सांसारिक भ्रम से पार पाना ही परमानंद
प्रदीप कुमार राय
क्या देखना है और किस तरह से देखना है? क्या सुनना है और किस तरह से सुनना है? इन दो सवालों का सही जवाब अगर पता हो तो मनुष्य के जीवन के लगभग सभी संताप समाप्त हो जाएं। यह उस भारतीय ज्ञान परम्परा का निष्कर्ष है जिसने हजारों साल अपने सिद्धांतों को परीक्षण करके पकाया। यह किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों का मंतव्य भर नहीं।
यूं तो युगों-युगों से सही देखने और सुनने की कला मनुष्य के उद्धार के लिए आवश्यक थी, क्योंकि संसार का चक्र ही ऐसा है कि यहां बड़े-बड़े सयाने विद्वान भ्रम का शिकार हो जाते हैं। आज के डिजिटल दौर में सूचनाओं के अपार समंदर में संसार की वास्तविकता को लेकर मतिभ्रम और भी घनीभूत हो गया है। ऐसे में जरूरी है कि वास्तविकता को समझने की भारतीय ज्ञान परम्परा द्वारा सुझाई विधि को जान और समझ
लिया जाए।
बड़ी रुचिकर बात है कि इस विधि को भारतीय ज्ञान परम्परा के एक श्लोक की आधी पंक्ति में समझा जा सकता है। यही भारतीय धर्म के दर्शन की खूबसूरती है कि एक पंक्ति… आधी पंक्ति में मनुष्य को उसके कल्याण का मार्ग बता दे। आदि गुरु शंकराचार्य की परम्परा से यह श्लोक आया है:
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः। अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥
सबसे पहले तो यह समझ लेना आवश्यक है कि यह कोई एक श्लोक मात्र नहीं है। यह उन आदि गुरु शंकराचार्य की परम्परा का जगत को कल्याणकारी उपहार है, जिन्होंने अगण्य ग्रन्थों के सारे ज्ञान का निचोड़ निकाल कर दिया।
वैसे तो यह पूरा श्लोक विस्तार में समझना ब्रह्मांड के वास्तविक रूप को जानने के लिए आवश्यक है, परंतु इसकी आधी पंक्ति अपने आप में एक पूर्ण और व्यापक विचार देती है। ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ अर्थात् ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत जिसे आप वास्तविक मान बैठे हैं, वो मिथ्या है।
विडम्बना यह है कि ज्यादातर लोग यही सवाल उठाते हैं कि चौबीस घंटे जो संसार हमारे अहसास में खड़ा नजर आता है, जिसे हम ठोस रूप में महसूस करते हैं, उसको मिथ्या कहें, तो व्यवहार कैसे करेंगे?
जबकि इसका वास्तविक अर्थ यह है : संसार एक वास्तविकता तो है, पर निरंतर तेज गति से हमारे आगे निकलने वाली वास्तविकता है। एक विद्वान ने जगत के मिथ्या होने का अंग्रेजी में बड़ा खूबसूरत अनुवाद किया है: ‘वर्ल्ड इज पासिंग रियल्टी।’ यानी ऐसी रियल्टी जो इतनी तेजी से हमारी आंखों के आगे दौड़ती है, पता ही नहीं चलता कि क्या हमारे समझ आया, क्या नहीं? एक फिल्मी गीत की पंक्ति इस आध्यात्मिक तथ्य को बेहतर तरीके से कहती है। पंक्ति है- ‘आदमी ठीक से देख पाता नहीं और परदे पर मंजर बदल जाता है।’ संसार के परदे पर बिजली की रफ्तार से बदलता मंजर मनुष्य के अंदर मतिभ्रम की स्थिति पैदा करता है। कभी यह सच लगता है… कभी वो सच लगता है। आज जो सच है, वो कल झूठ भी लगता है। अधिकांश लोगों ने अपनी अधिकांश ऊर्जा मिथ्या के पीछे भागने में लगा दी है।
इसका समाधान क्या है?
भारतीय मनीषियों ने समाधान में ऐसा कतई नहीं कहा कि आप संसार की तेज गति से बनती बिगड़ती रियलिटी को देखना ही बंद कर दो। सिर्फ इतना स्वीकार कर लें कि संसार के परदे पर चल रही चीजों को लेकर ज्यादा निष्कर्ष निकालने संभव ही नहीं। यह तय मानकर चलें कि मिथ्या प्रकृति का जगत आपको कोई पक्का निष्कर्ष निकालने ही नहीं देगा।
फिर सत्य क्या है?
भारतीय ज्ञान परम्परा में ब्रह्म को सत्य कहा गया है। ब्रह्म यानी जीव का ही सत्-चित और आनंद स्वरूप। मनुष्य की चेतना, उसके अपने होने का आनंद और उसके अस्तित्व का अहसास ब्रह्म है। भारतीय ज्ञान, अध्यात्म परम्परा के अनुसार मनुष्य विशुद्ध चेतना है, इसलिए जीव को ब्रह्म कहा है। अगर मनुष्य खुद को चेतना के अलावा सिर्फ अपने नाम से ही पहचाने, संसार की वस्तुओं से जोड़कर पहचाने तो उसका आनंद समाप्त हो जाता है।