार सूचकांक में भी हमारा देश निचले पायदानों की ओर गया है।
गंभीर चिंता का अन्य विषय करोड़ों लोगों का गरीबी रेखा के दायरे में आना है। 2011 की जनगणना के अनुसार, गरीबी रेखा के नीचे आने वाले नागरिकों की संख्या 26.9 करोड़ थी। पिछले एक दशक में जनसंख्या वृद्धि और कोविड 19 के मारक असर के चलते इनकी मौजूदा संख्या बहुत ज्यादा होने की आशंका है। गरीबी के अलावा, अन्य चिंताजनक समस्या आय में असमानता है। जैसा कि हालिया रिपोर्ट बताती है, भारत में चोटी के 1 फीसदी अमीरों के पास देश की कुल आमदनी का लगभग 22 प्रतिशत हिस्सा है और कमाई में निम्न आय वर्ग के 50 फीसदी के हाथ में केवल 13 फीसदी अंश आता है।
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गरीबी में महत्वपूर्ण कमी करना, समानतापूर्ण प्रगति और एक सुदृढ़ एवं समृद्ध भारत बनाने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि संवैधानिक ढांचे के तमाम अंग तेजी, दक्षता और ईमानदारी से काम करें। इसके अलावा, देशभर में सार्वजनिक व्यवस्था एवं शांति-सौहार्द्र बना रहे। कार्यपालिका में, निर्वाचित राजनीतिक तत्वों और नियुक्त किए गए नौकरशाहों, दोनों के कामकाज में, पिछले सालों में ह्रास हुआ है, मुख्यतः इसलिए कि काबीना मंत्री, जोकि अधिकांशतः अनुभवहीन और बहुत अलग पृष्ठभूमि से हैं, वे अपनी भूमिका को लेकर कुछ सीखने में उदासीन हैं और उनको अपनी जिम्मेवारियां निभाने में अपेक्षित गंभीरता की दरकार है। इससे बदतर, वे उन चहेतों को नियुक्त करते हैं जिन्हें अपने अंतर्गत आते विभागों के कामकाज में दखलअंदाज़ी करके पैसा बनाने की गर्ज से रखा जाता है। इससे कर्मचारियों में अदक्षता और गैरजिम्मेदाराना रवैया पनपता है और व्यवस्था में भ्रष्टाचार।
केंद्रीय सासंदों और राज्य विधानसभाओं के विधायकों के कामकाज में विफलता और भी अधिक चिंता का सबब है। पिछले कुछ सालों से, चुनाव लड़ने का खर्च बहुत अधिक बढ़ गया है। अवैध, भ्रष्ट और आपराधिक स्रोतों से भारी मात्रा में इकट्ठा किए गए धन का उपयोग कर अयोग्य उम्मीदवारों को जिता दिया जाता है। इससे संदिग्ध पृष्ठभूमि वाले विधायकों-सांसदों की संख्या बढ़ती जा रही है, भविष्य में यह अपराधी-राजनेता गठजोड़ में विस्तार करता है। जन हित से जुड़े अहम मुद्दों पर सदन में किसी भी किस्म की बहस करवाए बिना कानून अनुमोदित करवाए जा रहे हैं, सदन के सदस्य कार्यपालिका के कामकाज की जिम्मेवारी तय करवाने में अपनी भूमिका निभाने में असफल रहे हैं। ऐसे में जब कार्यपालिका और विधायिका, दोनों ही, अपना-अपना संवैधानिक फर्ज निभाने और तसल्लीबख्श काम करने में असफल होते जा रहे हैं। उम्मीद थी कि उच्च न्यायपालिका त्वरित संज्ञान लेकर दखल करेगी और चाबुक फटकारेगी। अफसोस कि उच्च अदालतों की इच्छाशक्ति और उत्साह में भारी ह्रास हुआ है।
दुर्भाग्यवश, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ यानी मीडिया भी कहीं कोने में दुबका है। मीडिया के अनेक अंगों पर काफी दबाव है या बिक चुका है। प्रतिष्ठित स्तंभकारों द्वारा महत्वपूर्ण नागरिक मुद्दों पर निडर होकर न लिखने का नुकसान बहुत बड़ा होता है।
नियत समय पर स्वतंत्र और ईमानदार चुनाव करवाने से लोकतंत्र कायम रहता है। हमारे निर्वाचन कानून में बहुत गंभीर कमियां हैं। जोड़तोड़ करके, पाला बदलने को राजी विधायकों को भारी रिश्वत देकर ‘तोड़ा’ जाता है। कानून को प्रभावी बनाकर इस नुकसानदेह प्रथा का उन्मूलन और सदन में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तत्वों की आमद को रोका जा सकता है। साथ ही साथ, भारत का चुनाव आयोग, जो अपने नख-दंत गंवा चुका है, उसे अपना कामकाज निर्भीक होकर करने की फौरी जरूरत है, जो कि इसके संवैधानिक प्रावधानों की दरकार भी है।
एक के बाद एक आई सरकारों के इन दावों के बावजूद कि भ्रष्टाचार खत्म हो गया है, यह सभी स्तरों पर जारी है। यह बहुत अफसोसनाक है कि भ्रष्टाचार को पकड़ने करने वाली अनेक संस्थाओं की अपनी विश्वसनीयता संदिग्ध बन चुकी है। वहीं लोकपाल, जो कि कई दशकों तक चली परिणामहीन बहसों से बाद बन पाया था, उसे अपनी उपस्थिति महसूस करवाना बाकी है। जब तक प्रभावशाली नियंत्रण न हो, भ्रष्टाचार कानून के शासन और हमारे लोकतंत्र की नींव को ही नष्ट कर देगा।
पिछले कुछ सालों में स्टार्टअप्स ने लासानी सफलता पाकर लोहा मनवाया है, जो नई सोच रखने वाले हमारे युवाओं की प्रतिभा और योग्यता का द्योतक है। अनेकानेक विपरीत कारकों के बावजूद, हमारी अर्थव्यवस्था बहुत बढ़िया कर रही है और उम्मीद है भारत एक बड़ी आर्थिक और सैन्य ताकत बनने की राह पर है। हालांकि यदि इस आकांक्षा की प्राप्ति करनी है तो इसके लिए देश में टिकाऊ सामान्य हालत बनाने होंगे। दुख है कि पिछले कुछ वर्षों में, भारत के कुछ हिस्सों में, सामाजिक ताना-बाना सांप्रदायिक तनाव, आपसी फूट और बढ़ते ध्रुवीकरण की वजह से बिगड़ा है। इस किस्म के अवसर दुश्मन देशों की एजेंसियों को सक्रिय होकर देश को अस्थिर करने का सुनहरा मौका प्रदान करते हैं। सामान्य माहौल की पुनर्स्थापना, सौहार्द्र पैदा करने और समुदायों के बीच नफरत और हिंसा को जड़ न पकड़ने देने के लिए ठोस प्रयास करना तुरंत जरूरी है। यह एक अति महत्वपूर्ण आवश्यकता है कि एक परस्पर विश्वासपूर्ण माहौल बने, सहिष्णुता और दूसरों के विचारों को जगह देना देशभर में व्याप्त रहे।
एक मजबूत और समृद्ध मुल्क बनने की राह में आगे बढ़ते हमारे कदमों में, हमारे नीति नियंताओं को भूलना नहीं होगा, अस्थाई तौर पर भी, कि भारत की संभावनाशील ताकत की जड़ें हमारी विशाल एवं विविधतापूर्ण जनसंख्या में हैं। इसमें किसी प्रकार के विचलन के परिणाम विध्वसंक हो सकते हैं।
लेखक जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री के पूर्व प्रधान सचिव हैं।