चुनाव से पहले और चुनाव के बाद
सहीराम
वैसे तो चुनाव से पहले और चुनाव के बाद अन्य भी बहुत-सी चीजें, बहुत-सी बातें होती हैं। पर यहां बात चुनाव से पहले पड़ने वाली गालियों और चुनाव के बाद पड़ने वाली गालियों की ही की जाए तो बेहतर है क्योंकि बाकी बातों का कोई मतलब नहीं होता। मसलन चुनाव से पहले किए जाने वाले वादों, जिन्हें आजकल गारंटियां कहने का रिवाज चल पड़ा है, का क्या कोई मतलब होता है? यह बात नेता भी जानते हैं और मतदाता भी जानते हैं कि इनका कोई मतलब नहीं होता।
एक जमाने में सड़क, बिजली, पानी के बड़े वादे होते थे। आजकल ऐसे वादे कोई नहीं करता। क्योंकि जगहंसाई होने का डर होता है। एक जमाने में महंगाई की भी बड़ी भूमिका होती थी चुनावों में। इतनी कि कई बार तो प्याज भी चुनाव हरा देती थी, जिता देती थी। अब तो गठबंधन का जमाना होने के बावजूद सारी सब्जियां मिलकर भी यह काम नहीं कर पाती। रोजगार का मुद्दा भी कहां चुनावी मुद्दा बन पाता है। यह सब पुराने जमाने की बातें हो गयी हैं। नेता लोग भी चतुर हो गए हैं। इसलिए अब वे वादे करते ही नहीं, गारंटियां करते हैं। चाहो तो उन्हें वादे मान सकते हो। लेकिन मतदाता न जीतने वाले के वादों पर भरोसा कर उसे जिताते हैं और न ही वादों पर भरोसा न करके उन्हें हराते हैं। अगर ऐसा होता तो न जीतने वाले जीतते और न ही हारने वाले हारते। मतलब बातें हैं, बातों का क्या?
इसलिए राजनीति में पड़ने वाली गालियों की ही बात की जाए तो अच्छा है। यूं राजनीति ऐसा पेशा है, जहां बेचारे नेताओं को गालियां तो हमेशा ही पड़ती रहती हैं। इस मामले में उनका मुकाबला खासतौर से पब्लिक डीलिंग वाले चंद सरकारी महकमों के कर्मचारी ही कर सकते हैं। खैर जी, राजनीति में दो तरह की गालियां विशेष रूप से उल्लेखनीय होती हैं- एक वे जो चुनाव से पहले पड़ती हैं और दूसरी वे जो चुनाव के बाद पड़ती हैं। चुनाव से पहले एक तो उन नेताओं को गालियां पड़ती हैं, जो पांच साल बाद दर्शन देने पहुंचते हैं और एक उनको जिन्होंने अलग-अलग ढंग से जनता को गालियां दी होती हैं।
इनके अलावा बड़े नेता अपने को पड़ने वाली गालियां गिनाते हैं, ताकि चुनाव जीत सकें। कोई बाकायदा संख्या बताने लगता है, तो कोई उन्हें असंख्य बताने लगता है। इनमें वे गालियां भी शामिल होती हैं, तो वास्तव में गालियां नहीं होती, बल्कि आरोप होते हैं, लेकिन उन्हें गालियां मान लिया जाता है। फिर इनमें वे गालियां भी होती हैं, जो वास्तव में दी ही नहीं गयी। ज्ञानीजन इसे विक्टिम कार्ड खेलना कहते हैं। फिर वे गालियां होती हैं, जो चुनाव के बाद पड़ती हैं। यह मुख्यतः हारने वालों को पड़ती हैं जैसे आजकल हरियाणा के कांग्रेस नेता ऐसी ही गालियों से दो-चार हैं।