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पुस्तक संस्कृति और युवा पीढ़ी

06:32 AM Jul 11, 2022 IST
पुस्तक संस्कृति और युवा पीढ़ी
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समाज की जिम्मेदारी

वर्तमान सोशल मीडिया के दौर में युवा पीढ़ी का पुस्तकों के प्रति मोह भंग होना गहन चिंता व चिंतन का विषय है। हिमाचल के राज्यपाल द्वारा विद्यार्थियों में पुस्तकों के प्रति रुचि पैदा करने के लिए जो कार्यक्रम चलाया गया है वह अत्यन्त सराहनीय कदम है। इस कदम से युवाओं में पुस्तक संस्कृति पनपेगी। पुस्तकों से दूरी के कारण ही युवा पीढ़ी संस्कारों से भी दूर होती जा रही है। युवा पीढ़ी में पुस्तकों को पढ़ने के संस्कार डालने की जिम्मेवारी केवल शिक्षकों, बच्चों के माता-पिता की ही नहीं बल्कि पूरे समाज की है।

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सतीश शर्मा, माजरा, कैथल

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ज्ञान ही शक्ति

पुस्तकें अनमोल धरोहर हैं क्योंकि लेखकों ने इनमें अमूल्य उपहार बिखेर रखे हैं, बस इन्हें सही से पढ़कर खोजने वाला चाहिए। पुस्तकों के पढ़ने से ही इंसान के ज्ञान और अनुभव में वृद्धि होती है जिससे वह सुसंस्कृत और सभ्य होकर प्रगति की ओर आगे बढ़ता है। वह समाज और राष्ट्र में अलग ही दिखाई देता है। समाज सुधार भी इसी से संभव है। यह दुखद है कि आज युवा पीढ़ी इससे निरंतर विमुख हो रही है। इसके सोशल मीडिया के साथ अन्य कई कारण हैं, जिससे उसका सही विकास ही नहीं हो पा रहा है और वह पिछड़ ही रहा है। इसलिए हम सबको मिलकर पुस्तकों से आनंद और लाभ लेना होगा तभी हम आगे बढ़ सकते हैं क्योंकि ‘ज्ञान ही शक्ति’ है।

वेद मामूरपुर, नरेला

सर्वांगीण विकास जरूरी

हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल की पहल बहुत सराहनीय है कि वे स्कूलों में विद्यार्थियों को पुस्तकें देकर प्रेरित करते हैं। वैसे तो स्कूली पाठ्यक्रम की हिंदी और संस्कृत विषय की पुस्तकों में भी युवाओं को प्रेरित करने वाली बहुत सामग्री होती है। लेकिन कम शिक्षक ऐसे होंगे जो अपने विद्यार्थियों को इन विषयों को इस उद्देश्य से पढ़ाते होंगे कि इससे भावी पीढ़ी में नैतिकता, मानवता और देशप्रेम की भावना प्रफुल्लित हो। शिक्षा का असली मकसद विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास भी होता है। शिक्षकों को चाहिए कि वे भावी पीढ़ी को धार्मिक, देशभक्ति और अन्य प्रेरक पुस्तकों को पढ़ने के लिए भी प्रेरित करें।

राजेश कुमार चौहान, जालंधर

अनुभवों का भंडार

आज के मोबाइल दौर में युवा पीढ़ी पुस्तकों से दूर भागती नज़र आती है। उनकी जिज्ञासा और खोज गूगल तक सिमट रही है। पुस्तकें ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराती हैं। विद्वान होने से सम्मान पाने तक की यात्रा पुस्तक संस्कृति से ही संभव है। पुस्तकें अनुभवों का भंडार हैं। चरित्र निर्माण की आधारशिला है। हमें सकारात्मक ऊर्जा देती हैं। पुस्तक पढ़ने से हमारा शब्दकोश समृद्ध बनता है। हमें अपने विचारों और भावों को आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत करने का हौसला देती हैं। पुस्तकें सचमुच नदी के समान हैं, जो प्यास भी बुझाती हैं और पवित्र भी करती हैं।

नरेन्द्र सिंह नीहार, नयी दिल्ली

अध्यापक स्वयं भी पढ़ें

पुस्तकें ज्ञान का भंडार होती हैं। विभिन्न पुस्तकों में संचित ज्ञान के आधार पर ही हमें इतिहास, भूगोल, संस्कृति, आध्यात्मिकता, विज्ञान तथा देश-प्रदेश के लोगों के बारे में पता चलता है! विभिन्न कक्षाओं में पढ़ाया गया पाठ्यक्रम ही काफी नहीं। परंतु आजकल अन्य पुस्तकें पढ़ने का रिवाज खत्म होता जा रहा है। इस संदर्भ में हि.प्र. के गवर्नर का विद्यार्थियों में पाठ्यक्रम के अलावा अन्य पुस्तकें पढ़ने के लिए दिलचस्पी पैदा करने का प्रयास काबिलेतारीफ है। यह भी कि अध्यापक ही पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें नहीं पढ़ते। उन्हें स्वयं भी अन्य पुस्तकें पढ़नी चाहिए।

शामलाल कौशल, रोहतक

सराहनीय प्रयास

आज टीवी, कंप्यूटर मोबाइल की दुनिया में पुस्तक पठन संस्कृति सिमटती जा रही है। इसी के चलते विद्यार्थी पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकों के अध्ययन से दूर है। विद्यालयों में पुस्तकालय से भी नहीं के बराबर शिक्षक एवं विद्यार्थी पुस्तक लेकर पढ़ते हैं। वह प्रायः रंगीन पत्र-पत्रिकाओं को देखने-पढ़ने तक सिमट कर रह गया। आज शिक्षक व माता-पिता युवाओं को पाठ्यक्रम से हटकर पुस्तक पढ़ने की सलाह नहीं देते। ऐसे में युवाओं को पुस्तक भेंट कर पढ़ने के प्रति कोई जागरूक करता है तो यह प्रयास प्रशंसनीय है।

दिनेश विजयवर्गीय, बूंदी, राजस्थान

पुरस्कृत पत्र

आनलाइन जीवनशैली का अंग

आजकल के युवा व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम ,टेलीग्राम, शेयर चैट आदि में ज्ञानार्जन, मनोरंजन एवं सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए उलझे रहते हैं। इससे प्रतीत होता है कि छात्र-छात्राओं का अध्ययन संबंधी पुस्तकों के प्रति रुझान कम है। सोशल मीडिया, गूगल पर भी पुस्तकें जेपीजी, पीडीएफ अथवा अन्य फॉर्मेट में उपलब्ध हैं। ऑनलाइन अध्ययन एवं ऑनलाइन सिलेबस कोरोना काल में प्राथमिकता से जीवनशैली का अंग बन गए हैं। फिर भी विद्यार्थियों का पुस्तक प्रेम कम नहीं होने देना चाहिए। साहित्यिक रचनाओं, रचनाकारों एवं संबंधित पाठ्यक्रम का अध्ययन करना अब उतना लोकप्रिय नहीं रहा है। फिर भी पठन-पाठन से ज्ञानवर्धन होता है।

युगल किशोर शर्मा, फरीदाबाद

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