पहाड़ के मिज़ाज को देख बनें सुरक्षित घर
रमेश पठानिया
जुलाई माह का दूसरा सप्ताह हिमाचल प्रदेश के लिए कहर लेकर आया। कुल्लू में ब्यास नदी में आई अकस्मात् बाढ़ से जलस्तर इतना बढ़ गया कि नदी किनारे जो भी था नदी ने बहाने की कोशिश की। इनमें गाड़ियां, बसें, घर, दुकानें और सड़कें तक शामिल थीं। मनाली से इसकी शुरुआत हुई। फिर भारी बरसात, अकस्मात् बाढ़, बादल फटने की घटनाएं और निरंतर भूस्खलन ने हालात और खराब कर दिए। भूस्खलन से राष्ट्रीय राजमार्ग समेत प्रदेश के सभी मार्ग प्रभावित हुए। भूस्खलन और बादल फटने से अचानक आयी बाढ़ में अधिकतर जगह यानी मंडी, कुल्लू, शिमला व सिरमौर जिले में एक के बाद एक पक्के मकान गिरने लगे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 12000 घरों को नुकसान हुआ, 2200 घर बह गए वहीं प्रदेश में 361 से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी और करीब 40 व्यक्ति लापता हैं।
इन गिरने वाले भवनों में ज्यादा कंक्रीट के थे। जिनमें सीमेंट, ईंटों, पत्थर और लोहे का इस्तेमाल किया गया था। दरअसल, हिमाचल में पिछले तीस सालों में भवन निर्माण के तरीके में अलग तरह का बदलाव देखा है। लोगों के पास अगर घर बनाने के लिए ज़मीन कम है तो वे पंजाब जैसी भवन निर्माण कला का सहारा लेते हैं। स्तंभों पर पूरा घर खड़ा करना चाहते हैं। छह स्तम्भ जल्दी से नींव में डाले और जैसे-जैसे मंज़िलें बनानी हैं उनकी ऊंचाई बढ़ाते रहे। मिस्त्री,जो ज्यादातर प्रवासी हैं, ईंट या पत्थर का इस्तेमाल कर कुछ ही दिनों में घर खड़ा कर देते हैं। न मिट्टी की जांच व न घर के लिए तय जमीन की भार सहन क्षमता की परख। शिमला, सोलन और कुल्लू में जो घर पिछले 15 सालों में बने हैं वे घर के ऊपर घर हैं या एक-दूसरे के साथ सटे हैं। एक घर को अगर बारिश, भूस्खलन या भूकंप से नुकसान होगा तो साथ के घर को भी होगा। शिमला, कुल्लू और आनी में यही हुआ।
पहाड़ में पहले काठ कुणी घरों का रिवाज था, जो भौगोलिक दृष्टि से पहाड़ में मौसम की जटिलता से जूझना जानते थे। बता दें कि काठकुणी भवन निर्माण कला में चिनाई में अधिकतर पत्थर का प्रयोग होता है और पत्थर के रदों के बीच लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। लकड़ी और स्लेट की छत के चलते इन घरों पर वजन कम होता था। कुल्लू, नग्गर, मनाली, मंडी, कांगड़ा में ऐसे सौ साल पुराने घर अब भी खड़े हैं। वहीं शिमला, किन्नौर, सिरमौर में भी काठकुणी घर और मंदिर वर्षों से कायम हैं।
हालिया बरसात ने शिमला और कुल्लू जिले में सबसे ज्यादा नुकसान किया। शिमला में समरहिल में भूस्खलन में 20 से ज्यादा लोगों की जान गयी, बाकी जगह घर एक के ऊपर एक गिरने लगे। दरअसल कुल्लू और शिमला में अत्यधिक भवन निर्माण हुआ है। कई व्यवसायी लोग ज़मीन विक्रेताओं के साथ मिलकर फ्लैट्स या अपार्टमेंट्स बना रहे हैं और ऊंचे दामों पर बेच रहे हैं। शिमला ढली से लेकर तारादेवी तक फैल गया है।
कुल्लू बाशिंग तक फैल गया है और वह दिन दूर नहीं जब कुल्लू और भुंतर जुड़वां शहर हो जाएंगे क्योंकि 9 किमी की दूरी में सड़क और पहाड़ियों के किनारे घर और व्यावसायिक स्थल ही होंगे। साल 2011 की जनगणना के अनुसार कुल्लू सदर में 4656 घर थे जिनमें 18536 लोग रहते थे। अब 2023 आते-आते आबादी तेज़ी से बढ़ गयी और घरों की संख्या भी। कुल्लू शहर घाटी में है व दोनों तरफ पहाड़ियांं जिन पर घर ही घर नज़र आते हैं,जंगल न के बराबर, घर के साथ घर सटा है। पहाड़ी जगहों का जिस तीव्रता से शहरीकरण हुआ है, उससे वहां पर हर तरह का निर्माण हुआ है। शिमला, कुल्लू, सोलन, मंडी, बिलासपुर, मनाली में बेतहाशा घरों का निर्माण हुआ है। बढ़ती आबादी और संयुक्त परिवारों का बंट जाना भी इसके लिए जिम्मेदार है। जिस तीव्रता से घर बनाये जा रहे हैं, पानी, बिजली आदि सुविधाओं की व्यवस्था मुश्किल हो सकती है। अग्निकांड आदि आपात स्थिति में, ऐसे घरों में मदद पहुंचाना भी कठिन होता है। दरअसल उत्तराखंड और हिमाचल दोनों जगह बारिशें, भूस्खलन, और अत्यधिक भवन निर्माण हुआ है। इसके कारण गांवों से शहरों में जाकर बसना और लोगों का पहाड़ों की तरफ रुख है।
शहर और उसके साथ पहाड़ियों पर बने घरों का बोझ उठाने में एक समय के बाद जमीन असमर्थ हो सकती है और उत्तराखंड के जोशीमठ की तरह जमीन धंस सकती है। शिमला के अधिकतर घरों में लोग बरसातों में सांसें रोक कर जीते हैं कि ज्यादा बरसात से सब बह जाएगा। संजौली में सड़क के ऊपर से नीचे देखें तो एक के ऊपर एक घर बना है। इसमें नगरपालिका की ख़ास चूक है, सवाल है टाउन प्लानिंग में बहुमंजिला इमारतों का प्रावधान क्यों रखा गया? दो-तीन मंजिला घरों को अच्छी बुनियाद के बूते लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। लेकिन शिमला में जितनी जमीन नहीं है उससे ज्यादा घर हैं। यही हाल कुल्लू का भी होने लगा है।
सरकार को ऐसी जगहों को चिन्हित करना होगा जहां पर भूस्खलन का ख़तरा है। वहां आसपास अगर निर्माण की आवश्यकता है तो प्री-फैब्रिकेटेड हाउस बनाये जा सकते हैं। सरकारी संस्थानों के लिए भी ऐसे घर बनाएं तो किफायती-सुरक्षित रहेंगे। वहीं पुरानी पद्धति से भवन निर्माण को फिर से अपनाना होगा। स्तम्भों पर एक के ऊपर एक मंजिल खड़ी करने की पद्धति वाले निर्माणाधीन और प्रस्तावित भवनों को चेतावनी देने की आवश्यकता है। सरकार पहाड़ी ढलानों पर घर बनाने से पहले उस जगह की जांच करवाना अनिवार्य कर दे। घर के साथ सटे घर बनाने की अनुमति नहीं हो। वहीं अवैध निर्माण के लिए नदी तटों पर अतिक्रमण से सख्ती से निपटना जरूरी है। हिमाचल में अगर इन सब बातों का ध्यान रखेंगे तो भविष्य में प्रदेश को ज्यादा नुकसान से बचा सकते हैं।