सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों का रुझान बढ़ाएं
शहर को मुक्त बनाएं। इसे माई-बाप वाली संस्कृति से छुटकारा दिलाओ। सुरक्षा के नाम पर भेद-भाव बंद हो। शहर सबके लिए एक बराबर हो। चंडीगढ़ बनाते वक्त के मूल विचार को पुन: स्थापित करें, समय से बहुत आगे के ‘स्मार्ट शहर’ के विचार पर।
ज्योति मल्होत्रा
नये साल का सबसे बढ़िया तोहफा, जो आप खुद को दे सकते थे, वह रहा भूपेन खाखर, जे. स्वामीनाथन और केजी सुब्रमण्यन की संगति। इसकी सबसे बढ़िया बात यह है कि यह सोहबत आपको किसी अन्य के साथ बांटने की ज़रूरत नहीं पड़ती। रामचंद्रन अपने काम में कहीं इधर-उधर विचरते दिखाई देते हैं। मेधावी नलिनी मालनी अपनी ही दुनिया में डूबी हुई हैं, इसलिए आपको निजता में किसी के खलल के बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं - देखिए तो उन्हें कहां स्थान दिया गया है, एक कदम पीछे हटकर, उन्हें सभी कोणों से देखें, जिसमें पार्श्व हिस्सा भी शामिल है। आप पाएंगे कि कैनवास पर बने सभी तैलीय चित्र दीवार पर सुतली से लटके कार्ड-बोर्ड के टुकड़े पर चिपके हुए हैं। आप अपनी पीठ पर रोमांच से उठने वाली सिहरन के प्रलोभन को महसूस करते हैं, जो आपको करना तो नहीं चाहते लेकिन फिर भी आप जानते हैं कि यह हो जाता है। आपको इस पर काबू रखना ही होगा।
अब समय है चंडीगढ़ में पंजाब विश्वविद्यालय के ललित कला संग्रहालय की अगली गैलरी में सजे आधुनिक मास्टर पेंटरों की ओर बढ़ने का। वैसे तो इस लेख का शीर्षक आसानी से हो सकता था ः ‘एक पेंटिंग कैसे चुराई जाए और कैसे इसके साथ जाएं’- सिवाय इसके कि ऐसा कुछ है नहीं। यह सब पेंटिंग्स बेहद कीमती हैं। साथ ही, शायद, इस तथ्य में कुछ आकर्षक है कि दुनिया के अधिकांश लोग भूल बैठे हैं कि यह काम भी मौजूद हैं - निश्चित रूप से इसका ब्योरा किसी वेबसाइट पर नहीं है - इसलिए जब आपको अचानक इनके दर्शन का सौभाग्य मिले तो आपके दिमाग में विचार उमड़ते हैं। हां, अगर यह पेंटिंग्स आपकी अपनी निजी जगह पर होती तो इनको निहारते हुए आप नववर्ष जैसे विशेष अवसर पर एक-दो समोसों का लुत्फ ले सकते थे। आखिरकार, सामने की दीवार पर भूपेन खाखर का जो काम लटका हुआ है, उसका शीर्षक भी है ‘कसौली में नाश्ता’। खाने के शौकीनों को निश्चित रूप से इस आइडिये से खुशी होगी।
और भी बहुत कुछ है। इस इमारत को बीपी माथुर ने डिज़ाइन किया था, वह वास्तुकार, जिन्होंने विश्वविद्यालय के मुख्य वास्तुकार-योजनाकार पियरे जिएनेरे के साथ काम किया था। संग्रहालय में समकालीन दिग्गज कलाकारों के संग्रह में लगभग 1,200 कलाकृतियां है, इनकी सेवा-संभाल चंडीगढ़ के प्यारे बेटे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित कला इतिहासकार, बीएन गोस्वामी के अलावा और कौन कर सकता था, जो एक साल पहले, अपने निधन तक, द ट्रिब्यून के लिए एक काफी पठनीय कॉलम लिखा करते थे। इसके अलावा, अब जबकि मैं भी सिटी ब्यूटीफुल की पहचानधारी कार्ड सदस्य हूं, मुझे अहसास होता है कि मैं इतिहास और संस्कृति, दोनों की, मौजूदगी में हूं।
कुलविंदर तेजी से अंदर आता है। उनकी कुछ गुस्सैल हरकतें गैलरी की ठंडी हवा में हलचल कर देती हैं- अब तक तो वहां सिर्फ मैं और दिग्गज कलाकार थे। रामचंद्रन की पेंटिंग में चर्च में चिंतन करने में मग्न भिक्षुओं की पेंटिंग देखकर ऐसा लगता है मानो आंद्रेई रुबलिएव के स्टाइल से प्रेरित हो। अटेंडेंट, जो रिसेप्शन एरिया में हीटर पर अपने हाथ गर्म करना पसंद करती है, मुझे बताती है, ‘काफी लोग आते हैं म्यूजियम में, हर दिन कम-से-कम 10-12 लोग।’ मैं कुलविंदर से पूछती हूं कि क्या यहां कोई गाइड है। वह तल्खी से जवाब देता है ः ‘मुझे नहीं पता, मैं टेक्निकल डिपार्टमेंट से हूं।’
अगर चंडीगढ़ आज वह है जो 40 साल पहले दिल्ली हुआ करती थी, तो आप इसके म्यूजियम के हालात की कल्पना कर सकते हैं - सरकारी उदासीनता के तले छिपे हुए रत्न। सेक्टर 10 में स्थित सरकारी संग्रहालय और आर्ट गैलरी, जिसे ली कॉर्बूजिए ने स्वयं डिजाइन किया था, वहां लकड़ी का बहुत बड़ा दरवाजा है जो एक ही धुरी पर घूम सकता है – ऐसे बड़े-बड़े दरवाजे आप हरियाणा-पंजाब विधानसभा के संयुक्त भवन में भी देख सकते हैं, जिसे ली कॉर्बूजिए ने कैपिटॉल कॉम्प्लेक्स के एक छोर पर डिजाइन किया था, जो कि अपने-आप एक शानदार परिसर है। होना तो यह चाहिए था कि सर्दियों की धूप का आनंद लेते लोगों और मूंगफली बेचने वालों से सजा नयनाभिराम दृश्य देखने को मिलता, लेकिन इसके बजाय इसे सुरक्षा के नाम पर एक अति विशेष क्षेत्र में बदल दिया गया है, जिसका अर्थ है कि केवल वीवीआईपी और पंजीकृत आगंतुक ही वहां जा सकते हैं- लेकिन वास्तविक अनुभव तब शुरू होता है, जब आप कॉर्बूजिए के दरवाजे से सरकारी संग्रहालय में प्रवेश करते हैं।
वहां उपलब्ध ब्रोशर सिर्फ फ्रेंच में हैं। (कॉर्बूजिए चूंकि स्विस-फ्रेंच मूल के थे, इसलिए ऐसा लगता है कि वहां से आए लोगों के वास्ते है।) मेरे साथ रैंप पर चलती गाइड- जिसका नाम गीतांजलि है– ने बताया ‘अंग्रेजी वाले खत्म हो चुके हैं।’ एक दीवार पर मृणाल मुखर्जी द्वारा बनाई रस्सी से बनी एक खूबसूरत रचना लटकी हुई है, सिवाय इसके कि नीचे का हिस्सा घिसा हुआ है। आप पहली मंजिल पर पहुंचते हैं और कांस्य की कलाकृतियां, संघोल उत्खनन में मिले ऐतिहासिक अवशेष, गांधार की मूर्तियां और आगे के कमरों में सजी पहाड़ी पेंटिंग देखकर दंग रह जाते हैं। ऐसा लगता है कि आमतौर पर चंडीगढ़ के प्रथम नागरिक के रूप में जाने जाते एमएस रंधावा ने स्वतंत्रता के तुरंत बाद राजाओं-जागीरदारों के कलात्मक संग्रहों को खंगाला होगा और उनसे अपना यह कीमती सरमाया छोड़ने का अनुरोध किया होगा ताकि कला संग्रहालय सुशोभित हो सके। इस तरह बीएनजी, जैसा कि उत्तर भारत के सभी लोग प्यार से बीएन गोस्वामी को बुलाते हैं, ने हमारी अपनी विरासत को समझने और बूझने में क्रांति ला दी।
बेशक, हर कोई जानता है कि 1947 में देश विभाजन के समय गांधार की मूर्तियां भारत और पाक के बीच बांट दी गई थीं- लाहौर संग्रहालय ने 60 प्रतिशत रखी हैं, जबकि शेष कॉर्बूजिए के चंडीगढ़ संग्रहालय में हैं। इस तरह, मंद-मंद मुस्कुराते बुद्ध, उनके पदचिह्न वाला चट्टान का टुकड़ा, बुद्ध के बचपन के दृश्यों को दिखाने के लिए उकेरी गई एक खड़ी कलाकृति, जिसमें जब वे राहुल थे और वह दृश्य जब मां माया ने अपने इस प्रिय बेटे के बारे में एक सपना देखा था- सभी का चित्रण इसमें सिमटा हुआ है। मूर्तियों ने मुझे सीमा पार तक्षशिला के संग्रहालय की याद दिला दी। गैलरियां खाली हैं। परिचारक अखबार पढ़ समय काट रहे हैं। गाइड गीतांजलि ने मुझे बताया कि ‘छात्रों सहित बहुत से लोग आते हैं’, (एक स्कूली समूह हंसी-ठिठोली वाला शोर मचा रहा है) और कुछ विदेशी दर्शक हैं। जनवरी-सितंबर, 2024 का आंगुतक आंकड़ा बताता है कि कुल 27,839 टिकट बिके। अकेले पेरिस का लुवेरे म्यूज़ियम सालाना नब्बे लाख आगंतुकों को आकर्षित करता है, तो न्यूयॉर्क का मेट्रोपॉलिटन म्यूजियम सत्तर लाख दर्शक और सेंट पीटर्सबर्ग का हर्मिटेज देखने 32 लाख लोग आते हैं (शीर्ष 100 सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले कला संग्रहालयों में एक भी भारतीय संग्रहालय नहीं है)।
चंडीगढ़ संग्रहालय में कई सालों से पूर्णकालिक निदेशक नहीं है, वर्तमान में जो प्रभारी है वह एक उप-मंडलीय मजिस्ट्रेट भी हैं, वे छुट्टी पर थे क्योंकि उनकी शादी होने वाली थी। लेकिन जब गीतांजलि ने मुझे बताया कि सिकंदर महान समुद्र के रास्ते गांधार पहुंचे थे, तो मैं समझ गई, अब यहां से निकलना चाहिए। यह एलांते मॉल जाने का भी समय है, ताकि यह देखा जा सके कि चंडीगढ़ में वास्तव में क्या पसंदीदा है- संग्रहालय जैसी उबाऊ जगहों के विपरीत। शायद यूटी के गृह सचिव मंदीप बरार, जो अपने सिटी ब्यूटीफुल की पर्यटन संभावना को बेहतर बनाने के मिशन पर हैं, उन्हें एलांते के लोगों को अपनी टीम में जोड़ना चाहिए। उन्हें पता है : लोगों को संग्रहालयों व कला दीर्घाओं में कैसे लुभाया जाए ताकि वे इतिहास व संस्कृति का भी आनंद ले सकें?
शहर को मुक्त बनाएं। इसे माई-बाप वाली संस्कृति से छुटकारा दिलाओ। सुरक्षा के नाम पर भेद-भाव बंद हो। शहर सबके लिए एक बराबर हो। चंडीगढ़ बनाते वक्त के मूल विचार को पुन: स्थापित करें, समय से बहुत आगे के ‘स्मार्ट शहर’ के विचार पर। इस साल, लोगों की आवाज़ सुनें, ठीक वैसे ही जैसे हम द ट्रिब्यून में करते हैं। वर्ष 2025 की शुभकामनाएं, दोस्तो!
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।