बदलाव से जुड़ा निर्भीक लेखन
प्रगति गुप्ता
लेखक संजय चौबे की रचनाशीलता पर ‘मंतव्य’ का विशेषांक, संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय के संपादन में एक जरूरी अंक कहा जा सकता है। कहते हैं कि जिस परिवार या समाज में सवाल-जवाब करने की असीमित आज़ादी हो, जीवन को देखने और समझने की दृष्टि स्पष्ट हो जाती है। साथ ही, जिन परिवारों में रामचरितमानस और महाभारत जैसे ग्रंथों की चर्चा होती है, वहां उपजाऊ मन में अंकुरण फूटने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है। लेखक ऐसे ही माहौल से आते हैं। उन्होंने जो यथार्थ महसूस किया, वही भावनाओं और संवेदनाओं के रूप में उतरकर साहित्य का हिस्सा बना।
लेखक ने कविता, उपन्यास और निबंध विधाओं पर अपने विश्लेषण को रचने की कोशिश की है। समीक्षकों के अनुसार, वे ब्योरों में न जाकर सांकेतिकता से काम लेते हैं, जो पाठक को अंत तक पढ़ने पर मजबूर करता है। उनका उपन्यास ‘9 नवंबर’ राजनीति के वर्तमान स्वरूप की उन जड़ों तक पहुंचता है, जिनका आशय बर्लिन की दीवार के गिरने और राम जन्मभूमि के शिलान्यास से है। लेखक की सोच में लेखन सामाजिक बदलाव का एक सशक्त माध्यम है, इसलिए वे वर्तमान सामाजिक मुद्दों को ‘बेतरतीब पन्ने’ और ‘सलीब पर टंगे सवाल’ उपन्यासों में उठाते हैं।
लेखक की कलम निर्भीकता को साधती है, चाहे विषय कश्मीर से जुड़ा हो या कोई अन्य। लेखक की कविताओं में गहरी बेचैनी, छटपटाहट है तो उससे जुड़े द्वंद्व, दमन, उत्पीड़न, अनाचार, गुलामी या बंधन जैसे मनोभाव भी प्रकट होते हैं।
‘हक़ और आज़ादी कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि कोई तुम्हें थाली में सजा कर देगा। इसके लिए तुम्हें संघर्ष करना होगा।’ ‘वह नारी है’ निबंध संग्रह में लेखक नारी को मानवीय रूप में देखना चाहते हैं। लेखक का साहित्य किसी एक विमर्श से जुड़ा नहीं है। वहां सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में विभिन्न मुद्दों से जुड़े विमर्श हैं, साथ ही नई संभावनाओं को तलाशते विचार और जाग्रत सोच भी है।
पुस्तक : मंतव्य : संजय चौबे की रचनाशीलता संपादक और प्रकाशक : हरे प्रकाश उपाध्याय पृष्ठ : 151 मूल्य : रु. 100.