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ब्लॉग चर्चा

08:42 AM Dec 25, 2023 IST

मंजू मिश्रा

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बोली और भाषा एक-दूसरे के पूरक होते हुए भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। ऐसा मेरा व्यक्तिगत विचार है। आप सब भी समझते ही हैं कि बोली तो कोस-कोस पर बदल जाती है। एक ही भाषा-भाषायी क्षेत्रों में बोलियों का बड़ा फर्क आ जाता है। मैं यहां पर ख़ासतौर से अहिंदी भाषी या ग़ैर-हिन्दी भाषी जगहों पर जन्मे और पले-बढ़े लोगों के बारे में बात कर रही हूं। यदि उनमें बोली की समझ आ जाएगी, संगीत और साहित्य सुन कर समझ में आने लगेगा, पढ़ने की, सुनने की, बोलने की रुचि जागेगी, ऐसे में लिपि सीखने की ललक भी स्वयं ही जागेगी। इसलिए शुरुआत में लिपि पर अधिक ज़ोर देने के बजाय उनको बोली से जोड़ने पर ज़ोर ज्यादा होना चाहिए।
बोली पहले सीखने पर व्याकरण का काफ़ी कुछ हिस्सा तो अपने आप ही समझ में आने लगता है जिससे लिपि सीखना सरल भी होता है और उसकी गति भी तेज़ होती है। बोली पहले सिखाने का प्रयोग मैंने मेरे कुछ छात्रों के साथ करके देखा जो सफल रहा। उनको अक्षर और मात्राएं तो साथ में सिखायीं लेकिन बातचीत पर ज्यादा ज़ोर दिया। बोली में देसी समझ वाली बातों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है। मैंने इसी तरह की जो कोशिश की उसके तहत शुरुआत में उनको अपनी बात रोमन में लिखने की छूट भी दी। इन छात्रों की सीखने की गति काफ़ी तेज़ थी क्योंकि वे सुनी हुई कहानियों को तथा और भी नयी कहानियों को ख़ुद पढ़ना चाहते थे। चूंकि बोलना और समझना वे भलीभांति शुरू कर चुके थे तो अक्षर और मात्रा जोड़-जोड़ कर शीघ्र ही वे पढ़ने और समझने लगे। वे संदर्भ समझ कर ख़ुद मतलब समझ सकते थे, इसलिए व्याकरण का पूरा ज्ञान न होना भी उनके आड़े नहीं आया।
इसके विपरीत मेरी एक चीनी छात्रा, जिसने पहले लिपि सीखी वह लिखा हुआ तो सब बहुत अच्छी तरह से पढ़ लेती थी लेकिन उसको व्याकरण और अर्थ सिखाने में बहुत परेशानी होती थी और समय भी बहुत लगता था। सारांश यह कि मैं पहले बोली फिर भाषा और लिपि पर बल दिए जाने के पक्ष में हूं। हालांकि, किसी भी भाषा के अस्तित्व के लिए दोनों आवश्यक हैं क्योंकि बिना लिपि के भाषा को ज़िंदा नहीं रखा जा सकता। ठीक वैसे ही जैसे इंसान को ज़िंदा रखने के लिए शरीर और आत्मा दोनों चाहिए, किसी एक से काम नहीं चलता।
साभार : मनुकाव्य डॉट वर्डप्रेस डॉट कॉम

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