आत्ममुग्धता के दंश
एक बार एक राजा को अपने पराक्रम और साम्राज्य पर बहुत ही अभिमान हो गया। इस अभिमान के कुप्रभाव से वो बहुत बड़बोला बन गया। यह बात राजा के कुलगुरु ने भांप ली। वो राजा को एक बार वन भ्रमण के लिए ले गये। वहां बादल गरज रहे थे, मोर नाच रहे थे, हवा बह रही थी मगर राजा का इन सब पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं था। अब कुलगुरु ने अचानक एक खुजली वाली पत्ती राजा के हाथ से स्पर्श करा दी। पल भर गुजरा और राजा हथेली को मसलने लगा, थोड़ी देर में वो लाल हथेली की इस हालत से परेशान हो गया। अब कुलगुरु ने वन से ही कुछ पत्तियां लेकर उनका रस लगाया और कुछ ही पल में हथेली सामान्य हो गई। कुलगुरु ने कहा, राजन आप अब अपने सिवा हर किसी को महत्वहीन समझ रहे हैं। अब आज से याद रख लीजिए कि यदि स्वयं की अच्छाइयों पर आत्ममुग्धता होने लगे तो समझ लीजिए कि अब आपकी अच्छी और सच्ची चीजों से मिलने की प्रक्रिया बिलकुल रुक चुकी है।
प्रस्तुति : पूनम पांडे