मां की हार का बदला चाहते हैं बृजेंद्र, दुष्यंत के सामने साख बचाने की चुनौती
दिनेश भारद्वाज/ट्रिन्यू
उचाना कलां, 28 सितंबर
हरियाणा की हॉट विधानसभा सीट उचाना कलां के राजनीतिक समीकरण इस बार बदले हुए हैं। दो बड़े राजनीतिक घरानों की साख का सवाल यह चुनाव बन गया है। बांगर के चौधरी व पूर्व केंद्रीय मंत्री चौ़ बीरेंद्र सिंह के बेटे बृजेंद्र सिंह कांग्रेस के टिकट पर चुनावी मैदान में हैं। 2019 के चुनाव में बीरेंद्र सिंह की पत्नी व उस समय की मौजूदा विधायक प्रेमलता को शिकस्त देने वाले पूर्व डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला एक बार फिर जजपा के टिकट पर चुनाव में ताल ठोक रहे हैं।
बृजेंद्र अपनी माता प्रेमलता की हार का बदला लेने की जुगत में हैं। हालांकि, 2019 से अभी तक के राजनीतिक हालात काफी बदल चुके हैं। सवा चार वर्षों तक भाजपा के साथ गठबंधन सहयोगी रहते हुए सरकार में डिप्टी सीएम रहे दुष्यंत चौटाला को इसकी नाराजगी झेलनी पड़ रही है। भाजपा-जजपा गठबंधन सरकार के समय ही एक साल से भी अधिक समय तक दिल्ली बाॅर्डर पर तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का बड़ा आंदोलन चला।
विधानसभा चुनावों में भी किसान आंदोलन बड़ा मुद्दा बना हुआ है। उस समय चूंकि दुष्यंत भी भाजपा के साथ थे। ऐसे में इस बात की नाराजगी अब उन्हें झेलनी पड़ रही है। उचाना सीट पर दुष्यंत चौटाला के दादा व पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला भी 2009 में विधायक रह चुके हैं। चौटाला ने उस समय कांग्रेस सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे चौ़ बीरेंद्र सिंह को शिकस्त दी थी। हालांकि, इसके बाद से बीरेंद्र सिंह ने विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा है। अब वे अपने बेटे को राजनीति में आगे कर चुके हैं। आईएएस अधिकारी रहे बृजेंद्र सिंह वीआरएस लेकर राजनीति में आए और 2019 में भाजपा के टिकट पर हिसार लोकसभा क्षेत्र से सांसद बने। 2019 में बृजेंद्र सिंह का हिसार में भी दुष्यंत के साथ मुकाबला हो चुका है। 2014 में दुष्यंत चौटाला इनेलो टिकट पर हिसार से सांसद बने थे। 2018 में उन्होंने इनेलो से अलग होकर जननायक जनता पार्टी का गठन कर लिया और 2019 का लोकसभा चुनाव हिसार से लड़ा। बृजेंद्र और दुष्यंत में हुए मुकाबले में बृजेंद्र सिंह ने दुष्यंत को बड़े अंतर से शिकस्त दी थी। ऐसा भी माना जाता है कि 2009 में चौटाला के हाथों हुई पिता की शिकस्त का बदला बृजेंद्र ने हिसार में चौटाला के पोते दुष्यंत को पटकनी देकर ले लिया था। उचाना कलां में छातर व करसिंधु सहित कई ऐसे बड़े गांव हैं, जिन्हें लोकदल का गढ़ माना जाता रहा है। चौटाला परिवार में हुए बिखराव और मौजूदा राजनीतिक हालातों में इन गांवों के समीकरण बदले हुए हैं। चौ़ बीरेंद्र सिंह के पैतृक गांव डूमरखां ने 2019 में बीरेंद्र सिंह की पत्नी प्रेमलता को भी हरा दिया था, लेकिन इस बार गांव बेटे बृजेंद्र सिंह को अच्छा रिस्पांस दे रहा है।
छातर गांव ने दिए दो विधायक
करीब 9500 मतदाताओं वाले छातर गांव ने दो विधायक दिए हैं। 2000 के विधानससभा चुनाव में लोकदल के टिकट पर भाग सिंह छातर ने उचाना कलां से विधानसभा चुनाव जीता। इसी गांव के पोल्हू छातरिया को भी लोग याद करते हैं। पोल्हू छापरिया को ‘मोल्हड़’ नेता भी कहा जाता था। वे उचाना कलां से नहीं, बल्कि कहीं दूर जाकर पाई हलके से विधायक बन गए थे। 2008 के परिसीमन में पाई खत्म हो गया। पोल्हू छापरिया अपने हाथ में दो सींग वाली जेली लेकर चला करते थे। इसका एक सींग टूटा हुआ रहता था। छातर के बलिंदर सिंह बताते हैं कि गांव में दस वर्षों के कार्यकाल में नौकरियां नहीं मिलीं। बेरोजगारी बड़ी समस्या है। इसी गांव के मनोज कुमार बताते हैं कि दुष्यंत चौटाला ने काम तो करवाए हैं, लेकिन किसान आंदोलन के दौरान वे किसानों की बजाय सरकार के साथ रहे। इससे उनके प्रति नाराजगी है।
गुलजारी लाल नंदा पर फेंके थे उपले
छातर गांव में पूर्व प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा का भी आना हुआ। ग्रामीण बताते हैं कि गुलजारी लाल नंदा अपनी बेटी के साथ गांव में आए थे। उस समय लोगों में नाराजगी थी और नंदा पर लोगों ने उपले फेंक दिए थे। उनकी बेटी ने जब कहा कि ये अपमान कर रहे हैं तो नंदा ने कहा कि यह अपमान नहीं स्वागत है। गांव में मनसा नाथ मंदिर के साथ बने तालाब में कांच की सीढ़ियां होने की बात बुर्जुग करते हैं। इस मंदिर के प्रति साथ लगते सात-आठ गांवों के लोगों की आस्था है। लोकदल का गढ़ रहे इस गांव में किसान आंदोलन का व्यापक असर है। यह ऐसा गांव है, जिसमें आज के दिन बीरेंद्र सिंह या बृजेंद्र सिंह की बजाय पूर्व विधायक प्रेमलता का अधिक प्रभाव है।