For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

जम्मू के प्रति आश्वस्त नहीं रह सकती भाजपा

09:59 AM Sep 16, 2024 IST
जम्मू के प्रति आश्वस्त नहीं रह सकती भाजपा
Advertisement
ज्योति मल्होत्रा

जम्मू से कठुआ तक के राष्ट्रीय राजमार्ग पर भाजपा के चुनावी होर्डिंग्स लगे हुए हैं, जिनपर लिखे एक पंक्ति वाले नारे का मकसद है मतदाता के मानस में 2014 से पहले और बाद वाली स्थिति की तुलना दिखाते हुए अपनी बात सरल तरीके से बैठाना। साल 2014 में इस पूर्व राज्य ने आखिरी बार मतदान किया था और वर्तमान में कुछ ही दिनों बाद केंद्र शासित प्रदेश के रूप में यहां पूरे एक दशक बाद चुनाव होने जा रहे हैं।
इन होर्डिंग्स पर मौजूद तस्वीरों में,एक तरफ है गहरा धुंआ, नारे लगाने वालों के लहराते हाथ और जलती कारें तो इसके विपरीत दूसरे हिस्से में हैं चमकदार छवियां, जो उम्मीद और समृद्धि का प्रतीक हैं। भाजपा के विज्ञापन अभियानों की विशिष्टता के अनुरूप, इनमें भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा पूरे फ्रेम में केंद्रीय है। शब्दों के रूप में लिखा हैः मातम-स्वागतम, डर-निडर, अशांति-शांति। और एक नारा है ः ‘शांति, स्थिरता और विकास... जम्मू को मोदी पर विश्वास’।
लेकिन, यक्ष प्रश्न है कि क्या जम्मू का मतदाता मोदी के साथ-साथ भाजपा के स्थानीय उम्मीदवारों पर भी विश्वास करेगा, जो पीर पंजाल के दक्षिण में फैली इस विशाल और दुरूह भौगोलिकता के 43 निर्वाचन क्षेत्रों में अपनी ताल ठोक रहे हैं – हालांकि वर्तमान विधानसभा चुनाव पहली बार बदले हुए, पुनर्गठित परिदृश्य में लड़े जा रहे हैं, क्योंकि निर्वाचन क्षेत्रों के हालिया परिसीमन के बाद इस क्षेत्र में छह सीटें और जुड़ गई हैं। इसके अलावा नई विधानसभा में पांच विधायक मनोनीत होंगे –इस प्रकार विधानसभा में पूर्व में 87 की तुलना में कुल 95 विधायक होंगे। ऐसे चुनाव में, जहां हर सीट मायने रखती है, जीत और हार के बीच जम्मू संभाग संतुलन बना सकता है।
दुनिया के इस हिस्से में, जहां पाकिस्तान के साथ लगती अंतर्राष्ट्रीय सीमा पत्थर फेंकने जितनी दूरी पर है, सभी राजनीतिक दल लोगों का प्यार जीतने की खातिर चाणक्य के दिए प्राचीन सूत्र अर्थात साम-दाम-दंड-भेद पर अमल करने में निश्चित रूप से जुटे हुए हैं। भाजपा के लिए, जिसने 2014 के चुनाव में कुल 25 सीटें जीती थीं, सभी जम्मू संभाग से- लेकिन कश्मीर घाटी से एक भी नहीं थी– उसके लिए यह दांव स्पष्टतः बहुत बड़ा है।
राह चलते मतदाता से बात करें तो भ्रम की स्थिति है। ‘हमें क्या मिला’ वाली टीस अगर भाजपा समर्थक जम्मू के दिल में इसी प्रकार बनी रही, जबकि 1 अक्तूूबर को मतदान होना है,तो यह रोष किला ढहने का कारक बन सकता है। मतदाता रोज-ब-रोज भयानक यातायात के दुःस्वप्न से गुजर रहा है (भले ही नितिन गडकरी का मंत्रालय नए-नए पुल और फ्लाईओवर क्यों न बना रहा हो), जबकि ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने के सपनों के बावजूद खुले नालों को ढकने और कूड़े के ढेरों को साफ करने के वादे पूरे नहीं हुए। पेंशन मिलने में देरी हो रही है और सरकारी योजना के लाभार्थियों को मानव-रहित ऑनलाइन प्रणाली की प्रक्रियाओं से पार पाने में मुश्किल हो रही है, तिस पर लिंक बीच-बीच में लगातार टूटता रहता है- और फिर आपको अपना काम निकलवाने को उन्हीं पुराने लोगों को रिश्वत देनी पड़ती है।
इसके अलावा, जब शेष भारत से लोग गर्मियों में सीधे कश्मीर घाटी के ट्यूलिप गार्डन, डल झील की सैर तो सर्दियों में गुलमर्ग-पहलगाम का रुख करते हों, जिससे कि इंस्टाग्राम इत्यादि पर डालने को नवीनतम मसाला भी मिल सके। ऐसे में, जम्मू घूमने वाले कम ही बचते हैं– यहां तक कि पर्यटकों से भरी 25 में से 15 रेलगाड़ियों के यात्री वैष्णो देवी तीर्थ के लिए सीधे कटरा स्टेशन तक जाने वाली ट्रेन पकड़ते हैं। लिहाजा व्यापार ठंडा है। बाहरी लोगों के मन में बैठे डर- वास्तविक और अवास्तविक– दोनों कायम हैं, शायद इसीलिए यहां निवेश करने में इच्छुक कुछ कॉरपोरेट कंपनियां बड़ी रकम लगाने में अभी भी हिचकिचा रही हैं। हालांकि 2015 से 2018 तक चली भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार ने दो नए एम्स अस्पताल, एक आईआईएम और एक आईआईटी बनाने का वादा किया था। इसमें से कुछ भी नया नहीं है। जम्मू वालों ने जो आज पाया है वह यूपी और बिहार वालों को हमेशा से मिलता आया है– राजनेताओं के खोखले वादे, जो बाद में हवा-हवाई हो जाते हैं। लेकिन निश्चित रूप से जम्मू को अपने लिए गरीब और दूर के चचेरे भाई सरीखा बर्ताव पसंद नहीं है। एक समस्या जो खासतौर पर काफी गहरी और साफ दिखाई देती है वह यह कि भाजपा नेतृत्व और इसके लोगों के बीच आपसी संपर्क बहुत कम है,बेशक इसे दूर किया जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इसके लिए पहले ही काफी देर नहीं हो चुकी? ( हालांकि भाजपा के लिए जो एक स्थिति फायदेमंद है, वह यह कि इस इलाके में कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन या तो बुरी तरह छितराया हुआ है या फिर है ही नहीं।) असल सवाल है कि आरएसएस विचारक राम माधव कितना कर पाएंगे,हालांकि उन्होंने भाजपा-पीडीपी गठबंधन बनाने में अहम भूमिका निभाई थी किंतु बाद में मोदी सरकार ने उन्हें किनारे कर दिया। हाल ही में उन्हें अनदेखी के अंधेरे कोने से बाहर निकालकर पुनः सक्रिय किया गया है। भाजपा बेतरह कामना कर रही है कि अगले कुछ दिनों में इस पूरे केंद्र शासित प्रदेश में होने वाली प्रधानमंत्री मोदी की रैलियां माहौल बनाने में मददगार हों।
सवाल यह है कि ऐसी नौबत बनी क्यों। क्या भाजपा ने जम्मू को कभी शिकायत न करने वाले परिजन की भांति हल्के में लिया, खासतौर पर जब जम्मू ने हमेशा उसे जितवाकर साथ निभाया? दोनों ही पक्षों को मालूम है कि यही बिंदु वैचारिक लड़ाई का मर्म है, आग की वह तपिश, जिसने दशकों से हिंदुत्व के हृदय को मथा है।भारतीय जनसंघ के विचारक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु जून 1953 में लखनपुर में कथित तौर पर दिल का दौरा पड़ने से हुई, जब वे जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला की बेहद शक्तिशाली और करिश्माई जोड़ी द्वारा अनुच्छेद 370 को लागू किए जाने का विरोध करने के लिए जम्मू में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे थे। वह अनुच्छेद जो उस मुस्लिम बहुल कश्मीरी आबादी को पुनः आश्वस्त करता था - जिसने पाकिस्तान के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को खारिज करते हुए भारत में रहना चुना – यह मानकर कि वे हिंदू बहुल भारत में सुरक्षित रहेंगे।
मुखर्जी की मृत्यु ने आरएसएस-भाजपा को अनुच्छेद 370 हटाने को अपनी मूल विचारधारा का हिस्सा बनाने के लिए विवश किया, लेकिन यह दलील कमोबेश जल्द ही इतिहास में खो ही जाने वाली थी। शेष भारत में करने को उनके पास और बहुत कुछ था। और अगस्त 2019 तक यह मामला अपनी जगह कायम रहा, जब तक कि मोदी ने इसे सदा के लिए हटा नहीं दिया। अनुच्छेद 370 को इसलिए हटाया गया क्योंकि आरएसएस-भाजपा का मानना था कि हिंदू बहुल जम्मू संभाग, मुस्लिम अधिसंख्यकों वाली कश्मीर घाटी के अभिजात्य वर्ग के अधीन एक दोयम दर्जे का बनकर रहने की बजाय बराबर की हैसियत का हकदार है। इस मुद्दे पर जम्मू ने सदा भाजपा का साथ निभाया। अनुच्छेद 370 निरस्त होने पर जहां जम्मू के लोगों ने सड़कों पर जश्न मनाया वहीं इसके विपरीत, जैसा कि हम सभी जानते हैं, घाटी में हड़ताल रही, इंटरनेट बंद कर दिया गया, विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगी रही और राजनीतिक नेता नज़रबंद रहे।
जमीनी स्तर पर मुकाबला बहुत कड़ा है- निर्वाचन के क्षेत्र-दर-क्षेत्र, मोहल्ला-दर -मोहल्ला, गांव-दर-गांव - टक्कर कांटे की है – इसी वजह से आगामी चुनाव इतना महत्वपूर्ण है। क्या जम्मू भाजपा को वह देगा जिसकी उसे चाहत है - पर्याप्त सीटें ताकि इनके दम पर उसका हाथ नए बने जम्मू और कश्मीर में सत्ता में वापसी की सौदेबाजी में ऊपर रह सके? या फिर उसे कम सीटों पर ही मन मसोस कर रहना पड़ेगा? जब यह क्षेत्र अपने रहनुमा से खेल नए सिरे से शुरू करने एवं अलग नियमों के अनुसार खेलने को कहेगा - अनुच्छेद 370 हमेशा के लिए दफन रखने के लिए, लेकिन वैचारिक मतभेद से इतर होकर, घाटी एवं मैदानी इलाके के लोगों को जोड़ने के लिए। हिमालय जितनी चौड़ी खाई को पाटने के लिए। संपूर्ण जम्मू-कश्मीर को फिर से जीवंत करने के लिए।

Advertisement

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

Advertisement
Advertisement
Advertisement